क्रान्तिकारी वीरांगना सुशीला देवी
भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में एक अदद भाभी दुर्गा भाभी और एक अदद दीदी का नाम हजारों सरफरोशों के लिए बलिदान की प्रेरणा बन गया था. भगतसिंह , चन्द्रशेखर आज़ाद , भगवती चरण बोहरा एवं अन्य सभी क्रांतिकारियों की अनन्य सहयोगी और उनकी प्रिय दीदी सुशीला दीदी एक महान वीरांगना थीं .
सुशीला फौज के अवकाश प्राप्त डॉ. करमचंद की पुत्री थीं , उनका जन्म ५ मार्च १९०५ को पंजाब के गुजरात जिले के दन्तोचूहड़ गाँव( अब पाकिस्तान में ) में हुआ था , उनका पूरा परिवार कट्टर आर्यसमाजी और राष्ट्रभक्त था ,सन १९२६ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन देहरादून जाने पर उनका परिचय भगवती चरण बोहरा से हुआ था , जो क्रान्तिकारी विचारधारा से ओत पोत थे , सुशीला पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा था और उनके मन में भी देशभक्ति की ज्वाला धधकनें लगी. ८ अप्रैल १९२७ को जालंधर के कन्या महाविद्यालय में परीक्षा कक्ष में जब उन्हें यह पता लगा कि काकोरी कांड में क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल, रोशनसिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को फाँसी हो गयी है , तो वह सदमे के कारण बेहोश होकर गिर गयी थी और परीक्षा नहीं दे पाई थी , उन्होंने इस केस में क्रान्तिकारियो की पैरवी हेतु अपनी शादी के लिए रखा गया १० तोला सोना दान कर दिया था ,सन १९२७ में क्रान्तिकारी दल '' हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ '' का सक्रिय सदस्य बनने के बाद उन्होंने पहला काम जालंधर में गोपनीय पर्चो के वितरण का काम किया था .फिर शिक्षा पूर्ण होने के बाद वह कलकत्ता में सेठ सर छज्जूराम की पुत्री के अध्यापन का काम करने चली गयी . कलकत्ता में साईमन कमीशन के आगमन के विरोध में आन्दोलन में उन्होंने बहुत जोश खरोश से भाग किया था , तब आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे नेताजी सुभाषचन्द बोस ने भी उनकी साहसिक कार्यशैली को सराहा था . लाहौर में सांडर्स के वध के बाद सरदार भगत सिंह जब दुर्गा भाभी के साथ फरार होकर छद्म वेश में ट्रेन से कलकत्ता पहुचे थे , तब स्टेशन पर भगवती चरण बोहरा और सुशीला दीदी ने उनका स्वागत किया था , फिर भाभी भगत सिंह को दीदी के संरक्षण में छोड़कर वापस लाहौर चली गयी थी .
सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी ने ही कुदासियापार्क दिल्ली में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेंबली में बम फेकने के लिए अपने रक्त से तिलक लगा कर अंतिम विदाई दी थी . तुगलकाबाद दिल्ली के पास वायसराय की ट्रेन को बम से उडाने के ऐतिहासिक एक्शन में सुशीला भी शामिल थी , लाहौर जेल में क्रांतिकारियों पर मुकदमा चल रहा था , जब दीदी का काम था गिरफ्तार साथियों को जेल में खाने पीने की सामग्री भिजवाना , लाहौर आने वाले उनके परिजनों का ख्याल रखना और मुकदमे के खर्च का प्रबंध करना . दीदी ने इसके लिए कलकत्ता में '' मेवाड़ पतन '' नाटक खेलकर काफी धन संग्रह किया था , उन्हीं दिनों जेल में ६३ दिन की लंबी भूख हडताल करके शहीद होने वाले क्रान्तिकारी यतीन्द्र नाथ दास का शव जब लाहौर से कलकत्ता लाया गया था , तब सुशीला दीदी ने उनकी आरती उतारी थी , जब भगत सिंह और दत्त को लाहौर जेल से छुड़ाने की योजना बनी थी , तो सुशीला दीदी कलकत्ता की नौकरी छोड़कर पूरी तरह से दल के काम में जुट गयी थी , उन्होंने कश्मीर बिल्डिंग में सिख लड़के के भेष में रहकर बम बनाने का काम भी किया , वह बहावलपुरवाली कोठी में अन्य क्रांतिकारियों के साथ ऐसे रहती थी कि वे लोग एक परिवार के सदस्य लगे और किसी को शक न हो , परन्तु जब कोठी में दुर्घटना वश बम विस्फोट हो गया , तो पुलिस से बचने के लिए उन्हें दुर्गा भाभी के साथ गोला बारूद से भरी भारी अटेची उठाकर भागना पड़ा था , तब उन्होंने अपनी सहेली सत्यवती के यहाँ शरण ली थी , बाद में आजाद ने उन्हें दिल्ली भेज दिया था , दिल्ली में भी उन्होंने आजाद और अन्य क्रान्तिकारी साथियों के साथ मिलकर बम फैक्ट्री में काम किया .बाद में आज़ाद ने उन्हें पहले कानपुर भेजा और कुछ दिनों बाद इलाहाबाद भिजवा दिया था , कुछ दिन तक वह पुरषोत्तम दास टंडन के यहाँ उनकी पुत्री की भांति रही , फिर चाँद के संचालक श्री रामरख सहगल ने उन्हें और दुर्गा भाभी को '' माता मंदिर '' के व्यस्थापक का काम सौप दिया था , आजाद के कहने पर वह उनके खिलाफ वारंट होने पर भी जोखिम उठाकर लाहौर जेल में भगतसिंह से मिलने गयी थी , उन्होंने दिल्ली जाकर गाँधी जी से मिलकर भगतसिंह की रिहाई का प्रयास किया था .
