Pilgrim of Immortal Martyrs : Hussainiwala

                                    अमर शहीदों का पावन तीर्थ : हुसैनीवाला


शहीदों के जीवान्त स्मारक
शहीदों की प्रतिमाएं
दत्त जी की समाधि
माता विद्यावती की समाधि
प्राचीन बुर्ज
शहीदों की समाधि

                 
 भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव ऐसे महान वीर थे, जिनके गर्व से तने शीश को ब्रिटिश साम्राज्य की अपार शक्ति भी झुका नहीं सकी  थी  . फांसी के बाद भी उनके पार्थिव शरीर अंगेजो पर इतने भारी पड़े थे  कि  गोरो को उनके शरीर के टुकड़े टुकडे  करके  मिटटी तेल से जलाने पर   भी  सकून हासिल  नहीं हो  सका था . पर इन शहीदों की नश्वर देह का एक कतरा भी जहाँ गिरा , वह धरा पावन हो गयी . २३ मार्च १९३१ की मध्यरात्रि में फिरोजपुर के पास सतलुज नदी के किनारे शहीदों के पार्थिव अंश अंग्रेजी हूकुमत के फौजी  दस्तें द्वारा आग के हवाले कर दिए थे ., परन्तु आग की रोशनी देखकर वहां  पर लोगो के आ जाने  पर फौजी उनके अधजले शव के टुकडे वही फेककर भाग गए थे .
                   
                    इसके बाद  दिन ,माह, साल गुजरते चले गए . आखिर शहीदों का खून रंग लाया और १५अगस्त १९४७ को हमारा देश आजाद हो गया. पर इसके साथ  बटवारे की गहरा  दर्द भी झेलना पड़ा , यह बलिदानी धरा  उस त्रासदी की मूक गवाह बनी , बटवारे के दौरान   लाखों  बच्चों , युवतियों एवं जवानो की खून से लथपथ लाशे और भीषण अनाचार देखकर यह धरा कराह उठी थी कि क्या इसी आज़ादी के लिए शहीदों ने  अपनी जिन्दगी कुर्बान की  थी. सतुलज की गोद रक्तरंजित हो गयी थी. यह  विडम्बना थी कि  जिस जगह इन शहीदों के शव के अधजलें  अंश हुए मिले  थे , उसी जगह से देश दो टुकड़ों में विभक्त हो  गया और  दुर्भाग्यवश शहीदों के रक्त से सिंचित यह भू-भाग पाकिस्तान की सीमा में चला गया. जनवरी १९६१ में जब दोनों मुल्को के बीच जमीन का समायोजन हुआ, तो शहीदों की पवित्र भूमि का यह हिस्सा भारत सरकार के कब्जे में आ गया  और  तब से हुसैनीवाला हैडवर्क्स के पास स्थित यह उजाड़ भूमि  राष्ट्र की  अमूल्य सम्पति और शहीदों का पावन तीर्थ बन गयी है  .
                                                                                   यहाँ सर्वप्रथम  शहीदों की स्मृति में स्मारक के रूप में ईटों का एक मंच बनाया गया था  ,जिसमें एक सीधी शिला थी , सन १९६१ में यहाँ पहली बार शहीदी मेले का आयोजन किया किया गया, जो अब भी प्रतिवर्ष अनवरत आयोजित किया जाता  है. सितम्बर १९६४ में जब यहाँ पंजाब के मुख्यमंत्री पधारे और  उनके प्रयासों से यहाँ ६५ हज़ार रुपये की लागत से एक भव्य स्मारक बनाया गया, जिनका शिलान्यास २३ मार्च १९६४ को  केन्द्रीय रक्षा मंत्री श्री  यशवंतराव चव्हाण ने किया था , १८ जुलाई १९६५ को क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का निधन होने पर उनकी अंतिम इच्छा अनुसार  उनके  साथियों की समाधि के पास ही  उनकी  समाधि बनायीं गयी . फरवरी १९६८ के मध्य तक पंजाब सरकार ने नए सिरे से शानदार काले पत्थरों से समाधिस्थल बनवाया ,  २३ मार्च १९६८ को भगत  सिंह की ८६ वर्षीय वीर माता विद्यावती देवी ने अपने  तीनो सपूतो  की  प्रतिमाओं के सामने शीश झुकाकर उनकी शहादत को नमन किया था  तथा पंजाब के मुख्यमन्त्री लक्ष्मण सिंह  ने यह स्मारक राष्ट्र को समर्पित किया था .

