विलुप्त हो चुका है : प्रताप प्रेस का 'प्रताप'


                         गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रताप प्रेस

                                                                                      - अनिल वर्मा

कटियार जी के साथ प्रताप में

प्रताप एक ओर चित्र

प्रताप का बंद दरवाजा
प्रताप पिछला दरवाजा


प्रताप सामने से एक विहगम चित्र

                       

                                         कानपुर के फीलखाना स्थित प्रताप प्रेस की लगभग खंडहर में तब्दील हो चुकी ऐतिहासिक इमारत भारतीय क्रांतिकारी युग की गवाह रही है , पर यहाँ की फ़िज़ाओं में अब भी अमरशहीद गणेशशंकर विद्यार्थी , भगत सिंह , चन्द्रशेखर आज़ाद ,अशफ़ाक़ उल्ला ,रामप्रसाद बिस्मिल आदि के त्याग और बलिदान की खुशबू समायी हुई हैं। महान क्रांतिकारियों की कर्मस्थली रहा ऐतिहासिक प्रताप प्रेस अब कठिन दौर से गुजर रहा है। सुनहरे इतिहास के नाम पर अब यहां सिर्फ प्रेस के बंद पड़े जर्जर दरवाजे ही बचे है।
                                                                          
                                   आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने‘ 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से प्रताप हिंदी साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया था। विधार्थी जी ने महाराणा प्रताप के उच्च त्याग और स्वातंत्र्य-प्रेम, आत्म गौरव से प्रेरित होकर अपने पत्र का नाम ‘प्रताप’ रखा था। ‘प्रताप’ के प्रथम अंक में मुखपृष्ठ पर , आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी द्धारा यह अमर पंक्तियां लिखी गयी थी -

                                            ' जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
                                                             वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।’

                                       प्रताप का का कुल बजट, चार भागीदारों गणेशशंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, शिवनारायण मिश्र और यशोदानंदन  के सौ-सौ रुपए के  हिस्से जोड़कर उतना ही था, जितने में आज चार किलो मूंगफली आती है। संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी ही  थे।  अखबार की शुरुआत टेब्लॉयड से बड़े आकार में 16 पृष्ठों से हुई। उस समय ‘प्रताप’ का कार्यालय शहर के एक छोर पर पीली कोठी में रखा गया था। सोलह अंकों के बाद, छपाई का भुगतान समय से न हो पाने के कारण यह व्यवस्था रुक गई। यशोदानंदन ने अपना हिस्सा भी अखबार से वापस ले लिया। लगभग साल भर बाद नारायण प्रसाद अरोड़ा भी अपना निजी अखबार निकालने के इरादे से अलग हो गए। बाकी बचे विद्यार्थी जी और शिवनारायणजी। उनका तो एक ही संकल्प था ‘प्रताप’। विद्यार्थी जी के पास  पैसा नहीं था ,अपना प्रेस नहीं था , दूसरे प्रेस वाले छापने को तैयार नहीं , पर विद्यार्थी जी इससे जरा भी विचलित न हुए। उन्होंने जल्द ही  एक छोटा-सा अपना प्रेस भी खड़ा कर लिया और प्रेस का  कार्यालय भी पीली कोठी से उठकर फीलखाना वाली बिल्डिंग में आ गया, जो ‘प्रताप’ की अंतिम सांस (1964) तक उसका प्रकाशन-स्थल रहा और इसे ‘प्रताप प्रेस’ के नाम से जाना जाता रहा। वैसे था वह भी किराए पर ही। इन परिवर्तनों के बावजूद ‘प्रताप’ की आर्थिक दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। कुर्सी मेज खरीदने की सामर्थ्य न थी, दरी और चटाई पर बैठकर संपादन, प्रबंधन और डिस्पैच के सब काम अंजाम दिए जाते। संपादक, मैनेजर से लेकर चपरासी और दफ्तरी तक का काम गणेशजी और मिश्रजी को स्वयं करना पड़ता था । 


                                 गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही समर्पित है।उन्होंने ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया बिगुल फूँका था और बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया, जो हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं, जिन्हे पढकर लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे. प्रताप की आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखको व संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दी, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा।
 