सुशीला दीदी १ अक्टूबर १९३१ को लेमिगटन रोड बम्बई में यूरोपियन सार्जेंट टेलर और उनकी पत्नी पर गोली चलाकर फरार हो गयी थी , सन १९३१ में भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु,भगवती चरण बोहरा और आजाद की शहादत के बाद सुशीला दीदी ने भारतीय कांग्रेस में शामिल होकर देश की आज़ादी का काम जारी रखा , जबकि उन पर दो- दो वारंट थे और इनाम भी धोषित था , फिर भी सन १९३२ में उन्होंनें चतुराई का परिचय देते
हुए प्रतिबंधित कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में ' इंन्दू ' के नाम से एक महिला टोली का नेतृत्व किया था और गिरफ़्तार होने पर जेल में इन्दू के नाम से ही ६ माह की पूरी सजा काट आई , पर कोई उन्हें पहचान न सका था .
सुशीला जी के फरारी के दिनों में दिल्ली के एक वकील श्याम मोहन ने उन्हें काफी दिनों तक अपने घर में शरण देकर काफी मदद की थी , अत: पिता ने हर्षपूर्वक १ जनवरी १९३३ को श्याम मोहन के साथ उनका विवाह करा दिया , क्रान्तिकारी विचारधारा के समर्थक श्याम मोहन को भी एक साल जेल की नज़रबंद रहकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी , शादी के बाद दीदी दिल्ली में ही बस गयी थी,वह पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान मोहल्ले में एक विद्यालय का संचालन करने लगीं। कुछ समय वह दिल्ली नगरनिगम की सदस्य और दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं.वह चुपचाप देश के लिए अपना कर्त्तव्य पालन का दायित्व निभाती रही , पर अपने प्रिय भाई भगत सिंह, आजाद और भगवती चरण के चले जाने की गहरी मानसिक वेदना , लगातार संघर्ष और तनाव के कारण उनका स्वास्थ लगातार बिगड़ता चला गया और फिर १३ जनवरी १९६३ को वह ख़ामोशी से इस संसार से कूच कर गयी . , उनकी मृत्यु पर साथी क्रान्तिकारी वैशम्पायन ने यह कहा था कि '' दीदी तुम्हे शत शत नमन , तुम्हारी पहचान अभी नहीं हुई है , पर बाद में होगी'' . देश के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाली इस महान सत्यनिष्ठ वीरांगना को स्वाधीन भारत में लोग आज भले ही भुला चुके है , पर शायद कभी ऐसा वक्त भी आएगा, जब देश के प्रति उनके महान योगदान को पहचाना जायेगा .
- अनिल वर्मा
बहुत ही अच्छी और रोचक जानकारी। आपकी जानकारी का स्रोत क्या है, कृपया बताएं... मैं सुशीला दीदी और अन्य क्रांतिकारियों के बारे मेें कुछ और जानकारियां चाहता हूं। क्या दिल्ली में सुशीला दीदी के परिवार के किसी सदस्य का संपर्क सूत्र है आपके पास।
ReplyDeleteधन्यवाद।
आशीष कुमार सिंह,दिल्ली filmashish@gmail.com
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