- अनिल वर्मा
जब भी कोई वीर सैनिक रणभूमि में अपने प्राणों को देश पर न्यौछावर करता है ,तो यह कहा जाता है कि वो देश के लिए शहीद हो गया गया और उसकी शहादत को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। पर विडंबना है कि सन १९६५ के भारत पाकिस्तान युद्ध में अदम्य शौर्य और वीरता का परिचय देकर वतन के लिए शहीद होने वाले परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद की शहादत के ५० वर्ष पूर्ण होने पर के अवसर पर भी उन्हें याद तक नहीं किया गया है । भारत माता के इस महान सपूत ने अद्भुत वीरता के साथ लड़ते हुए पाकिस्तान के कुत्सित इरादों को तो ध्वस्त करते हुए आत्म बलिदान कर अपने लहू से इतिहास के पन्नों में अमिट दास्ताँ लिख दी थी और यह भी साबित कर दिया कि जंग महज हथियारों से नहीं बल्कि हौसलों से लड़ी जाती है। ।
अब्दुल हमीद का जन्म १ जुलाई १९३३ को उत्तर प्रदेश में ग़ाज़ीपुर ज़िले के धरमपुर गांव के एक निर्धन मुस्लिम परिवार में हुआ था । आजीविका के लिए दर्ज़ी का काम करने वाले मोहम्मद उस्मान के पुत्र अब्दुल हमीद की रूचि इस पैतृक कार्य में कतई नहीं थी। उन पर कुश्ती के दाँव पेंचों में रूचि रखने वाले पिता का प्रभाव था। लाठी चलाने , कुश्ती लड़ने , उफनती नदी को पार करने , गुलेल से निशाना लगाने में बालक हमीद पारंगत थे। वह बचपन से ही परोपकारी और दूसरो की मदद करने वाले थे।वह किसी अन्याय को सहन नहीं कर पाते थे । एक बार जब किसी ग़रीब किसान की फसल बलपूर्वक काटकर ले जाने के लिए जमींदार के करीब ५० गुंडे उस किसान के खेत पर पहुंचे ,तो हमीद ने निडरतापूर्वक उनको ललकारते हुए खदेड़ दिया था । गाँव की मगई नदी में प्रचंड बाढ़ में डूबती हुई दो युवतियों के प्राण बचाकर भी हमीद ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया था ।
अब्दुल हमीद जीवन सन १९५४ में २१ वर्ष की आयु में देश पर मर मिटने के जज्बे के साथ सेना में भर्ती हुए थे । वह 2दिसंबर१९५४ को ग्रेनेडियर्स इन्फैन्ट्री रेजिमेंट में शामिल किये गये थे। जम्मू काश्मीर में तैनात अब्दुल हमीद पाकिस्तान से आने वाले घुसपैठियों की खबर तो लेते हुए मजा चखाते रहते थे, ऐसे ही एक आतंकवादी डाकू इनायत अली को जब उन्होंने पकड़वाया ,तो प्रोत्साहन स्वरूप उनको प्रोन्नति देकर सेना में लांस नायक बना दिया गया। 1962 में जब चीन ने भारत की पीठ में छुरा भोंका ,तो अब्दुल हमीद को नेफा में तैनाती के कारण शत्रु को मार गिराने के अरमान पूरा करने का विशेष अवसर नहीं मिला पाया ।
परन्तु जब 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। तब अब्दुल हमीद को पुनः अपनी जन्मभूमि के प्रति अपना कर्तव्य निभाने का मौका मिला । मोर्चे पर जाने से पूर्व, उन्होंने अपने भाई झुन्नन से यह कहा था कि ‘ पल्टन में उनकी बहुत इज्जत होती है जिनके पास कोई चक्र होता है, देखना हम जंग में लड़कर कोई न कोई चक्र जरूर लेकर लौटेंगे।” आखिर उनकी भविष्यवाणी पूर्ण हुई।
