Bhagat Singh ka Shahadat isthal : Central Jail Lahore

भगत सिंह  का शहादत स्थल : सेंट्रल जेल लाहौर 
                              



फांसी का फन्दा

शैडमैन चौक

                      












                                                                 २३ मार्च सन १९३१ शाम करीब  ७ बजे सेंट्रल जेल लाहौर में भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव ने काल  कोठरियों से बाहर आकर एक दूसरे के हाथ थाम लिए 
थे,  तभी भगतसिंह के कंठ से मार्मिक गीत फूट पड़ा और तीनो झूमकर गा रहे थे -

                                             '' दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत ,
                                                    मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी .''

                          भारत माता के ये महान सपूत झूमते गाते फांसी घर की ओंर चले, उनके पीछे पूरा काफिला चला , आगे पीछे जेल के वार्डन , अगल बगल सरकारी अफसर और बीच में गूँज रहा था   आज़ादी के मतवालों का तराना , फिर फांसीघर आ गया , सामने मंच पर तीन फंदे झूल रहे थे , अंदर लाहौर  का अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर तीनो को खुला देखकर कुछ परेशांन  सा खड़ा था ,तभी भगत सिंह उसकी ओर मुखातिब हुए , वह बोले   '' Well Mr. Magistrate,you are fortunate to be able today to see how Indian revolutionries can embress death with pleasure for the sake of their supream ideal''

                                    भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सीना ताने हुए जोश के साथ फांसी के मंच की सीढियों पर चढ़ें,भगत सिंह ने अपने साथियों से अलविदा कहा , इसके जबाब में उनके साथियों ने ''भगतसिंह जिंदाबाद''  के नारे लगाये , फिर तीनो के   '' इन्कलाब जिंदाबाद,   डाउन विथ इम्प्रिलिज्म,  डाउन विथ यूनियन जैक ''के नारों से पूरा आकाश गुंजायमान हो गया , जेल के बैरिको में निरुद्ध सभी बंदियों  के नारों के  स्वर भी जेल की दीवारो को भेदकर बाहर तक पहुच रहे थे.  भगत सिंह , राजगुरु  और सुखदेव ने फांसी के  फंदों को चूमा और अपने ही हाथो अपने गले में डाल लिया , तीनो वीरों के नारे आसमान की बुलंदियों को छू रहे थे, तीनो मित्रो के पहले पैर , फिर हाथ बांध दिए गए , चेहरे पर काली टोपी चढ़ा दी गयी ,   मजिस्ट्रेट ने घड़ी देखी  ७ बजकर ३३ मिनट , जल्लादों  ने मंच के नीचे आकर कांपते हाथो से चरखी घूमा  दी, तख्ता गिरा और फिर यह तीनो वीर एक साथ शहीद हो गए अपने  वतन के लिए .

                         इस ऐतिहासिक घटना के आज  ८२ वर्ष बाद इतिहास का पुनराविलोकन से यह ज्ञात  होता  है  कि लाहौर की वह सेंट्रल जेल, जहाँ भगत सिंह और उनके साथी शहीद हुए थे , अब  लगभग नस्त्नाबूत हो चुकी है , जिन कालकोठरियों में इन शहीदों को रखा गया था , वह खाक में मिल चुकी है . लाहौर में टेम्पल रोड के निकट जेल रोड आज भी बहुत शांत स्थान है , जिसके दोनों और शानदार लम्बे  वृछो की अनवरत श्रंखला है , यदि गुलमर्ग की ओंर जाये,  तो अभी भी दाँयी ओर सेंट्रल जेल की मिट्टी की एक दीवार के भग्नावशेष नज़र आते है. जेल की ऊँची दीवारों के पास जहाँ शहीदों की फांसी  का तख्ता था , अब वह ऐतिहासिक स्थल ट्राफिक सिग्नल का चबूतरा में तब्दील हो चूका  है , जिसके चारो ओर हर दिन हजारों  गाड़ियाँ गुजरती है, धूल और धुए के गुबार उभरते है और उनमें विलीन हो जाती है , इन शहीदों से जुडी अतीत की सुनहरी यादें .

                                       किसी ज़माने में सेंट्रल जेल लाहौर ( जिसे कोट लखपत जेल भी कहा जाता था )  इतने बड़े परिसर में फैली हुई थी कि जेलर  जेल के एक से दूसरे बैरक में जाने के लिए बग्घी का उपयोग करते थे, पर वहां अब एक टूटी फूटी दीवार के अवशेष के सिवा कुछ नहीं बचा है,  जेल के अधिकांश हिस्से को तोड़कर यहाँ एक शानदार' शैडमैन कालोनी ' बनायीं जा चुकी है, अब तो इस कालोनी का शुमार लाहौर के सबसे महंगे  और पाश  इलाके में होता  है, पर यह कहा जाता है कि फांसी के तख्ते वाली  भूमि के टुकड़े को खरीदने का  साहस काफी दिनों  तक कोई नहीं जुटा पा रहा था ,तो  पाकिस्तानी हूकुमत ने ठीक उसी जगह पर  ट्राफिक पॉइंट बनवा  दिया था , इस गोलचक्कर के   बारे में एक ओर दिलचस्प कहानी है ,यह कहा जाता है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिखार अली भुट्टो के आदेश पर  नेशनल असेंबली के सदस्य नवाज़ मोहम्मद खान की हत्या के लिए इसी चौक पर उस पर गोलिया चलायी गयी थी , जो उसके पिता अहमद रजा कसूरी  को लगी थी और वह बुरी तरह घायल हुए थे , कसूरी के दादा उन लोगो में से थे , जिन्होंने भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के खिलाफ गवाही दी थी और उनके शवो की शिनाख्त की थी, पुराने लोगो की  यह धारणा थी  कि  'नैमोसिस ' (बदले की देवी ) ने कसूरी परिवार को इस गोलचक्कर पर धर दबोचा था .

                              अखंड भारत के जिस लाहौर शहर में  क्रांतिकारी भगत सिंह और सुखदेव नॅशनल  कालेज में पढ़े बड़े थे ,  उन्होने आजाद के साथ मिलकर लाला लाजपत रॉय की हत्या का बदला लेने के लिए एडीशिनल  एस. पी. सांडर्स का यही वध करके राष्ट्रीय स्वाभिमान को जाग्रत किया था , भूख हड़ताले  की ,  जेल में जुल्म सहे  और   इस धरती को अपने पवान लहू से सीचा था  ,यह विडम्बना है  उसी लाहौर में यह  अमरशहीद आज़ादी के बाद बेगाने हो गए है , उन्हें पूरी तरह से भुला दिया गया  है , यूँ भी शहीदों का देशभक्ति के अलावा कोई मज़हब  नहीं होता है , फिर भी  न जाने क्यों पाकिस्तानी हूकुमत उन्हे अपना नहीं सकी है  और  आज तक  वहां  भगत सिंह और बाकी शहीदों का कोई स्मारक नहीं बन सका है , यद्दपि हाल  के कुछ वर्षो में  लाहौर की  फिजां  में कुछ बदलाव नज़र  आया  है ,अब यहाँ की  नयी पीढ़ी  भी भगत सिंह की दीवानी हो रही है ,  उनके दबाब के कारण हालाकिं प्रशासन ने  यहाँ भगत सिंह और उनके साथियों की  स्म्रातियों को संजोने के लिए एक भव्य स्मारक बनाने की  धोषणा की है और शैडमेन चौक का नाम भी  भगत सिंह चौक किया जाना प्रस्तावित  है , इस बारे में लाहौर हाईकोर्ट में एक रिट भी लंबित है   ,परन्तु  जब तक इस धोषणा  का क्रियान्वयन न हो जाये , तब तक पाकिस्तानी  हुकुमरानों  पर  यकीन   करना कठिन ही है .


                                                                                                             -   अनिल वर्मा
                                                                                          anilverma55555@gmail.com










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