जलियांवाला बाग 
इतिहास के सबसे अमानवीय और भयावह पन्ने में से एक है जालियांवाला बाग हत्याकांड, उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था. उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी. वे चश्मदीद गवाह थे, उन हजारों बेगुनाह मासूम भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे. इस भीषण नरसंहार से आक्रोशित उधम सिंह ने वहीं पर जलियांवाला बाग की रक्तिम मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ’ ड्वायर और जनरल डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ली थी. इसके बाद उधम सिंह क्रांतिकारी दल में शामिल हो गए और चंदा इकट्ठा कर देश के बाहर चले गए. वह दक्षिण अफ्रीका, जिम्बॉब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा कर क्रांति की अलख जगाते रहे. सन 1934 में ऊधम सिंह 9, एल्डर्स स्ट्रीट कमर्शियल रोड लन्दन में जाकर रहने लगे. उनके लंदन पहुंचने से पहले ही सन 1927 में जनरल रेगिनाल्ड डायर बीमारी के कारण मर चुका था. अतः उन्होंने अपना पूरा ध्यान माइकल ओ’ ड्वायर को मारने पर लगा दिया .
13 मार्च 1940 को ईस्ट इंडिया एसोसिशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में नरसंहार के वक़्त पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर भी वक्ताओं में से एक था. उधम सिंह उस दिन समय पर वहां पहुंच गए. उधमसिंह ने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था और बक्से जैसा बनाकर उसमे रिवाल्वर छिपा रखी थी. शाम के 4.30 बजे जैसे ही ओडायर भाषण देकर अपनी कुर्सी की तरफ लौटा, उधम सिंह ने उस पर 5-6 गोलिया दाग दीं. दो गोलिया लगने से डायर की मौके पर ही मौत हो गई. इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और दुनिया को यह संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते.
उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की. उन्हें गिरप्तारी उपरांत पूछताछ के लिए Central Criminal Court, Old Bailey में रखा गया था, कोर्ट में जज ने जब सवाल दागा कि उन्होंने ओ’ ड्वायर के अलावा उसके दोस्तों को क्यों नहीं मारा, तो उधम सिंह ने यह जवाब दिया कि वहां पर कई औरतें थी और हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है. 4 जून 1940 को उन्हें ह्त्या का दोषी मानकर Justice Atkinson ने फांसी की सजा सुना दी थी। 15 जुलाई 1940 में अपील खारीज कर दी गयी और 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को नार्थ लन्दन की H M पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई. अंग्रेजों को उन्हीं के घर में घुसकर मारने का जो साहसिक काम सरदार उधम सिंह ने किया था, उसकी हर जगह तारीफ हुई. यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी इसकी तारीफ करते हुए यह कहा था कि माइकल ओ’ ड्वायर की हत्या का अफसोस तो है, पर ये बेहद जरूरी भी था. जिसने देश के अंदर क्रांतिकारी गतिविधियों को एकाएक तेज कर दिया.
सरदार उधम सिंह के इस महाबदले की गाथा स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा देती रही. इस घटना के अंग्रेजों को 7 साल के अंदर भारत छोड़कर जाना पड़ा और हमारा देश आजाद हो गया. उधम सिंह जीते जी भले आजाद भारत में सांस न ले सके, पर आज भी वह करोड़ो हिंदुस्तानियों के दिलो में जीवित है और इतिहास में अमर हो गए है. उनकी यह आखरी इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को उनके देश भेजा जाये. करीब 34 वर्ष बाद 1974 में भारत सरकार, पंजाब सरकार के साथ मिलकर उधम सिंह के अस्थियों को लाने में सफल हुई। दि. 31जुलाई 1974 को सुनाम जिला संगरूर में मातृभूमि में उनका अंतिम संस्कार किया गया, वही उनकी समाधि बनाई गयी है.