                               सन १९७१ में भारत पाकिस्तान के मध्य युद्ध के बादल मंडराने  लगे , २ दिसम्बर १९७१ को पाकिस्तानी सेना के चार ब्रिगेड ने भारतीय सीमा पर भीषण हमला किया , जिसमे ५००० पाक सैनिक  एवं १५ टैंक  थे, भारत की १५ वी पंजाब रेजिमेंट ने मेजर ऍम . पी. एल.वरिय्या तथा मेजरसिंह के नेतृत्व में अत्यंत कम सैनिको के साथ  बहादुरी से लड़ते हुए पाकिस्तानियों को  आगे बढने से रोका, पर  एक बार फिर फिर यह समाधिस्थल युद्ध की विभीषिका  का गवाह रहा  और भारी गोलाबारी से स्मारक पूरी तरह तबाह हो गया, पास में स्थित प्राचीन बुर्ज की दीवारों पर तो भीषण गोलाबारी के निशाँ आज भी मौजूद है. पाकिस्तानी सैनिक  घोर नीचता दिखाते हुए स्मारक के पत्थर उठा कर ले गए थे . फिर  सन १९७३ में भारत सरकार ने तीनो शहीदों की जीवान्त कांस्य प्रतिमा के साथ भव्य स्मारक पुनः निर्मित कराया था  , १ जून १९७५ को माता विद्यावती भी अपने वीर पुत्रों के पास सदा  के लिए  आ गयी थी , यहीं उनका अंतिम संस्कार हुआ था .

                       हुसैनीवाला में भारत पाकिस्तान  सीमा पर बी. एस.एफ. का मुख्यालय है,यहाँ भी वाघा बॉर्डर की तरह  प्रतिदिन शाम को सूर्यास्त के समय दोनों देशो की सेनाओ द्वारा सीमा पर संयुक्त रूप से अपने अपने  ध्वज उतारने की रस्म बड़े ही जोश खरोश से  की जाती है. सन २००३ में जब मै  शहीदों को   श्रद्धांजलि अर्पित करने हुसैनीवाला  गया था , तब मेरा मन यह देखकर भावुक हो गया था कि इस  स्मारक से चंद कदमो की दूरी पर पाकिस्तान का चाँद सितारा वाला हरा झंडा फहरा रहा था और दूसरी तरफ था हमारा प्यारा   तिरंगा झंडा . परन्तु  जिस अखंड भारत की आज़ादी के लिये इन शहीदों ने लहू बहाया था , क्या उनकी कुर्बानियां व्यर्थ चली गयी है ? जिस तरह से जर्मनी के दो टुकड़े मिलकर फिर से एक राष्ट्र  हो गए है, क्या एक दिन वो भी वक्त आएगा,  जब भारत और पाकिस्तान फिर से  एक हो सकेगे.

                                                                                                        - अनिल वर्मा

Shaheed Saligram Shukla's Birth Centenary

                 आज़ाद के साथी :शहीद सालिगराम शुक्ल 


                                               चन्द्रशेखर आज़ाद  अपने नाम के अनुरूप  हमेशा आज़ाद ही रहें , पर देश  के नाम हो गयी उनकी जिन्दगी को बचाए रखने में कुछ योगदान उनके बहादुर साथियों का भी था ,जो सदॆव आज़ाद के लिये ढाल बने रहें / उन्ही में से एक क्रान्तिकारी  साथी थे सालिगराम   शुक्ल , जिन्होंने आज़ाद को बचाने  के लिए अपनें  प्राणों की आहुति  दे दी थी  / इस महान बलिदानी  क्रांतिकारी सालिगराम  शुक्ल की विगत १३ अप्रैल २०१३ को जन्मशताब्दी  थी ,पर यह अफ़सोस है कि देश में किसी  ने  इस गुमनाम शहीद को याद करने  की  जहमत भी नहीं उठायी । 
            
