जलियांवाला बाग
इतिहास के सबसे अमानवीय और भयावह पन्ने में से एक है जालियांवाला बाग हत्याकांड, उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था. उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी. वे चश्मदीद गवाह थे, उन हजारों बेगुनाह मासूम भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे. इस भीषण नरसंहार से आक्रोशित उधम सिंह ने वहीं पर जलियांवाला बाग की रक्तिम मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ’ ड्वायर और जनरल डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ली थी. इसके बाद उधम सिंह क्रांतिकारी दल में शामिल हो गए और चंदा इकट्ठा कर देश के बाहर चले गए. वह दक्षिण अफ्रीका, जिम्बॉब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा कर क्रांति की अलख जगाते रहे. सन 1934 में ऊधम सिंह 9, एल्डर्स स्ट्रीट कमर्शियल रोड लन्दन में जाकर रहने लगे. उनके लंदन पहुंचने से पहले ही सन 1927 में जनरल रेगिनाल्ड डायर बीमारी के कारण मर चुका था. अतः उन्होंने अपना पूरा ध्यान माइकल ओ’ ड्वायर को मारने पर लगा दिया .
13 मार्च 1940 को ईस्ट इंडिया एसोसिशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में नरसंहार के वक़्त पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर भी वक्ताओं में से एक था. उधम सिंह उस दिन समय पर वहां पहुंच गए. उधमसिंह ने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था और बक्से जैसा बनाकर उसमे रिवाल्वर छिपा रखी थी. शाम के 4.30 बजे जैसे ही ओडायर भाषण देकर अपनी कुर्सी की तरफ लौटा, उधम सिंह ने उस पर 5-6 गोलिया दाग दीं. दो गोलिया लगने से डायर की मौके पर ही मौत हो गई. इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और दुनिया को यह संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते.
उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की. उन्हें गिरप्तारी उपरांत पूछताछ के लिए Central Criminal Court, Old Bailey में रखा गया था, कोर्ट में जज ने जब सवाल दागा कि उन्होंने ओ’ ड्वायर के अलावा उसके दोस्तों को क्यों नहीं मारा, तो उधम सिंह ने यह जवाब दिया कि वहां पर कई औरतें थी और हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है. 4 जून 1940 को उन्हें ह्त्या का दोषी मानकर Justice Atkinson ने फांसी की सजा सुना दी थी। 15 जुलाई 1940 में अपील खारीज कर दी गयी और 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को नार्थ लन्दन की H M पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई. अंग्रेजों को उन्हीं के घर में घुसकर मारने का जो साहसिक काम सरदार उधम सिंह ने किया था, उसकी हर जगह तारीफ हुई. यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी इसकी तारीफ करते हुए यह कहा था कि माइकल ओ’ ड्वायर की हत्या का अफसोस तो है, पर ये बेहद जरूरी भी था. जिसने देश के अंदर क्रांतिकारी गतिविधियों को एकाएक तेज कर दिया.
सरदार उधम सिंह के इस महाबदले की गाथा स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा देती रही. इस घटना के अंग्रेजों को 7 साल के अंदर भारत छोड़कर जाना पड़ा और हमारा देश आजाद हो गया. उधम सिंह जीते जी भले आजाद भारत में सांस न ले सके, पर आज भी वह करोड़ो हिंदुस्तानियों के दिलो में जीवित है और इतिहास में अमर हो गए है. उनकी यह आखरी इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को उनके देश भेजा जाये. करीब 34 वर्ष बाद 1974 में भारत सरकार, पंजाब सरकार के साथ मिलकर उधम सिंह के अस्थियों को लाने में सफल हुई। दि. 31जुलाई 1974 को सुनाम जिला संगरूर में मातृभूमि में उनका अंतिम संस्कार किया गया, वही उनकी समाधि बनाई गयी है.
13 मार्च 1940 को ईस्ट इंडिया एसोसिशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में नरसंहार के वक़्त पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर भी वक्ताओं में से एक था. उधम सिंह उस दिन समय पर वहां पहुंच गए. उधमसिंह ने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था और बक्से जैसा बनाकर उसमे रिवाल्वर छिपा रखी थी. शाम के 4.30 बजे जैसे ही ओडायर भाषण देकर अपनी कुर्सी की तरफ लौटा, उधम सिंह ने उस पर 5-6 गोलिया दाग दीं. दो गोलिया लगने से डायर की मौके पर ही मौत हो गई. इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और दुनिया को यह संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते.
उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की. उन्हें गिरप्तारी उपरांत पूछताछ के लिए Central Criminal Court, Old Bailey में रखा गया था, कोर्ट में जज ने जब सवाल दागा कि उन्होंने ओ’ ड्वायर के अलावा उसके दोस्तों को क्यों नहीं मारा, तो उधम सिंह ने यह जवाब दिया कि वहां पर कई औरतें थी और हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है. 4 जून 1940 को उन्हें ह्त्या का दोषी मानकर Justice Atkinson ने फांसी की सजा सुना दी थी। 15 जुलाई 1940 में अपील खारीज कर दी गयी और 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को नार्थ लन्दन की H M पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई. अंग्रेजों को उन्हीं के घर में घुसकर मारने का जो साहसिक काम सरदार उधम सिंह ने किया था, उसकी हर जगह तारीफ हुई. यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी इसकी तारीफ करते हुए यह कहा था कि माइकल ओ’ ड्वायर की हत्या का अफसोस तो है, पर ये बेहद जरूरी भी था. जिसने देश के अंदर क्रांतिकारी गतिविधियों को एकाएक तेज कर दिया.
सरदार उधम सिंह के इस महाबदले की गाथा स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा देती रही. इस घटना के अंग्रेजों को 7 साल के अंदर भारत छोड़कर जाना पड़ा और हमारा देश आजाद हो गया. उधम सिंह जीते जी भले आजाद भारत में सांस न ले सके, पर आज भी वह करोड़ो हिंदुस्तानियों के दिलो में जीवित है और इतिहास में अमर हो गए है. उनकी यह आखरी इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को उनके देश भेजा जाये. करीब 34 वर्ष बाद 1974 में भारत सरकार, पंजाब सरकार के साथ मिलकर उधम सिंह के अस्थियों को लाने में सफल हुई। दि. 31जुलाई 1974 को सुनाम जिला संगरूर में मातृभूमि में उनका अंतिम संस्कार किया गया, वही उनकी समाधि बनाई गयी है.