आजाद की शहादत: १९३१ में ब्रिटैन में छपी खबर

                 

                                                                               - अनिल वर्मा  

                                          अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत को करीब ८६ साल व्यतीत  हो चुके है , पर आज भी आज़ाद का नाम लेते ही अपार जोश से भुजाये फड़कने उठती  है और  जहन  में देशभक्ति  और बलिदान  का जज्बा सैलाब की भांति उमड़ने लगता है।   चंद्रशेखर तिवारी   ने बचपन में बनारस में १५ बैत की सजा पाने के बाद आज़ाद नाम वरण किया था, वह क्रान्तिकारी दल हिसप्रस के सेनापति होने के नाते दल के सभी महत्वपूर्ण एक्शन में शामिल थे ,ब्रिटिश हुकूमत ने आज़ाद को जिन्दा या मुर्दा पकड़वाने के लिए २५,००० हजार रूपये का ईनाम  घोषित किया था ,पर अपने नाम को सार्थक करते हुए वह आजीवन आज़ाद रहे और अंततः २७ फरवरी १९३१ को अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद में ब्रिटिश पुलिस से बहादूरीपूर्वक लड़ते हुए वतन  की आज़ादी  के लिए भारत माता की गोद में सदा के लिए सो   गए ।   यह विडंबना है कि स्वाधीनता उपरांत भी  इस महान क्रांतिकारी पर  नगण्य  शोध  हुआ है ,यद्यपि अब उनसे संबधित इतिहास  मिटने की कगार पर आ गया है ,फिर भी   उनके  बारे में कभी कभार नए संस्मरण सामने आ जाते  है।आज़ाद की शहादत उपरांत ब्रिटैन के एक छोटे से अखबार में उनके बारे में छपी एक खबर मैंने   गहन शोध उपरांत हासिल की है , जो  सर्वप्रथम  बार देश के सामने प्रस्तुत  है ।


               उन दिनों इंग्लैंड के स्कॉटलैंड काउंटी  के एनगस शहर में डुंडी नामक छोटे से स्थान से '' Dundee Evening Telegraph ''अख़बार प्रकाशित होता था।  इस अख़बार के २ मार्च १९३१ के ऐतिहासिक अंक में शीर्षक  '' Crowd   throw  flowers before  procession '' से वर्णित  समाचार में भारतीय  क्रांतिकारी चंद्र शेखर आज़ाद के ब्रिटिश पुलिस के साथ मुठभेड़ में अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद में मारे जाने , उनकी शिनाख्त एवं पोस्टमार्टम किये जाने तथा अंतिम यात्रा का जुलूस निकाले जाने का महत्वपूर्ण उल्लेख है।  समाचार में यह भी बताया गया था कि आज़ाद के रिश्तेदार व बनारस के कांग्रेसी सदस्य श्री शिव विनायक मिश्र ने उनका अंतिम संस्कार किया थाऔर  आज़ाद की अंतिम यात्रा के जुलुस  के दौरान शहर की गलियों में उन पर पुष्प वर्षा  की गयी थी और उनके पार्थिव देह क़ी राख को काले  रंग के हस्तनिर्मित कपड़े में  सहेज कर रखा गया था।    


                   

 

                                       

                      ब्रिटैन के अख़बार की इस दुर्लभ कतरन के साथ भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की सुनहरी यादों को ताजा करते हुए , अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद को सादर शृद्धा सुमन अर्पित है।


                                                                                                                            - अनिल वर्मा



                                                           
                                         
              अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद की टोपी 
                                                                                  - अनिल वर्मा 
 
                                     



