गुमनामी में रहे क्रांतिवीर सुखदेव राज
-अनिल वर्मा
कुछ दिनों पूर्व मुझे दुर्ग (छत्तीसगढ़) से १४ कि.मी. दूर स्थित
अंडा गावँ जाकर प्रख्यात क्रांतिकारी सुखदेव राज के स्मारक के दर्शन
करने का सौभाग्य मिला था , पर यह देखकर मन दुखित हो गया कि वह
क्रांतिवीर जो अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम पलो का साथी था , जिसने
क्रांतिकारी भगत सिंह , आज़ाद , भगवतीचरण, दुर्गा भाभी आदि के साथ मिलकर
वतन की आज़ादी के लिए अपने प्राणो की बाज़ी लगा थी ,उसे आज समाधिस्थल के आसपास
रहने वाले लोग तक नहीं जानते है , उनकी श्वेतप्रतिमा पर सालो से जमी धूल मिट्टी और मकड़ी के जाले यह बखूबी बयां कर रहे थे कि स्वाधीन भारत में
एक महान क्रांतिकारी के लिए लोगो के मन में सम्मान की क्या भावनाएं बची
है।
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सुखदेव राज का अंडा स्थित स्मारक |
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वैशम्पायन के साथ सुखदेव राज |
बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में उभरे क्रान्तिकारी आंदोलन को जिन
लोगो ने अपना सर्वस्व् समर्पण कर पल्ल्वित किया , उनमें सुखदेव राज का भी
प्रमुख स्थान है। उनका जन्म ७ दिसम्बर १९०७ को पंजाब के गुरदासपुर जिला के
एक छोटे से गावं के धनाढ्य खत्री परिवार में हुआ था , माता ने कठोर
अनुशासन और ममता के साथ उनकी शिक्षा पर काफी ध्यान दिया , पर सन १९१९ में
जलियाँवाला हत्या कांड में हज़ारो देशवासियों के बलिदान से प्रेरित होकर
सुखदेव राज ने अपना जीवन भारत माता की आज़ादी के लिए समर्पित करने का संकल्प
कर लिया। लाहौर से इण्टरमीडिएट प्रथम श्रेणी से पास करने के बाद पिता
की जिद पर उन्होंने मजबूरन रेलवे के ऑडिट ऑफिस में नौकरी कर ली , पर लाहौर में वह
दौर क्रान्ति युग की शुरुवात का था , वह पहले क्रान्तिकारी
भगवतीचरण वोहरा और उनकी पत्नी दुर्गा भाभी के संपर्क में आये , फिर भगत
सिंह और धन्वन्तरी से उनकी मुलाकात हुई , सुखदेव ने फिर से कॉलेज में
प्रवेश ले लिया ,वह स्टूडेंट फेडरेशन के सेक्रेटरी बन गए और सक्रिय रूप से
क्रान्तिकारी दल से जुड़ गए.भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव द्वारा एडिशनल
एस.पी. साण्डर्स की हत्या करने की ऐतिहासिक घटना के लाहौर षड्यंत्र केस
में वह पृष्ठभूमि में थे भगवती चरण जी के कहने पर,सुखदेव राज दल के कार्य से
कलकत्ता गए , पर वहां से रंगून चले गए ,वहां किसी तरह से सी. आय.डी.पुलिस
से पीछा छुड़ाया , फिर वह कलकत्ता लौटकर कुछ दिनों तक शांतिनिकेतन में रहे।
सुखदेव राज को २४ दिसम्बर सन १९२९ को
वाइसराय की ट्रैन के नीचे बम रखने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया , तब
लाहौर की बोस्टल जेल में निरूद्र रखा गया था , बाद में उन्हें जमानत पर
छोड़ दिया गया . असेम्बली बम विस्फोट की ऐतिहासिक घटना में भगतसिंह और
बटुकेश्वर दत्त गिरफ्तार किये जा चुके थे , उन्हें छुड़ाने के लिए लाहौर की
बहावलपुर कोठी में क्रान्तिकारी दल एकत्र था , सुखदेव राज भगवतीचरण के
साथ रावी नदी के किनारे बम को परखने के लिए गए थे , तब अचानक हाथ में बम
फट जाने से भगवती भाई शहीद हो गए , इसके बाद पुलिस की सक्रियता बढ़ जाने से
सुखदेव राज आज़ाद के आदेश पर बम्बई चले गए , वहां पर उन्होंने दुर्गा भाभी
और पृथ्वीसिंह आज़ाद के साथ मिलकर लेमिंगटन रोड पर बम्बई के पुलिस कमिश्नर
को शूट करने की साहसिक घटना में भाग लिया था , उसमे एक यूरोपियन अफसर मारा गया
हुआ था , पुलिस ने दुर्गा भाभी और सुखदेव राज को घेर लिया , पर वो अंतिम
समय पर पुलिस को चकमा देकर भाग निकले थे , वह द्वितीय लाहौर षड़यंत्र केस
में फरार अभियुकत धोषित किया जा चुके थे। भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु ,