                                                        ८ अप्रैल १९१३ को  जन्मे  सालिगराम  के मन में  बचपन से ही देश की आजादी के लिए  कुछ करने की चाहत थी  । उन्होंने  कानपुर के डी.ए. वी. कालेज में  प्रवेश लिया था , जो उन दिनों  क्रांतिकारियों  का गढ़  बन चुका  था।  उन्होंने  क्रांतिकारी  दल में  प्रवेश करने के लिए  बहादुरी का परिचय दिया था , जब वह एक एक्शन के लिए इंदौर भेजे गए थे , एक्शन तो नहीं हुआ , पर वह २०-२५ भीलों  से मुकाबला होने  पर भी बच  निकले ,फिर  पुलिस के हाथो  पड़ने पर भी किसी तरह से अपना मौउज़र   पिस्तॊल  लेकर वापस लाने  में सफल रहे थे , वह  कानपुर में दल के विश्वस्त  साथी माने जाते थे। 

                                                        १ दिसम्बर १९३० की बात है।  उस समय तक  आज़ाद   के अलावा सभी प्रमुख  क्रांतिकारी  शहीद अथवा  गिरफ्तार हो चुके  थे , आज़ाद इन हादसों  से  विचलित होने के बावजूद  भी  दल के बचे कुचे साथियों  में किसी तरह से उत्साह  बनाये रखे हुए थे।  आज़ाद के निर्देश पर युवा क्रांतिकारियों की एक टोली निशानेबाजी  के  अभ्यास के लिए ग्रीनपार्क में   एकत्र  होने  वाली थी , आज़ाद को भी वहीँ पहुचना था , वैशम्पायन   आज़ाद के साथ थे।  सुरेन्द्र पाण्डेय उस दिन बड़ी  कठिनाई से गुप्तचरों  से पीछा छुड़ा सके थे , फिर भी रास्तें में उनकी सायकिल  धोखा  दे गयी , सालिगराम उनकी सायकिल  बदलनें के लिए डी.ए. वी. कालेज  हॉस्टल जा रहें थे, सुरेन्द्र पाण्डेय रास्ते  में रुके थे।  

                                            जब सालिगराम  कालेज के सामने पहुचे , तो सामने हॉस्टल की ओर  से सी. आय. डी. इंस्पेक्टर शम्भुनाथ के साथ  पुलिस का एक दस्ता  आता दिखाई दिया , पुलिस क्रांतिकारी  गज़ानंद पौदार को खोजने आई हुए थी ,अक्सिलियरी  फ़ोर्स  मुख्यालय की   तरफ से उन पर टार्च  की रौशनी पड़ी ,पुलिस ने उन्हें पहचान लिया था,शम्भू नाथ ने सालिगराम को बाहों  में जकड लिया ,पर सालिगराम  ने  खुद को छुड़ाकर  रिवाल्वर से लगातार फायर करना शुरू कर दिया ,उनकी पहली गोली का निशाना  एक सिपाही और दूसरी का निशाना   एक  पुलिस उपकप्तान  बना।   फिर सालिगराम  अपने साथियों को सावधान करने के लिए दो बार चिल्लाएं  ''पुलिस से सावधान ,पुलिस से सावधान '' , उनकी आवाज सुनकर चौकन्ने होकर सुरेन्द्र पाण्डेय  वहां  से बच  निकले।  परन्तु फिर गोलियों की जबरदस्त बौछार  आई और  सालिगराम  गोली लगने से वतन के लियें  शहीद  हो गये /उनकी खून से लथपत लाश सड़क पर पड़ी  हुई  थी , साइकिल और टिफिन बॉक्स भी पड़ा हुआ  था। थोड़ी देर बाद जब आज़ाद ,वैशम्पायन और नंदकिशोर  वहां  से गुजरे , पुलिस  आड़ में उनकी ताक  में थी , पर आज़ाद  ने  एक नज़र में ही पूरी स्थिति  भाँप  ली , उनके इशारे पर सब साथी बिना रुके  वहां से निकल गए, पुलिस आज़ाद को सामने देखकर भी न पहचान सकी।  आज़ाद ने बाद में काफी दुखी होते हुए यह  कहा था  कि ''आज हमने अपना एक बहुत ही बहादुर और भरोसे का साथी खो दिया है / ''

                         आज भी डी.ए. वी. कालेज  कानपुर  के सामने  सालिगराम शुक्ल  का स्मारक  बना हुआ है , जो कभी नौजवानों  और विधार्थियों  को  देशप्रेम के लिए प्रेरित करता  था।  आज स्मारक के सामने स्थित ग्रीन पार्क स्टेडियम में इंटरनेशनल क्रिकेट मैच देखने हजारो लाखो दर्शक आते  है , पर कोई  एक नज़र भी  उनकी प्रतिमा को नहीं देखता है ।  आज के युवाजगत के नायक क्रिकेटर है,  इन छदम नायकों के लिए हमने देश के वास्तविक महानायकों को भुला दिया  है ,यह विडम्बना है कि आज़ादी जिन कंधो पर चढ़कर आयी है ,उन्हें भुला दिया गया  है।  शहीद सालिगराम  की शहादत  को  भी हमने विस्मृत कर  दिया है।  भारत माता के इस महान सपूत को जन्मशताब्दी  पर  शत शत  नमन /
                                                                                                                                 -अनिल वर्मा 
Krantikari Saligram Shukal
Krantiveer Saligram Shukal
                                             

Hockey Wizard Dhayanchand Aur Tirange ki Shaan





                          हॉकी जादूगर ध्यानचंद और तिरंगे की शान
       
                           मेजर  ध्यानचंद को आज समूची दुनिया हॉकी जादूगर के नाम से जानती है , वह जितने  महान   खिलाडी थे , उससे भी महान इन्सान थे। आज के दौर में जहां कई खिलाडी चंद सिक्कों के लिए अपना ईमान बेच रहे है , वही दादा ध्यानचंद ने बेहद मुफलिसी में रहते हुए भी राष्ट्रहित को सदॆव  सर्वोपरि रखा था,  उन्हें अपने वतन के लिए बेइंतहा मोहब्बत थी।  उन्होंने भारत को ओलिंपिक हॉकी में  ३ स्वर्ण पदक तब दिलाये थे , जब हमारा देश अंग्रेजो का गुलाम था।  बर्लिन ओलिंपिक १९३६ में ३१ जुलाई को उदघाटन दिवस पर  मार्चपास्ट में भारत को नियम विरुद्ध रूप से जबरन ब्रिटेन की टीम के पीछे चलने के लिए मजबूर किया गया । तब पराधीन भारत में तिरंगा झंडा फहराना भी अंग्रेज सरकार  के खिलाफ विद्रोह का परिचायक था, पर ध्यानचंद ने बर्लिन ओलिंपिक के  फाइनल मैच के पहले टीम के सामने  तिरंगा झंडा रखकर अपनी नौकरी , शोहरत और जिन्दगी को दाव  पर  लगाते हुए  टीम में जीत की अलख जगा दी  थी। 

                      बर्लिन  में भारत हॉकी के फाइनल में पहुच गया था , यह मैच १४ अगस्त को नियत  था, पर उस दिन भीषण वर्षा के कारण  मैदान में पानी भर जाने से १५ अगस्त को यह मैच खेला जाना था।  भारत  का मुकाबला मेजबान जर्मनी से था, ओलिंपिक के पहले एक  अभ्यास मैच में भारत जर्मनी से परास्त हो  गया था, इसलिये  टीम काफी दहशत और दबाब में  थी। फिर उसी दिन एडोल्फ़ हिटलर भी मैच देखने आने वाला था और उसकी उपस्थिति मात्र  जर्मन टीम में जोश भरने के लिए काफ़ी  थी। इन हालत में  ध्यानचंद पर कप्तान  होने के नाते टीम का मनोबल बढाने  का अहम्  दायित्व था। 