                                           अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद ने बाल्यकाल  में वाराणसी में वीरतापूर्वक १५ बैत की सजा भुगतने के बाद यह भीष्म  प्रतिज्ञा ली थी कि   ब्रिटिश हुकूमत उन्हें फिर कभी जीते जी पकड़ नहीं पायेगी।  वह सन १९२५ के काकोरी ट्रैन डकैती कांड से लेकर २७ फरवरी सन १९३१ को अपनी शहादत  तक लगातार फरार रहे,इस दौरान ब्रिटिश हुकूमत   पूरे देश मेंउनकी तलाश में शिकारी  कुत्तो की तरह पीछे पड़ी रही , पर वह  फिर कभी पुलिस के हत्थे नही चढे। उनके इस लंबे और सफल फरारी जीवन का मुख्य राज यह   था कि वह  अपनी पहचान छिपाये रखने के लिए अपना परिवेश  , बोलचाल  और वेश भूषा निरंतर बदलते रहते थे  और उनका व्यक्तित्व ऐसा अनूठा था  कि वह वेश बदल कर  कभी निपट देहाती बन जाते ,तो  कभी  साधु संत, पंडित, सेठजी, या  शिकारी बन जाते थे  , फिर उनके परिचित तक उन्हें पहचान नहीं पाते थे।

                        अभी हाल में जनवरी २०१७ में मुझे कानपुर में अमरशहीद चंद्रशेखर आजाद की ऐसी ही एक दुर्लभ  टोपी देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ .जिसके बारे में आज भी बहुत कम लोग जानते है. कानपुर के परेड इलाके की तंग गलियो में सन १९३३-३૪ के बने तिलक मेमोरियल हाल में एक पुरानी लायब्रेरी में आजाद की यह टोपी रखी हुई है. सन १९२५ में काकोरी कांड के बाद आजाद ट्रेन से कानपुर जा रहे थे. तब तक अधिकांश क्रन्तिकारी पकडे जा चुके थे। उन्हें  भलीभांति यह आभास था कि कानपुर में सी.आई. डी पुलिस सरगर्मी से उन्हें चप्पे चप्पे में तलाश कर रही है. वो गंगाघाट स्टेशन पर उतरकर पैदल ही गंगापुल पार करके पटकापुर में अपने परिचित श्री नारायण प्रसाद अरोडा के घर चले गये और सुबह वहां से रवाना होते समय उन्होने वेष बदलने के लिये अपनी खादी टोपी उतारकर अरोडा जी के बेटे द्रोण को दे दी और उसका हैट पहनकर बेख़ौफ़  पटकापुर की गलियो से होते हुए, सकुशल अपनी राह पर आगे बढ़  गये थे । 

                            आज़ाद की   इस टोपी को श्री नारायण प्रसाद अरोड़ा ने आजीवन बहुत संभाल कर  रखा था , वह हर साल   यह टोपी केवल राखी के समय ही  पहनते थे। अरोड़ा जी की मृत्यु उपरांत उनके पौत्र डा. अरविन्द अरोडा ने इस टोपी को तिलक मेमोरियल सोसाइटी कानपुर को भेंट किया  था . अमरशहीद आजाद की इस  ऐतिहासिक टोपी को  देख कर मैं काफी भावुक हो गया था. उस समय मेरे साथ श्री क्रांति कुमार कटियार जी भी थे .जो कि शहीद भगत सिंह के अन्यय साथी और लाहौर षड़यंत्र केस में कालापानी की यातना  भुगतने वाले महान क्रांतिकारी डा. गया प्रसाद कटियार  के सुपुत्र है. 
                                                                                                                      -अनिल वर्मा
                        प्रखर क्रांतिवीर  शचीन्द्र नाथ बख्शी 

