''भारत में अंग्रेजी राज'' के रचियता प.सुन्दरलाल
भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय उन साहसी लेखकों, कवियों को भी है, जिन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी और प्रखर लेखनी से विदेशी दासता से आक्रान्त देशवासियों के हृदय में अंग्रेज़ी शासन से मुक्ति की अलख जगाई और प्राणों की परवाह न करते हुए भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये निरन्तर संघर्ष करने का जज्बा जागृत किया। ऐसे ही एक लेखक थे पंडित सुन्दर लाल, जिनकी पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज' ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लड़ने वालों को प्रेरणा देते हुए सत्य इतिहास की रचना की थी ,वास्तव में यह पुस्तक भारतीय स्वाधीनता का गौरव ग्रन्थ है ।
पहला संस्करण २०००प्रतियों का था। १७०० प्रतियां तीन दिन के अन्दर ही ग्राहकों तक पहुंचा दी गयीं। शेष ३०० प्रतियां डाक या रेल द्वारा जा रहीं थीं, पर इसी बीच अंग्रेजी हुकूमत की मुखालफत वाली इस पुस्तक को २२ मार्च को प्रतिबन्धित घोषित कर इन्हें जब्त कर लिया। जो १७०० पुस्तक वितरित हो चुकीं थीं, उन्हें भी ढूंढने का असफल प्रयास किया गया, पर तमाम विरोध के बावजूद पुस्तक आज़ादी के मतवालों के बीच आयी और लोकप्रियता के शिखर तक पहुंची। जवाहर लाल नेहरू से लेकर महात्मा गांधी तक ने पं. सुंदरलाल की इस कृति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। गांधीजी ने अपने पत्र 'यंग इण्डिया' में लिखे लेख में लोगों को सलाह दी थी कि वे कानून तोड़ कर भी इस पुस्तक के अंश को छापें और इसका वितरण करे .
दूसरी ओर प. सुन्दरलाल जी प्रतिबन्ध के विरुद्ध
न्यायालय में चले गये। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने यह तर्क दिया कि इसमें एक भी
तथ्य असत्य नहीं है। तब सरकारी वकील ने यह कहा था कि, ‘यह इसीलिए तो अधिक
खतरनाक है।’ सुन्दरलाल जी ने संयुक्त प्रान्त की सरकार को पत्र लिखा। शुरू
में तो गर्वनर राजी नहीं हुए; पर मुख्यमंत्री श्री जी. बी. पन्त के प्रयासों
से 15 नबम्वर 1937 को उन्होंने प्रतिबन्ध हटा लिया, फिर अन्य प्रान्तों में भी प्रतिबन्ध हट गया। चर्चित
पुस्तक होने के कारण अब नये संस्करण को कई लोग इसे छापना चाहते थे; पर सुन्दरलाल जी ने
कहा कि वे इसे वहीं छपवायेंगे, जहां से यह कम दाम में छप सके। सन १९३८ में ओंकार
प्रेस प्रयाग ने इसे केवल
सात रुपए मूल्य में छापा। इस संस्करण के छपने से पहले ही १०,००० प्रतियों के आदेश मिल
गये थे। मेरे बाबा श्री मोतीलाल वर्मा स्वाधीनता संग्राम सेनानी इस ग्रन्थ को स्वतंत्रता आन्दोलन की गीता मानते थे , उनसे ही मुझे इस दूसरे संस्करण की तीनो जिल्द प्राप्त हुई थी , जो आज भी मेरे पास मौजूद है
पं. सुंदरलाल का जन्म मुजफ्फरनगर जिले की गावं खतौली के कायस्थ परिवार में २६ सितम्बर सन १८८५ को तोताराम के घर में हुआ था । बचपन से ही देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े देखकर उनके दिल में देश को आजादी दिलाने का जज्बा पैदा हुआ। वह कम आयु में ही परिवार को छोड़ प्रयाग चले गए और प्रयाग को कार्यस्थली बनाकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। पं.सुंदरलाल स्वयं एक सशस्त्र क्रांतिकारी के रुप में गदर पार्टी से बनारस में संबद्ध हुए थे।लाला लाजपत रॉय, अरविन्द घोष , लोकमान्य तिलक के निकट संपर्क उनका हौंसला बढ़ता गया और कलम से माध्यम से देशवासियों को आजाद भारत के सपने को साकार करने की हिम्मत दी, उनकी प्रखर लेखनी ने १९१४-१५ में भारत की सरजमीं पर गदर पार्टी के सशस्त्र क्रांति के प्रयास और भारत की आजादी के लिए गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के अनुपम बलिदानों का सजीव वर्णन किया है। लाला हरदयाल के साथ पं.सुंदरलाल ने समस्त उत्तर भारत का दौरा किया था। १९१४ में शचींद्रनाथ सान्याल और पं.सुंदरलाल एक बम परीक्षण में गंभीर रुप से जख्मी हुए थे। वह लार्ड कर्जन की सभा में बम कांड करने वालों में पंडित सोमेश्वरानंद बनकर शामिल हुए थे , सन १९२१ से १९४२ के दौरान वह गाँधी जी के सत्याग्रह में भाग लेकर ८ बार जेल गए ।
पंडित सुंदरलाल पत्रकार, साहित्यकार, स्तंभकार के साथ ही साथ स्वतंत्रता सेनानी थे, वह कर्मयोगी एवं स्वराज्य हिंदी साप्ताहिक पत्र के संपादक भी रहे, उन्होंने ५० से अधिक पुस्तकों की रचना की । प्रख्यात क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी पं. सुंदरलाल के प्रमुख शिष्यों में एक थे , पंडितजी ने ही गणेश शंकर को 'विद्यार्थी' की उपाधि से नवाजा था । स्वाधीनता उपरांत उन्होंने अपना जीवन सांप्रदायिक सदभाव को समर्पित कर दिया , वह अखिल भारतीय शांति परिषद् के अध्यक्ष एवं भारत चीन मैत्री संघ के संस्थापक भी रहे, प्रधानमंत्री प. जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अनेक बार शांति मिशनो में विदेश भेजा, पंडित सुन्दरलाल ने ९५ साल की आयु में 9 मई १९८१ को दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन आज भी उनकी यह अमर कृति नयी पीढीयों का मार्गदर्शन कर रही हैं।
-अनिल वर्मा