Pilgrim of Immortal Martyrs : Hussainiwala

                                    अमर शहीदों का पावन तीर्थ : हुसैनीवाला


शहीदों के जीवान्त स्मारक
शहीदों की प्रतिमाएं
दत्त जी की समाधि
माता विद्यावती की समाधि
प्राचीन बुर्ज
शहीदों की समाधि

                 
 भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव ऐसे महान वीर थे, जिनके गर्व से तने शीश को ब्रिटिश साम्राज्य की अपार शक्ति भी झुका नहीं सकी  थी  . फांसी के बाद भी उनके पार्थिव शरीर अंगेजो पर इतने भारी पड़े थे  कि  गोरो को उनके शरीर के टुकड़े टुकडे  करके  मिटटी तेल से जलाने पर   भी  सकून हासिल  नहीं हो  सका था . पर इन शहीदों की नश्वर देह का एक कतरा भी जहाँ गिरा , वह धरा पावन हो गयी . २३ मार्च १९३१ की मध्यरात्रि में फिरोजपुर के पास सतलुज नदी के किनारे शहीदों के पार्थिव अंश अंग्रेजी हूकुमत के फौजी  दस्तें द्वारा आग के हवाले कर दिए थे ., परन्तु आग की रोशनी देखकर वहां  पर लोगो के आ जाने  पर फौजी उनके अधजले शव के टुकडे वही फेककर भाग गए थे .
                   
                    इसके बाद  दिन ,माह, साल गुजरते चले गए . आखिर शहीदों का खून रंग लाया और १५अगस्त १९४७ को हमारा देश आजाद हो गया. पर इसके साथ  बटवारे की गहरा  दर्द भी झेलना पड़ा , यह बलिदानी धरा  उस त्रासदी की मूक गवाह बनी , बटवारे के दौरान   लाखों  बच्चों , युवतियों एवं जवानो की खून से लथपथ लाशे और भीषण अनाचार देखकर यह धरा कराह उठी थी कि क्या इसी आज़ादी के लिए शहीदों ने  अपनी जिन्दगी कुर्बान की  थी. सतुलज की गोद रक्तरंजित हो गयी थी. यह  विडम्बना थी कि  जिस जगह इन शहीदों के शव के अधजलें  अंश हुए मिले  थे , उसी जगह से देश दो टुकड़ों में विभक्त हो  गया और  दुर्भाग्यवश शहीदों के रक्त से सिंचित यह भू-भाग पाकिस्तान की सीमा में चला गया. जनवरी १९६१ में जब दोनों मुल्को के बीच जमीन का समायोजन हुआ, तो शहीदों की पवित्र भूमि का यह हिस्सा भारत सरकार के कब्जे में आ गया  और  तब से हुसैनीवाला हैडवर्क्स के पास स्थित यह उजाड़ भूमि  राष्ट्र की  अमूल्य सम्पति और शहीदों का पावन तीर्थ बन गयी है  .
                                                                                   यहाँ सर्वप्रथम  शहीदों की स्मृति में स्मारक के रूप में ईटों का एक मंच बनाया गया था  ,जिसमें एक सीधी शिला थी , सन १९६१ में यहाँ पहली बार शहीदी मेले का आयोजन किया किया गया, जो अब भी प्रतिवर्ष अनवरत आयोजित किया जाता  है. सितम्बर १९६४ में जब यहाँ पंजाब के मुख्यमंत्री पधारे और  उनके प्रयासों से यहाँ ६५ हज़ार रुपये की लागत से एक भव्य स्मारक बनाया गया, जिनका शिलान्यास २३ मार्च १९६४ को  केन्द्रीय रक्षा मंत्री श्री  यशवंतराव चव्हाण ने किया था , १८ जुलाई १९६५ को क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का निधन होने पर उनकी अंतिम इच्छा अनुसार  उनके  साथियों की समाधि के पास ही  उनकी  समाधि बनायीं गयी . फरवरी १९६८ के मध्य तक पंजाब सरकार ने नए सिरे से शानदार काले पत्थरों से समाधिस्थल बनवाया ,  २३ मार्च १९६८ को भगत  सिंह की ८६ वर्षीय वीर माता विद्यावती देवी ने अपने  तीनो सपूतो  की  प्रतिमाओं के सामने शीश झुकाकर उनकी शहादत को नमन किया था  तथा पंजाब के मुख्यमन्त्री लक्ष्मण सिंह  ने यह स्मारक राष्ट्र को समर्पित किया था .

                               सन १९७१ में भारत पाकिस्तान के मध्य युद्ध के बादल मंडराने  लगे , २ दिसम्बर १९७१ को पाकिस्तानी सेना के चार ब्रिगेड ने भारतीय सीमा पर भीषण हमला किया , जिसमे ५००० पाक सैनिक  एवं १५ टैंक  थे, भारत की १५ वी पंजाब रेजिमेंट ने मेजर ऍम . पी. एल.वरिय्या तथा मेजरसिंह के नेतृत्व में अत्यंत कम सैनिको के साथ  बहादुरी से लड़ते हुए पाकिस्तानियों को  आगे बढने से रोका, पर  एक बार फिर फिर यह समाधिस्थल युद्ध की विभीषिका  का गवाह रहा  और भारी गोलाबारी से स्मारक पूरी तरह तबाह हो गया, पास में स्थित प्राचीन बुर्ज की दीवारों पर तो भीषण गोलाबारी के निशाँ आज भी मौजूद है. पाकिस्तानी सैनिक  घोर नीचता दिखाते हुए स्मारक के पत्थर उठा कर ले गए थे . फिर  सन १९७३ में भारत सरकार ने तीनो शहीदों की जीवान्त कांस्य प्रतिमा के साथ भव्य स्मारक पुनः निर्मित कराया था  , १ जून १९७५ को माता विद्यावती भी अपने वीर पुत्रों के पास सदा  के लिए  आ गयी थी , यहीं उनका अंतिम संस्कार हुआ था .

                       हुसैनीवाला में भारत पाकिस्तान  सीमा पर बी. एस.एफ. का मुख्यालय है,यहाँ भी वाघा बॉर्डर की तरह  प्रतिदिन शाम को सूर्यास्त के समय दोनों देशो की सेनाओ द्वारा सीमा पर संयुक्त रूप से अपने अपने  ध्वज उतारने की रस्म बड़े ही जोश खरोश से  की जाती है. सन २००३ में जब मै  शहीदों को   श्रद्धांजलि अर्पित करने हुसैनीवाला  गया था , तब मेरा मन यह देखकर भावुक हो गया था कि इस  स्मारक से चंद कदमो की दूरी पर पाकिस्तान का चाँद सितारा वाला हरा झंडा फहरा रहा था और दूसरी तरफ था हमारा प्यारा   तिरंगा झंडा . परन्तु  जिस अखंड भारत की आज़ादी के लिये इन शहीदों ने लहू बहाया था , क्या उनकी कुर्बानियां व्यर्थ चली गयी है ? जिस तरह से जर्मनी के दो टुकड़े मिलकर फिर से एक राष्ट्र  हो गए है, क्या एक दिन वो भी वक्त आएगा,  जब भारत और पाकिस्तान फिर से  एक हो सकेगे.

                                                                                                        - अनिल वर्मा

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