                                                                                       -अनिल वर्मा 
 
                                मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए सभी बाधाओ को तोड़कर  अपना सर्वस्व बलिदान करते हुए सतत बढ़ते  रहना  क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ बख्शी क़ी अनूठी विशेषता थी। वह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख संगठनकर्ता भी थे , उन्होंने झाँसी और बनारस की माटी में से मोती तराश कर भारतमाता को क्रांतिपथ पर  देश के लिए मर मिटने वाले ऐसे अनेक सपूत दिए थे , जिनका हमारे स्वाधीनता  संग्राम में महान योगदान रहा है। शचीन्द्र नाथ बक्शी जी को प्रख्यात काकोरी ट्रैन डकैती केस में कालापानी की सजा हुई थी।  
                                                               बक्शी जी का जन्म २५ दिसम्बर १९०४ को संयुक्त प्रांत के बनारस शहर में हुआ था। उनके पिता मूलत: बंगाल  के फरीदपुर जिले के रहने वाले थे aur बाद में बंगाल से आकर संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के शहर बनारस में बस गये .उन्होंने १९२१ में एंग्लो बंगाली हाई स्कूल से मेट्रिक की परीछा उत्तीर्ण की थी .तब तक पूरे देश में स्वाधीनता के संघर्ष की चेतना जाग्रत हो चुकी थी और बक्शी जी के मन में भी देशप्रेम की प्रचंड ज्वाला प्रज्वलित हो गयी थी , उन्होंने देशहित को सर्वोपरि मानते हुए अपनी पढ़ाई  को त्याग दिया , असहयोग आंदोलन की नाकामी के बाद वह क्रान्ति पथ पर अग्रसर हो गए , उन्होंने अपनी विचारधारा को  मजबूत बनाने के लिए बनारस में व्यायाम शालाओ में जाना शुरू कर दिया। १९२३ के दिल्ली के स्पेशल कांग्रेस अधिवेशन में वह क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल  और जोगेश चंद्र चटर्जी के संपर्क में आने के बाद  ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के लिये गठित हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन नामक क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल हो गए   ।  फिर उन्होंने  कुछ दिनों झाँसी से निकलने वाले एक अखबार का सम्पादन भी किया।
              बक्शी जी ने सेण्ट्रल हेल्थ यूनियन के बैनर तले  बनारस के नवयुवकों को संगठित किया और तैराकी की कई प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं ,इसकी प्रतियोगिता में विजेता हुए केशव चक्रवर्ती  भी क्रांतिकारी दल के सदस्य थे , उन्हें क्रांतिकारी  गतिविधियों में आवश्यकता की पूर्ति के लिए जर्मनी से माउज़र पिस्तौल लाने का दायित्व सौपा गया , केशव जर्मनी में आयोजित तैराकी स्पर्धा में भाग लेने के बहाने जर्मनी गए  ऒर वहां उन्होंने माउज़र पिस्तौलों का सौदा पक्का कर लिया। सन १९२५ में जुलाई के तीसरे सप्ताह में हथियारों का वह पार्सल लेकर जर्मनी का एक जहाज समुद्र के रास्ते भारत आने वाला था, जिसे ब्रिटेन की समुद्री सीमा से दूर समुद्र में नगद राशि देकर मॉल छुड़ाना था।  धन की व्यवस्था  के लिए सहारनपुर लखनऊ पैसेंजर ट्रैन से जाने वाला अंग्रेजी खजाना लूटने की योजना बनायीं गयी।  बख्शी जी यह उत्तरदायित्व सौप गया कि वह अपने साथ राजिंदरनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला को ले जाकर काकोरी स्टेशन से दूसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हो और आगे की योजना को संचालित करे। ९ अगस्त १९२५ को शचीन्द्र नाथ बख्शी और उनके साथियो ने काकोरी और आलमपुर स्टेशन के बीच में ट्रैन रोक कर गार्ड के डिब्बे में रखे  संदूक को तोड़कर उसमे रखा खज़ाना लूट लिया।  बख्शी जी उससे मिले पैसो का कुछ भाग लेकर कलकत्ता चले गए और उन्होंने किराये पर ली गयी बोट से समुद्र में जाकर बिल्टी और पैसे देकर पार्सल प्राप्त क्र लिए ,जिसमे ५० माउज़र पिस्तौल थी , बाद में जब चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में लड़ते लड़ते शहीद हुए थे  तब  उनके पास इन्ही पिस्तौलों में से एक पिस्तौल पायी गयी थी। 