09 सितंबर 1965 को वीर अब्दुल हमीद पंजाब के तरन तारन जिले के खेमकरण सेक्टर में सेना की अग्रिम पंक्ति में तैनात थे। तभी उन्हें खबर मिली कि पाकिस्तानी सेना अपने अभेद्य अमेरिकन पैटन टैको के साथ अमृतसर को घेर कर अपने नियंत्रण में लेने कूच कर रही है, वहाँ मौजूद भारतीय सैनिकों के पास न तो टैंक थे और न हीं अन्य बड़े हथियार ,पर उनके पास था भारत माता की रक्षा के लिए लड़ते हुए मर जाने का बुलंद हौसला। अपनी योजना के अनुसार पैटन टैंकों के फौलादी गोले बरसाते हुए दुश्मन फौज भारतीय सेना पर टूट पडी। भारतीय सैनिक अपनी साधारण "थ्री नॉट थ्री रायफल" और एल.एम्.जी. के साथ पैटन टैंकों का सामना करने लगे। हवलदार अब्दुल हमीद के पास "गन माउनटेड जीप" थी ,जो पैटन टैंकों के सामने मात्र एक खिलौने की भांति थी। टैंकों के इस भीषण आक्रमण को रोकने में मृत्यु निश्चित है लेकिन हमीद को अपनी जान से ज्यादा देश प्यारा था। मौत का डर उन्हें कभी था ही नहीं। लिहाजा वो साहस के साथ अपने मोर्चे पर डटे गए ,उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया कि वो दुश्मन को एक इंच भी आगे नहीं बढने देगे। वीरतापूर्वक जान की बाज़ी लगाकर हमीद ने अपनी जीप को टीले के समीप खड़ा कर दिया और अपनी गन से पैटन टैंकों के कमजोर अंगों पर एकदम सटीक निशाना लगाकर एक -एक कर धवस्त करना शुरू कर दिया। उनकी इस वीरता से अन्य सैनिको का भी हौसला बढ़ गया और देखते ही देखते पाकिस्तान फ़ौज में भगदड़ मच गई। वीर अब्दुल हमीद ने आठ पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट कर दिया । उस दिन भारत का "असल उताड़" गाँव "पाकिस्तानी पैटन टैंकों" की कब्रगाह बन गया। लेकिन भागते हुए पाकिस्तानियों का पीछा करते "वीर अब्दुल हमीद" की जीप पर एक गोला गिर जाने से वे बुरी तरह से घायल हो गए , पर उन्होंने ना तो हिम्मत हारी और ना ही दुश्मनो को पीठ दिखाई , दुश्मनो के पाँव उखड़ गये और वो पीछे हटने लगे. इस बहादुर जवान ने करीब 9 घंटे चले इस मुठभेड़ मे पाकिस्तानियो को खेमकरण सेक्टर से आगे नही आने दिया। अन्ततः १० सितम्बर १९६५ की सुबह ५ बजे अब्दुल हामिद ने अंतिम साँस ली और भारत मां का यह लाडला सिपाही वतन के लिए शहीद हो गए ।
अब्दुल हमीद ने आत्मउत्सर्ग करके भी अपने भाई से किया हुआ वायदा निभाया , युद्ध समाप्ति के होने के पूर्व ही १६ सितम्बर १९६५ उन्हें असाधारण शौर्य के लिए मरणोपरान्त भारतीय सेना के सर्वोच्च पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किये जाने की घोषणा की गयी , जिसे उनकी पत्नी श्रीमती रसूली बीबी ने प्राप्त किया था . कसूर क्षेत्र में बनी अमर शहीद वीर अब्दुल हमीद की समाधि देश पर मर मिटने की लाखों करोड़ों लोगों को यूं ही प्रेरणा देती रहेगी ।महज ३२ वर्ष की आयु में ही शहीद होने वाले इस जाबांज़ वाले अब्दुल हामिद की ५० वीं पुण्यतिथि पर उन्हें शत शत नमन है ,पर यह दुर्भाग्य है कि भारत माता के तमाम वीर सपूतों की तरह देश ने इस वीर सपूत के महान बलिदान को भी विस्मृत कर दिया गया है ।
'' पूजे न गए शहीद तो फिर आज़ादी कौन बचाएगा ,
फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचायेगा ''
- अनिल वर्मा
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete