Birth Centanary of Revolutionary Newspaper ' Pratap'

           गणेश शंकर  विद्यार्थी जी के ' प्रताप ' अखबार की जन्म शताब्दी



          आज के दौर में  प्रेस जितना सशक्त और मुखर  है ,आजादी की जंग में यह उतना ही गुलामी की बंदिशों  से जकड़ा हुआ था।  फिर भी आजादी के जाँबाजों के लिए अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ  एक हथियार  थे । पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान क्रान्ति की ज्वाला क्रान्तिकारियों से कम प्रखर नहीं थी। इनमें प्रकाशित रचनायें जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक मजबूत आधार प्रदान करती थीं।क्रांतिकारियों के ओजस्वी  लेख जनता में नई स्फूर्ति और देशभक्ति का संचार करते थे।  गाँधी जी ने ‘हरिजन’, ‘यंग-इंडिया ’ , मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 'अल-हिलाल' ,तिलक ने 'केसरी और लाला लाजपत राय ने पंजाब से 'वंदे मातरम'  पत्र के माध्यम से जन जागृति फैलायी थी ।   

                                                                          

                  आज से ठीक १०० वर्ष पूर्व   उत्तर भारत में आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने‘सरस्वती’ और ‘अभ्युदय’ पत्रों से अर्जित  पत्रकारीय अनुभव के सहारे 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से हिंदी  साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया था ,विधार्थी जी ने  महाराणा प्रताप के उच्च त्याग और  स्वातंत्र्य-प्रेम, आत्म गौरव से प्रेरित होकर अपने पत्र का नाम ‘प्रताप’ रखा था। स्वाधीनता की अलख जगाने  वाला ‘प्रताप’,   प्रथम  अंक में मुखपृष्ठ पर विद्यार्थी जी के अनुरोध पर, आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी द्धारा लिखित यह अमर  पंक्तियां लिखी गयी थी- 


                          ' जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।

                              वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।’ 


           हालाकिं अब यह पक्तियां  मैथिलीशरण गुप्त की रची हुई मानी जाती  है। ‘प्रताप’ के पहले अंक में  विद्यार्थी ने ‘प्रताप की नीति’ शीर्षक से जो संपादकीय-अग्रलेख लिखा था, वह  हिंदी पत्रकारिता का अमूल्य अभिलेख है। इसका भावार्थ यह था कि...समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं। उन्नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्यापार, विद्या, कला, वैभव, मान, बल, सदाचार और सच्चरित्रता की वृद्धि से है। हम  किसी ऐसी बात को  मानने को तैयार न होंगे, जो मनुष्य-समाज और मनुष्य-धर्म के विकास और वृद्धि में बाधक हो।



                                    प्रताप का का कुल बजट, चार भागीदारों गणेशशंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, शिवनारायण मिश्र और यशोदानंदन  के सौ-सौ रुपए के  हिस्से जोड़कर उतना ही था, जितने में आज चार किलो मूंगफली आती है। संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी ही  थे।  अखबार की शुरुआत टेब्लॉयड से बड़े आकार में 16 पृष्ठों से हुई। उस समय ‘प्रताप’ का कार्यालय शहर के एक छोर पर पीली कोठी में रखा गया था। सोलह अंकों के बाद, छपाई का भुगतान समय से न हो पाने के कारण यह व्यवस्था रुक गई। यशोदानंदन ने अपना हिस्सा भी अखबार से वापस ले लिया। लगभग साल भर बाद नारायण प्रसाद अरोड़ा भी अपना निजी अखबार निकालने के इरादे से अलग हो गए। बाकी बचे विद्यार्थी जी और शिवनारायणजी। उनका तो संकल्प ही था ‘प्रताप’। विद्यार्थी जी के पास  पैसा नहीं था ,अपना प्रेस नहीं था , दूसरे प्रेस वाले छापने को तैयार नहीं , पर विद्यार्थी जी इससे जरा भी विचलित न हुए। उन्होंने जल्द ही  एक छोटा-सा अपना प्रेस भी खड़ा कर लिया और प्रेस का  कार्यालय भी पीली कोठी से उठकर फीलखाना वाली बिल्डिंग में आ गया, जो ‘प्रताप’ की अंतिम सांस (1964) तक उसका प्रकाशन-स्थल रहा और इसे ‘प्रताप प्रेस’ के नाम से जाना जाता रहा। वैसे था वह भी किराए पर ही। इन परिवर्तनों के बावजूद ‘प्रताप’ की आर्थिक दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। कुर्सी मेज खरीदने की सामर्थ्य न थी, दरी और चटाई पर बैठकर संपादन, प्रबंधन और डिस्पैच के सब काम अंजाम दिए जाते। संपादक, मैनेजर से लेकर चपरासी और दफ्तरी तक का काम गणेशजी और मिश्रजी को स्वयं करना पड़ता था । ‘प्रताप’ के एक अंक में शुरू में 16 पृष्ठ हुआ करते थे, लेकिन पहले ही वर्ष के दौरान पृष्ठों की संख्या बढ़कर बीस हो गई , फिर तो पृष्ठों की वृद्धि का सिलसिला चलता ही रहा- 20 से 24 हुए, आगे 28, 32, 36 और अंत में 40 तक पहुंचे।  सन 1930 में ‘प्रताप’ का एक अंक 40 पृष्ठ का  था और मात्र साढ़े तीन रुपए वार्षिक शुल्क था।



                                   गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही समर्पित है।उन्होंने  ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया बिगुल  फूँका था और बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया,  जो  हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं, जिन्हे पढकर लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे। प्रताप की आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखको व संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दी, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा।  सन 1915 में रात के समय प्रताप प्रेस, विद्यार्थी जी और मिश्रजी के घरों पर पुलिस का छापा पड़ा और ग्राहकों के पते का रजिस्टर और अन्य जरूरी कागजात उठवा लिए गए। लक्ष्मणसिंह चौहान (कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के पति) का नाटक ‘कुली प्रथा’ ‘प्रताप’ से छपकर आया ,उसे भी सरकार ने तुरंत जब्त कर लिया और प्रेस ऐक्ट के तहत 30 अक्तूबर 1916 को ‘प्रताप प्रेस’ से एक हजार रुपए की जमानत तलब की गई। अंग्रजों की दमनपूर्ण नीति की मुखर आलोचना के कारण सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद करवाकर  विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया। अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बाद भी गणेश शंकर विद्यार्थी की राष्ट्रवादी कलम की प्रखरता कम न हो सकी। जेल से छूटने के बाद आर्थिक संकट से जूझते उन्होंने  किसी तरह व्यवस्था जुटाई ,तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को मुक्त हस्त से आर्थिक सहयोग करने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी जी ने २३ नवम्बर १९१९ से साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन दैनिक समाचार पत्र के रूप में प्रारंभ कर दिया। 

                     प्रताप की पहचान लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से  सरकार विरोधी बन गई थी  और कानपुर के तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921 में भी जेल की सजा दी गई, परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को बोथरा न होने दिया । विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया।  विद्यार्थी जी का सम्पूर्ण पत्रकार जीवन ही राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, साम्प्रदायिक सदभाव  को समर्पित रहा।  राष्ट्रीय मुक्ति की आकांक्षा की जो चतुर्मुखी भूमिका ‘प्रताप’ निर्मित कर रहा था, ब्रिटिश सरकार के लिए तो असहय थी ही, देशी रियासतों, सामंतों, जमींदारों, पुलिस के नौकरशाहों और धर्म के नाम पर जनता को बरगलाने वाले मठों-महंतों को भी फूटी आंखों नहीं सुहा रही थी। फिर शुरू हुआ ‘प्रताप’ के विरुद्ध सरकारी दमन और मानहानि के मुकदमों का सिलसिला।  


                                विद्यार्थी जी को ‘प्रताप‘ में प्रकाशित  समाचारो  के कारण ही १९२१ से १९३१ तक पाँच बार जेल जाना पड़ा , विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, परन्तु उनके भीतर  एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में निर्मित  पुस्तकालय में सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चौरी-चौरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से इन जनप्रतिनिधियों के बारे में नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता पुष्प की अभिलाषा प्रताप अखबार में ही मई १९२२ में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीनसोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।
                                             प्रताप में  ना  केवल क्रान्तिकारी लेखो का प्रकाशन होता था , बल्कि यह क्रांतिकारियों की अभेद्य शरणस्थली भी था , प्रताप प्रेस की अनूठी बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। बनारस षडयंत्र केस  के फरार अभियुक्त  सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं. राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली थी ।  अमर शहीद भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक पत्रकारिता  का कार्य किया।उन्होंने  दरियागंज दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए  दिल्ली की यात्रा करने के बाद  ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया था । चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भेंट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया।   विद्यार्थी जी ने बाद में भी राम प्रसाद बिस्मिल की माँ की मदद की और रोशन सिंह की कन्या का कन्यादान भी किया था । उन्होंने ही  अशफाकउल्ला खान की कब्र भी बनबाई थी । १९१६ में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे थे । 

                  देश में  स्वतंत्रता का आन्दोलन बढने पर  ब्रिटिश शासकों ने धार्मिक भेदभाव की  कूटनीति का प्रयोग करके दंगे करवाये, जिससे  दोनों संप्रदायों  के ढेर सारे लोग मारे गये। गणेश शंकर विद्यार्थी  की आत्मा इस दृश्य को देख कर कराह उठी, वह दंगो को रोकने के लिए अकेले हिंसक भीड़ के सामने खड़े हो जाते थे । भगतसिंह और साथियों की शहादत के उपरांत २५ मार्च १९३१ को चौबे गोला कानपुर में भीषण दंगे में घिरे हुए परिवारों की रक्षा के लिए   विद्यार्थी जी ने अपने जीवन को बलिदान कर दिया  था ।उनके निधन का समाचार, सुनकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में लिखा था ‘उनका खून हिन्दु-मुसलमानों के दिलों को जोड़ने के लिए सीमेंट बनेगा।' खून के प्यासे  दंगाइयों से घिरे हुए भी   विद्यार्थी  जी ने अंत में जीवटता पूर्वक यह  कहा था- ‘ यदि मेरे खून से ही सींचे जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता का पौधा बढ़ सके और तुम्हारे खून की प्यास बुझ सके, तो मेरा खून कर डालो।' अमर शहीद गणेश शंकर विधार्थी आज हमारे बीच नहीं हैं, कानपुर के फीलखाना में स्थित उनके प्रताप प्रेस का वह भवन आज  भी जीर्ण शीर्ण हालत में अपनी बदहाली पर खुद आसूं बहाता हुआ मौजूद है,  यह विडम्बना है कि स्वाधीनता उपरांत भी प्रताप और विद्यार्थी जी की  यादों को संजोने के लिए कुछ भी नहीं किया गया  है । कविवर सनेही जी के शब्दों में हम कह सकतें हैं-

                                                  ''  दीवान-ए-वतन गया, जंजीर रह गई,
                                                    चमकी चमक के कौन की तकदीर रह गई।
                                                    जालिम फलक ने लाख मिटाने की फिक्र की,
                                                     हर दिल में अक्स रह गया तस्वीर रह गई। ''

                                                                                                                        - अनिल वर्मा



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