Hockey Wizard Dhayanchand Aur Tirange ki Shaan





                          हॉकी जादूगर ध्यानचंद और तिरंगे की शान
       
                           मेजर  ध्यानचंद को आज समूची दुनिया हॉकी जादूगर के नाम से जानती है , वह जितने  महान   खिलाडी थे , उससे भी महान इन्सान थे। आज के दौर में जहां कई खिलाडी चंद सिक्कों के लिए अपना ईमान बेच रहे है , वही दादा ध्यानचंद ने बेहद मुफलिसी में रहते हुए भी राष्ट्रहित को सदॆव  सर्वोपरि रखा था,  उन्हें अपने वतन के लिए बेइंतहा मोहब्बत थी।  उन्होंने भारत को ओलिंपिक हॉकी में  ३ स्वर्ण पदक तब दिलाये थे , जब हमारा देश अंग्रेजो का गुलाम था।  बर्लिन ओलिंपिक १९३६ में ३१ जुलाई को उदघाटन दिवस पर  मार्चपास्ट में भारत को नियम विरुद्ध रूप से जबरन ब्रिटेन की टीम के पीछे चलने के लिए मजबूर किया गया । तब पराधीन भारत में तिरंगा झंडा फहराना भी अंग्रेज सरकार  के खिलाफ विद्रोह का परिचायक था, पर ध्यानचंद ने बर्लिन ओलिंपिक के  फाइनल मैच के पहले टीम के सामने  तिरंगा झंडा रखकर अपनी नौकरी , शोहरत और जिन्दगी को दाव  पर  लगाते हुए  टीम में जीत की अलख जगा दी  थी। 

                      बर्लिन  में भारत हॉकी के फाइनल में पहुच गया था , यह मैच १४ अगस्त को नियत  था, पर उस दिन भीषण वर्षा के कारण  मैदान में पानी भर जाने से १५ अगस्त को यह मैच खेला जाना था।  भारत  का मुकाबला मेजबान जर्मनी से था, ओलिंपिक के पहले एक  अभ्यास मैच में भारत जर्मनी से परास्त हो  गया था, इसलिये  टीम काफी दहशत और दबाब में  थी। फिर उसी दिन एडोल्फ़ हिटलर भी मैच देखने आने वाला था और उसकी उपस्थिति मात्र  जर्मन टीम में जोश भरने के लिए काफ़ी  थी। इन हालत में  ध्यानचंद पर कप्तान  होने के नाते टीम का मनोबल बढाने  का अहम्  दायित्व था। 

                  १५ अगस्त की सुबह जब भारतीय टीम  ड्रेसिंग  रूम में एकत्र  हुई  , तब कप्तान ध्यानचंद नें बिना  कुछ बोले ही  टीम के सामने तिरंगा  झंडा रख दिया ,मानो यह कह दिया हो कि  अब तिरंगे  की लाज तुम्हारे ही हाथ में है।  सभी खिलाडियों ने बहुत सम्मान  के साथ ध्वज को सलामी दी और वह  वीर सैनिकों की भांति मैदान में उतर पड़े।   स्टेडियम में मौजूद ४०००० हज़ार दर्शको में से चन्द भारतीय  ही'' भारत माता की जय'' के नारे लगा रहे थे। परन्तु भारतीय खिलाडी देश के लिए जी जान   से खेले , दूसरे  हाफ में भारत ४-१ से आगे हो गया था ।  जर्मन तानाशाह  हिटलर अपने नाज़ी प्रोपोगंडा  मंत्री  जोसेफ गैबल्स और जोकिन रिब्रैनग्राफ  के साथ अपनी टीम की जीत के मसूबे लेकर स्टेडियम में आयाथा , उसने जीवन में हारना नहीं सीखा था , अपनी टीम को हारते देखकर वह गुस्से में मैच अधूरा  ही छोड़कर चला गया।  ध्यानचन्द  ने फिर ५ मिनट में ४ गोल किये, उन्होंने  उस मैच में कुल ६ गोल किये थे और  भारत   जर्मनी को ८-१ से रौदकर लगातार तीसरी बार ओलिंपिक विजेता विजेता बन गया।  सचमुच  उस दिन विश्व में तिरंगे  की शान बन गयी थी ,  तब कौन जानता  था कि ११ वर्ष बाद  १५ अगस्त ही भारत का स्वाधीनता  दिवस बनेगा। 

                                                                               इस  मैच के दूसरे दिन हिटलर ने  ड्यूस हॉल में अपने स्वभाव के विपरीत ध्यानचंद और भारतीय खिलाडियों को सम्मानित किया और ध्यानचंद  के  शानदार खेल से प्रभावित होकर उन्हें अपनी टीम में जनरल के पद पर आने का आमंत्रण दिया था, उस समय ध्यानचंद भारतीय सेना में केवल सूबेदार के छोटे से पद पर ही थे, परंतु  उन्होंने विनम्रता पूर्वक हिटलर का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उन्हें अपना वतन जान से ज्यादा प्यारा था।

                               इसके पूर्व भी ध्यानचंद जी ने सन १९२८-२९ में महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद को  फरारी के दिनों में झाँसी में अपने घर मे शरण दी थी, आज़ाद ब्रिटिश हूकुमत के फरार मुजरिम थे और उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकडवाने पर २५००० रु.  हजार का इनाम घोषित था। सरकार को इस बात का पता लगने की स्थिति में ध्यानचंद जी की नौकरी और जिंदगी को दोनों को खतरा था , पर  उन्होंने जीवटता पूर्वक आज़ाद को आश्रय  देकर भारत माता के प्रति अपने पुनीत  कर्तव्य का निर्भीकता पूर्वक पालन किया था । दादा  ध्यानचंद  का यह राष्ट्र प्रेम सबके लिए  अनुकरणीय  है। 









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