                  १५ अगस्त की सुबह जब भारतीय टीम  ड्रेसिंग  रूम में एकत्र  हुई  , तब कप्तान ध्यानचंद नें बिना  कुछ बोले ही  टीम के सामने तिरंगा  झंडा रख दिया ,मानो यह कह दिया हो कि  अब तिरंगे  की लाज तुम्हारे ही हाथ में है।  सभी खिलाडियों ने बहुत सम्मान  के साथ ध्वज को सलामी दी और वह  वीर सैनिकों की भांति मैदान में उतर पड़े।   स्टेडियम में मौजूद ४०००० हज़ार दर्शको में से चन्द भारतीय  ही'' भारत माता की जय'' के नारे लगा रहे थे। परन्तु भारतीय खिलाडी देश के लिए जी जान   से खेले , दूसरे  हाफ में भारत ४-१ से आगे हो गया था ।  जर्मन तानाशाह  हिटलर अपने नाज़ी प्रोपोगंडा  मंत्री  जोसेफ गैबल्स और जोकिन रिब्रैनग्राफ  के साथ अपनी टीम की जीत के मसूबे लेकर स्टेडियम में आयाथा , उसने जीवन में हारना नहीं सीखा था , अपनी टीम को हारते देखकर वह गुस्से में मैच अधूरा  ही छोड़कर चला गया।  ध्यानचन्द  ने फिर ५ मिनट में ४ गोल किये, उन्होंने  उस मैच में कुल ६ गोल किये थे और  भारत   जर्मनी को ८-१ से रौदकर लगातार तीसरी बार ओलिंपिक विजेता विजेता बन गया।  सचमुच  उस दिन विश्व में तिरंगे  की शान बन गयी थी ,  तब कौन जानता  था कि ११ वर्ष बाद  १५ अगस्त ही भारत का स्वाधीनता  दिवस बनेगा। 

                                                                               इस  मैच के दूसरे दिन हिटलर ने  ड्यूस हॉल में अपने स्वभाव के विपरीत ध्यानचंद और भारतीय खिलाडियों को सम्मानित किया और ध्यानचंद  के  शानदार खेल से प्रभावित होकर उन्हें अपनी टीम में जनरल के पद पर आने का आमंत्रण दिया था, उस समय ध्यानचंद भारतीय सेना में केवल सूबेदार के छोटे से पद पर ही थे, परंतु  उन्होंने विनम्रता पूर्वक हिटलर का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उन्हें अपना वतन जान से ज्यादा प्यारा था।

                               इसके पूर्व भी ध्यानचंद जी ने सन १९२८-२९ में महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद को  फरारी के दिनों में झाँसी में अपने घर मे शरण दी थी, आज़ाद ब्रिटिश हूकुमत के फरार मुजरिम थे और उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकडवाने पर २५००० रु.  हजार का इनाम घोषित था। सरकार को इस बात का पता लगने की स्थिति में ध्यानचंद जी की नौकरी और जिंदगी को दोनों को खतरा था , पर  उन्होंने जीवटता पूर्वक आज़ाद को आश्रय  देकर भारत माता के प्रति अपने पुनीत  कर्तव्य का निर्भीकता पूर्वक पालन किया था । दादा  ध्यानचंद  का यह राष्ट्र प्रेम सबके लिए  अनुकरणीय  है। 









Krantiveer Sardar Ajeet Singh

Articles of Ajit Singh


                     

                                                                                                                                                                     
                                       क्रांतिकारी  भगत सिंह को आज सारा देश शहीदे-आज़म के नाम से नाम से जानता  है , पर भगत सिंह को क्रांति के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करने वालें महान  क्रांतिवीर और  उनके यशस्वी चाचा सरदार अजीत सिंह को इस  देश ने भुला दिया है ।  अजीत सिंह ने मुल्क की आज़ादी के लिए पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी  , वह ३७ साल तक देश के बाहर रहकर भी आज़ादी के लिए गहन संघर्ष में लीन  रहे।
                                   २३ फरवरी १८८१  को खटकरकलां जिला जालंधर , अब जिला नवांशहर  में पिता सरदार अर्जुन सिंह और माता जयकौर के यहाँ जन्मे सरदार अजीत सिंह को देशभक्ति विरासत में मिली थी।  उन्होंने डी.ए.वी. कालेज लाहौर में डिग्री प्राप्त की और लॉ कालेज बरेली में कानून की पढ़ाई छोड़कर वह स्वाधीनता आन्दोलन में भी सक्रिय रूप से जुट गए । उन्होंने अपने भाई सरदार किशन सिंह के साथ मिलकर '' पगड़ी सम्हाल जट्टा '' का नारा देकर पंजाब के गरीब किसानो को स्वाभिमान से रहकर देश की आज़ादी के लिए जाग्रत किया था।  
                                  वह आर्य समाज के संस्थापक  सदस्यों में से एक थे, सन १९०७ में उन्हें ब्रिटिश हूकुमत द्वारा लाला लाजपत राय के साथ बर्मा की मांडले जेल भेज दिया ,वहां  से रिहा होने के बाद भारतमाता सोसाइटी की क्रांतिकारी  गतिविधियों के कारण  अंग्रेजों  की आख की किरकिरी बन गये , उन्हें राजद्रोह में फाँसी देने का षड्यंत्र रचने की खबर मिलने पर , वो सूफी अम्बा प्रसाद के साथ ईरान चले गए और वहां क्रांतिकारियों का एक केंद्र स्थापित किया।  इसके बाद वह जर्मनी,तुर्की, पर्शिया,अफ़ग़ानिस्तान,रोम ,  जिनेवा, फ्रांस, ब्राज़ील पूरी दुनिया में जाकर देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करते रहे, पर अंग्रेज सर् कार  उन्हें पकड़ न सकी  . सन १९१८ में वह सेनफ्रंसिसको में   ग़दर पार्टी के संपर्क में  भी रहें। सन १९३९ में दुसरे विश्व युद्ध  के दौरान  यूरोप चले गए और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के साथ मिलकर स्वाधीनता प्राप्ति के अभियान  में जुटे रहें।

                                        अप्रैल १९४६ में सरदार जी गिरफ्तार  होकर जर्मनी के एक कैम्प में नज़रबंद थे , पूरे देश में उनकी रिहाई  का आन्दोलन होने और अंतर्राष्टीय दबाब पड़ने पर मजबूरन अंग्रेजों  को उन्हें रिहा  करना पड़ा। मार्च  १९४७ में देश की आज़ादी का सपना पूरा होने पर वह ३७ वर्ष बाद मुल्क वापस लौटे थे , पर देश के बटवारे का गम उनके मन पर छा गया था  , वह कहने लगे थे  कि '' ना  जवाहर देख रहा है  ना  जिन्ना , दोनों तरफ खून की नदिया बहा जाएगी ,मै यह देख नहीं सकूगा  , मै  जा रहा हूँ। '' लोगो ने सोचा कि वह  फिर से विदेश जाने की बात कर रहे है , किसी तरह उनकी पत्नी बीबी हरनाम कौर ने उन्हें रोका।   १४  अगस्त 1947 को जब रात  १२ बजे वह रेडियो पर आज़ादी के समारोह का प्रसारण सुनते रहें ,वह देश की आज़ादी का यज्ञ पूर्ण होने से बहुत प्रसन्न थे।  सुबह ४ बजे जब स्वाधीन भारत में  सूरज की पहली किरण ने उजियारा किया  , तब उन्होंने  अपने घरवालो को जगाकर कहा कि  'मेरा मकसद पूरा हो गया है अब  मै जा रहा हूँ ,दुनिया भर में फैले मेरे दोस्तों के लिए  मेरा संदेश लिख लो' , पर घरवालो ने डॉक्टर की सलाह पर  उनकी बात न मानी।  उन्होंने पत्नी सरदारनी हरनाम कौर को बुलाया और उनके पैर छूकर कहा कि '' मै  भारत माता की सेवा में लगा रहा , तुम्हारी  सेवा के फ़र्ज़ को पूरा नहीं कर सका, मुझे  माफ़ करना। '' फिर सरदार अजीत सिंह ने अंतिम बार  ''जय हिन्द '' का नारा  बुलंद किया  और  इच्छा  मृत्यु के साथ जीवन त्याग दिया। पौराणिक वीर भीष्म के बाद अजीत सिंह के अलावा ऐसी स्वेच्छा  मृत्यु  किसी और को नहीं मिली है ।  वास्तव में सरदार अजीत सिंह हमारे देश की क्रांति के भीष्म ही थे। पर्यटन स्थल डलहौजी में पंचकुला की हसीन वादियों मे स्थित  उनकी समाधि  देश के लिए  महान बलिदान  का स्मारक है। 