                               काकोरी ट्रैन डकैती की साहसिक कारनामे ने ब्रिटिश हूकूमत को हिला कर रख दिया। पुलिस की सरगर्मियां तेज हो गयी और २६ सितम्बर १९२५ तक आज़ाद , अशफ़ाक़ उल्ला और बख्शी जी को छोड़कर अन्य सभी क्रान्तिकारी साथी गिरफ्तार हो गए थे । पर शचीन्द्र नाथ बख्शी जी पुलिस को चकमा देने में सफल रहे ,वह  घर से फरार हो गए ,वह अपना पहचान चिन्ह अपना दाँत निकलवा कर और हुलिया बदलकर बम्बई पहुँच कर बंदरगाह से मॉल उतरने वाले गोदी मजदूर बन गए , वह चाहते तो गोदी कर्मचारी के रूप में जहाज में सवार होकर आसानी से विदेश भाग सकते थे ,पर वह कुछ अन्य साथी बटोरकर दल का पुनर्गठन करना चाहते थेबिहार में पार्टी का कार्य छुपे तौर पर करते रहे। उनको भागलपुर  में पुलिस तब  गिरफ्तार कर सकी , जब काकोरी-काण्ड के मुख्य मुकदमे का फैसला हो चुका था। उन्हें और अशफाक को सजा दिलाने के लिये लखनऊ के स्पेशल जज जे॰आर॰डब्लू॰ बैनेट की अदालत में काकोरी षड्यन्त्र का पूरक मुकदमा दर्ज़ हुआ था और  13 जुलाई 1927 को उन्हें आजीवन कारावास अर्थात काला पानी की सजा दी गयी। इसी मुकदमें में  अशफ़ाक़ उल्ला खां को फाँसी की सजा हुई थी

                                बख्शी जी का जेल जीवन  भी जीवटता और संघर्ष से परिपूर्ण रहा , उन्होंने १९३७ में राजबंदियों की रिहाई के लिए आमरण अनशन किया था ,जिससे देश भर में खलबली मच गयी , अंततः बम्बई में कांग्रेसी सरकार  बनने के बाद अन्य क्रांतिकारियों के साथ बख्शी जी भी जेल के बाहर आ गए , फिर उन्होंने कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर निष्ठा से काम किया ,वह बहुत दिनों तक उत्तरप्रदेश कांग्रेस समिति के संगठन मंत्री रहे ,स्वराज्य प्राप्ति  के उपरांत उन्होंने भीषण गरीबी में जीवन गुजारा था , पर  किसी से कोई शिकायत नही की।   बाद में वह जनसंघ में शामिल हुए और बनारस से उ. प्र. विधान सभा सदस्य निर्वाचित हुए , पर राजनीति में रहकर भी उन्होंने अपने उच्च आदर्शो और नैतिक मूल्यों से कभी कोई समझौता नहीं किया।   

                                  शचीन दा ने अपने जीवन काल में क्रान्तिकारी संस्मरणों पर आधारित दो पुस्तकें  "क्रान्ति के पथ पर: एक क्रान्तिकारी के संस्मरण" एवं  "वतन पे मरने वालों का "भी लिखीं, जो उनके मरने के बाद ही प्रकाशित हो सकीं।  सुल्तानपुर  (उत्तर प्रदेश) में 80 वर्ष का आयु में 23 नवम्बर 1984 को उनका  निधन हो गया था । भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में  एक प्रमुख क्रान्तिकारी के  रूप में उनका  महान योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा ।

                                            
                                                                                                                   -अनिल वर्मा
            आजाद की माता की लाड़ली बहू : शांता मलकापुरकर 
 
                                                                                                                           - अनिल वर्मा

शांता ताई और अनिल वर्मा
आज़ाद की माता जगरानी देवी
आज़ाद
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सदाशिव राव मलकापुरकर



                                                 इतिहास के पन्ने गवाह है कि अमरशहीद चन्द्रशेखर आज़ाद  ने वतन के लिए अपना घर परिवार  और  जिंदगी सहित सर्वस्व बलिदान कर दिया था।  27 फरवरी 1931 को आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क इलाहबाद शहीद होने के पूर्व उनके चारो भाई काल कलवित हो चुके थे , 2 -3 साल बाद उनके पिता प. सीताराम तिवारी का भी निधन हो गया , फिर अकेली रह गयी उनकी वृद्ध माता जगरानी देवी को असहाय हालात में भाभरा (जिला अलीराजपुर म. प्र. )  में एक छोटी सी टूटी फूटी कुटिया में भीलों के बीच जीवन संध्या व्यतीत करना पड़ी। यह विडम्बना है कि देश के लिए मर मिटने वाले इस अमर शहीद की माता को 1 -2 पैसे के गोबर के उपले बेचकर जो सस्ता अनाज कोदो कुटकी नसीब होता   था ,  रोटी बनाने के लिए अपर्याप्त न होने से उसे पानी में  घोलकर  किसी तरह से पेट की भूख मिटाना पड़ती  थी. इधर अनपढ़ भील उसे  यह ताने देते थे कि तेरा बेटा तो चोर डाकू था ,इसलिए ब्रिटिश हूकूमत ने उसे मार गिराया था , वह बेचारी गरीब देहाती महिला अपने आँसुओ को पीकर  दुनिया से अपना मुँह छिपाते फिरती थी।

                                                                               देश की आज़ादी के बाद सन 1949 में आज़ाद के दांये हाथ माने जाने वाले उनके विश्वस्त साथी क्रांतिकारी सदशिवराव मलकापुरकर को जब माता जी के जीवित होने की जानकारी मिली, तो वह माता जी को ससम्मान  अपने घर ले आये।  माताजी उनके साथ कभी झाँसी और कभी रहली (जिला सागर म. प्र. )में रहने लगी।  सदाशिवराव के बड़े भाई शंकरराव भी क्रांतिकारी थे , उन्हें भी जलगांव बम केस में  जेल की सजा हुई थी . दोनों भाईयो ने असीम सेवा और स्नेह से माता जी को कभी भी बेटे की कमी महसूस न होने दी , सदाशिव ने तो आज़ाद के पदचिन्हों पर चलते हुए शादी नहीं की थी , पर शंकरराव की पत्नी शान्ता ताई माताजी की बहुत सेवा करती थी और माताजी भी उन्हें प्यार से दुल्हन कहती थी और उन पर खूब वात्सल्य लुटाती थी , 1949 में सदाशिव और शान्ता ताई ने माताजी की  चारो धाम की तीर्थयात्रा  की अंतिम अभिलाषा पूरी करायी थी .माताजी अक्सर कहती भी थी कि यदि चंदू (चंद्रशेखर आज़ाद ) जिन्दा भी होता तो इससे ज्यादा क्या सेवा करता।

                   मेरा यह परम सौभाग्य है कि सागर में पदस्थापना के दौरान मुझे मलकापुरकर परिवार के  सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ था , शंकरराव जी बड़े पुत्र हेमन्त राव मलकापुरकर के साथ मिलकर हम लोग हर साल 27 फरवरी को आज़ाद जयंती पर किसी न किसी क्रांतिकारी के वंशज को रहली आमंत्रित कर कार्यक्रम आयोजित करते थे ,आदरणीय माता जी (शांता ताई ) मेरे प्रति असीम स्नेह रखती थी , आज़ाद और उनकी माता जी के उल्लेख से ही वो खिल उठती थी , जब मैं उनके चरणस्पर्श करता था, तो वो बड़े प्यार से हाथ पकड़कर मुझे अपने गले लगा लेती थी , मैं भी स्नेहित भाव से उनमे अपनी स्व. माँ का अक्स  पाकर गदगद हो जाता था . माता जी 90 वर्ष की उम्र के पड़ाव पर भी एकदम स्वस्थ थी , वो घर , मोहल्ले ,बाजार सब तरफ आसानी से पैदल घूम फिर आती थी।