                      प्रताप की पहचान लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से सरकार विरोधी बन गई थी और कानपुर के तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया।विद्यार्थी जी को ‘प्रताप‘ में प्रकाशित समाचारो के कारण ही १९२१ से १९३१ तक पाँच बार जेल जाना पड़ा , विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, परन्तु उनके भीतर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में निर्मित पुस्तकालय में सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चौरी-चौरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता पुष्प की अभिलाषा प्रताप अखबार में ही मई १९२२ में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।
                                             प्रताप में ना  केवल क्रान्तिकारी लेखो का प्रकाशन होता था , बल्कि यह क्रांतिकारियों की अभेद्य शरणस्थली भी था , प्रेस की अनूठी बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था।  बनारस षडयंत्र केस के फरार अभियुक्त सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं. राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली थी । अमर शहीद भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक पत्रकारिता का कार्य किया।   उन्होंने दरियागंज दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए दिल्ली की यात्रा करने के बाद ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया था ।   चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भेंट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। १९१६ में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे थे ।
                                                     भगतसिंह और उनके साथियों की शहादत के उपरांत २५ मार्च १९३१ को चौबे गोला कानपुर में भीषण दंगे में घिरे हुए परिवारों की रक्षा के लिए विद्यार्थी जी ने अपने जीवन को बलिदान कर दिया था। खून के प्यासे दंगाइयों से घिरे होने पर भी विद्यार्थी जी ने अंत में जीवटता पूर्वक यह कहा था- ‘ यदि मेरे खून से ही सींचे जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता का पौधा बढ़ सके और तुम्हारे खून की प्यास बुझ सके, तो मेरा खून कर डालो।' उनके निधन पर   महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में लिखा था ‘ उनका खून हिन्दु-मुसलमानों के दिलों को जोड़ने के लिए सीमेंट बनेगा।' 
                                  
                                              विद्यार्थी जी की शहादत के बाद से ही प्रताप प्रेस का चमक खोने का सिलसिला शुरू हो गया । विद्यार्थी जी की मौत के बाद बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' प्रताप प्रेस के संपादक बने।उनके बाद बिहारी लाल ओमर को संपादक बना दिया गया।  कुछ ही दिनों बाद प्रताप प्रेस में ताला पड़ गया।  जब यहां से प्रिंटिंग बंद हो गई तो भवन के असली मालिक रहे शिव नारायण मिश्रा के बेटे ने भवन को अपने कब्जे में ले लिया। जहां पर छपाई होती थी, उस कमरे का दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया गया। कुछ समय बाद भवन के अलग- अलग हिस्सों को अलग- अलग लोगों को बेच दिया। गत 23  मार्च 2016 को भगतसिंह की शहादत दिवस पर, उनके उनके साथी रहे डॉ. गयाप्रसाद के सुपुत्र क्रांति  कुमार कटियार के साथ जब मैं फीलखाना कानपुर की सकंरी गलियों में स्थित प्रताप प्रेस देखने गया ,तो यह देखकर मन दुःखित हो गया कि इतिहास के पन्नों में इतना अहम होने के बाद भी प्रताप प्रेस की आज कोई सुध लेने वाला नहीं है,। क्रान्तिकारी युग की मशाल रहा यह भवन अपनी बदहाली पर आसूं बहाता शिकस्त हालत में मिटने की कगार पर आ गया हैं ,यह विडम्बना है कि स्वाधीनता उपरांत भी प्रताप और विद्यार्थी जी की यादों को संजोने के लिए देश और समाज ने कुछ भी नहीं कर सका है ।विद्यार्थी जी को पत्रकारिता का पुरौधा मानने वाले नामी गिरामी और धनवान अख़बार प्रताप प्रेस के भवन पर एक बोर्ड तक नहीं लगवा पाये हैं . कविवर सनेही जी के शब्दों में हम कह सकतें हैं-  
          
                                                     ''  दीवान-ए-वतन गया, जंजीर रह गई,                                 
                                                     चमकी चमक के कौन की तकदीर रह गई।                                   
                                                     जालिम फलक ने लाख मिटाने की फिक्र की,                                      
                                                     हर दिल में अक्स रह गया तस्वीर रह गई। ''

                                                                                                                            - अनिल  वर्मा


पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था।
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पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था
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पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था।
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पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था।
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