यतीन्द्रनाथ दास , बटुकेश्वर दत्त ,सदाशिव मलकापुरकर , भगवानदास माहौर आदि
की गिरफ्तारी से दल छिन्न भिन्न हो चूका था , पर तब भी सुखदेव राज
दल के सेनापति चंद्रशेखर आज़ाद के साथ दल का पुनः संयोजन का प्रयास कर रहे थे ,२७ फरवरी सन १९३१
को सुबह ८ बजे वह आज़ाद के साथ अल्फ्रेड पार्क इलहाबाद में थे , तभी अचानक पुलिस ने
उन्हें घेर लिया , आज़ाद जीवटता से अंतिम समय तक पुलिस का डटकर मुकाबला
करते हुए देश के लिए शहीद हो गए , पर उनके आदेश पर सुखदेव राज उन्हें छोड़कर
वहां से फरार होना पड़ा , सुखदेव राज को आज़ाद को शहादत के समय छोड़कर जाने का दुःख सदैव
सालता रहा , बाद में लाहौर में शालीमार पार्क में सुखदेव राज भी गिरफ्तार
किये गए , उन्हें इस बार लाहौर जेल में कैद रखकर भीषण नारकीय यातनाये दी
गयी ,उन्हें आर्म्स एक्ट में तीन साल की कठोर कारावास की सजा दी गयी ,, लाहौर में स्पेशल ट्रिब्यूनल के सामने उन पर द्वितीय लाहौर षड़यंत्र
केस का मुकदमा चला और इस मामले में उन्हें तीन साल की सजा दी गयी , पर जेल के भीतर भी उनकी जीवटता और जिंदादिली
में रंच मात्र भी कमी नहीं आई , वह वहाँ भी अंग्रेजों अफसरों के
अन्याय पूर्ण दुर्व्यवहार के खिलाफ जमकर मुकाबला करते थे , वह करीब १५०० दिन लाहौर और
मियांवाली जेल में सजा भोगे थे।
आज़ादी को लेकर क्रांतिकारियों के मन में एक सपना था , जिसे जीवित
क्रांतिकारियों ने आज़ादी के बाद ढहते देखा , इसी अपूर्णता को लेकर सुखदेव
राज के भीतर बैचेनी बढ़ गयी और उन्होंने सदा के लिए घर छोड़ दिया , उन्होंने
बौद्ध धर्म अपना लिया , वह कई वर्षो तक गया में रहे , सन ५० के दशक में जब
वो आचार्य विनोबा भावे से मिले , विनोबा जी उनसे कहा कि क्रान्तिकारी को ऐसा जीवन शोभा नहीं देता है , फिर वह विनोबा जी की प्रेरणा से कुष्ठ
रोगियों की सेवा में जुट गए। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री कैलाश नाथ
काटजू के कहने पर वह दुर्ग जिले के अंडा गावं में आ गए और फिर उन्होंने
कर्मठतापूर्वक यहाँ अपना बचा हुआ सम्पूर्ण जीवन कुष्ठ रोगियों की सेवा के मिशन के लिए समर्पित
कर दिया , बाहरी दुनिया से उनका संपर्क कट गया ,काफी दिनों बाद उनके
क्रन्तिकारी साथी वैशम्पायन ने जो रायपुर में महाकौशल पत्रिका के संपादक थे
, उन्हें दुर्ग रेलवे स्टेशन पर देखकर पहचाना , फिर वैशम्पायन जी की
प्रेरणा और सरोजिनी नायकर के सहयोग से उन्होंने एक पुस्तक '' जब जागी
ज्योति '' लिखी थी।
गुमनामी के अंधेरों में रहते हुए ही सुखदेव राज ५
जुलाई १९७३ को दुनिया से अलविदा हो गए , उनकी मौत के बाद
अंडा गावं में सन १९७६ में उनकी स्मृति
में स्मारक बनाया गया , जिसका अनावरण म. प्र. के मुख्यमंत्री श्री श्यामाचरण शुक्ल
ने किया था , पर स्मारक की वह जगह अब वो किसी गणपति प्रोडक्ट
इंडस्ट्रीज को बेची जा चुकी है , उनका समाधि स्थल अब परिसर में बंद है
, बाहर कोई सूचना पटल तक नहीं है ,अब यहाँ सुखदेव राज का स्मारक होने के बारे किसी को पता नहीं लगता है, छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार से यह उम्म्मीद है कि वह इस महान क्रांतिवीर को सम्मान प्रदान करने के लिए उनके स्मारक को विकसित करेगी, ताकि उनसे युवा पीढ़ी को देशप्रेम और बलिदान की प्रेरणा मिल सके ।
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कुष्ठरोग आश्रम का भवन |
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स्मारक पर अनिल वर्मा, अजीत बक्शी |
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उनके स्मारक पर अंकित उद्गार |
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सुखदेव राज द्वारा लिखित पुस्तक |
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