                                                    वक्त के धपेड़े भी माताजी के मानसपटल से 60 -62 पुरानी  स्मृतियों को धूमिल नहीं कर सके थे , वह अक्सर उत्साहपूर्वक यह बताती थी कि आज़ाद की माताजी उनके साथ अधिकतर झाँसी वाले घर में रहती थी और कभी कभी रहली के इस घर में आकर भी रहती थी ,वह रहली से ही उनके साथ अधिकांश तीर्थ यात्राओ पर गयी थी .माता जी सुबह जल्दी उठ जाती थी , उन्हें बिना प्याज लहसुन का सादा खाना पसंद था , वह अपना खाना खुद बनाती थी और सदु (सदाशिव) को भी खिलाती थी ,उन्हें मैथी के लडडू बहुत पसंद थे ,वह पुरी जाते समय भी अपने साथ डिब्बे भर के मैथी के लड्डू ले गयी थी।   माता जी ने ही उनके छोटे बेटे जगन्नाथ का नामकरण किया था  और बहुत लाड़ प्यार के साथ झाँसी से बच्चे के लिए 5 रु. भेजे थे , जिससे बहुत सारे कपङे , खिलौने , गद्दे रजाई ख़रीदे गए थे  , पर बिचारी वह  उस बच्चे का मुँह न देख पायी , आजाद की माता जगरानी देवी ने  23 मार्च 1951 को  झाँसी में सदाशिव की बाँहों में अंतिम सांसे ली थी। शान्ता ताई  आज़ाद की माता का लोहे संदूक ,और लोटा स्मृतिचिन्ह के बतौर आजीवन सहेज कर रखी रही , हम लोग उस संदूक और लोटे का स्पर्श कर खुद को धन्य महसूस  करते थे। इन सब ऐतिहासिक घटनाचक्रों  का  मेरी पुस्तक ''आजाद की माता जगरानी देवी '' में विस्तृत वर्णन किया गया है।

                                                     करीब 3 साल पहले माताजी (आदरणीय शान्ता ताई ) के गिर जाने से उनके कूल्हे की हड्डी टूटने पर डॉक्टरों सहित किसी को भी यह यकीन  न था कि  वो 93 साल की आयु में डायबिटीज़ के रहते हुए दुबारा फिर कभी बिना सहारा के चल सकेगी , पर उनमे तो आज़ाद और उनकी जन्मदायिनी माता की दिव्यशक्ति का अंश था , उन्होंने अपनी प्रबल इचछा शक्ति के दम पर 6 -7 माह में बिना सहारे के चल फिर कर सबको चकित कर  दिया था , पर फिर एक बेटे की मौत ने उनके अंतर्मन को तोड़ दिया और वो यह कहने लगी थी कि अब मुझे जाने दो।  उन्हें अभी २ दिन पहले ही जब उन्हें दिल  और लकवे के दौरे के कारण गंभीर स्थिति में सागर के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया था ,तब भी हम सब को फिर उन्हें  पूर्ण स्वस्थ  देखने की आस थी , पर आज 25 अगस्त 2016 को दोपहर के समय वह हम सब को रोते बिलखते छोड कर अपनी प्यारी सासूमाँ (माता जगरानी) के पास सदैव के लिए उस अंतिम यात्रा पर चली गयी है , जहाँ से फिर कभी उनकी वापसी न हो सकेगी। परमपिता ईश्वर से यही वंदना है कि उनकी पुण्य आत्मा को अपने चरणों में स्थान प्रदान करे।

                                                                                                                               - अनिल वर्मा