                                                                                        -अनिल वर्मा          anilverma55555@gmail.com


My Baba Freedom Fighter Motilal Verma




                          मेरे बाबा श्री मोतीलाल वर्मा प्रखर देशभक्त एवं स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे।सन १९०६ में म.प्र. के कटनी जिले में एक अमीर परिवार मे जन्म लेने के बादभी उन्हें कभी भी धन दौलत के प्रति कोई मो नहीं रहावह एक अच्छे पहलवान थे, उन्हें आखाड़े में कुश्ती लड़ने का बहुत शौक था। भारत माता को गुलामी की जंजीरों में देखकर देश की आज़ादी के लिए उनकी भुजाएँ फड़कने लगती थी। उन्होंने सन १९३० में महात्मा गाँधी के आव्हान पर ''जंगल सत्याग्रह'' मे भाग लिया, तब उन्हें माह कठोर कारावास की सज़ा दी गयी  थी ,ब्रिटिश हूकूमत ने उनकी और पूरे खानदान की सारी चल अचल संपत्ति जब्त कर ली, जबकि उस वक्त हमारे घर में बोरों से पैसा भरा रहता था, पर देश के लिए सब कुछ छिन गया ,उन्होंने किसी तरह संघर्ष करके पुरखों की २०० साल पुरानी हवेली को वापस खरीदा था   फिर सन १९४२ में उन्होंने ''अंग्रेजो भारत छोड़ो'' आंदोलन मे भाग लिया,उन्हें माह की जेल की सज़ा दी गयी और सारी संपत्ति जब्त कर ली गयी, इस बार वो पनप ना सके और फिर उन्होंने अपना पूरा जीवन दूसरों की दुकान पर मुंशी का मामूली काम करके घोर गरीबी में व्यतीत  किया था, पर उनका स्वाभिमान से तना शीश कभी नहीं झुका  ।


मेरे बाबा श्री मोतीलाल वर्मा को महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद के साथ भी काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ,सन १९२८ में जब आज़ाद झाँसी से इलाहाबाद जा रहे थे, तब उन्होंने रास्ते में पुलिस की नज़रों से बचाने में आज़ाद की मद की थी वह आज़ाद से दूसरी बार इलाहाबाद में गंगा नदी के एक सुनसान किनारे पर मिले थे.जहाँ आज़ाद नदी से फ़ुदक कर हवा में आ रही मछलियों को पिस्तौल से गोलियों का अचूक निशाना बना रहे थे।

  इस तरह मेरे बाबा ने हमारे देश की आजादी की लड़ाई में गाँधीवादी और क्रांतिकारी दोनों तरह के संघर्ष में भाग लेकर देश की महान सेवा की थी । उन्होंने देश के प्रति सेवाओं के लिए कभी कोई राजनीतिक प्रतिफल नहीं चाहा । सन १९३५ में डॉ.  राजेंद्र प्रसाद भी हमारे घर पधारे थे, जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने थे। बाबा को आज़ादी के बाद सन १९७२ से उन्हें केंद्र और राज्य दोनों सरकारों से स्वाधीनता संग्राम सेनानी पेंशन मिलती रही। वह बहुत शांत स्वभाव के सच्चे, सरल इन्सान थे , वह पूर्णतः आत्म निर्भर और स्वाभिमानी भी थे  सन १९९३ में कटनी में उनका निधन हुआ। मैं उनकी अपार प्रेरणा से ही शहीदों और क्रांतिकारियों पर पुस्तकें लिखकर देश की सेवा करने का छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ ।
- अनिल वर्मा
                                            मोबा न. 09425181793


Krantikari Durga Bhabhi

 Krantikari Durga Bhabhi             (Durgavati Devi )


                      Durga Bhabhi  (Birth-7 October, 1907) was an Indian revolutionary and a  Great patriot. She was one of the few women revolutionaries who took an active participation in armed revolution against the ruling British. She is best known for having accompanied Bhagat Singh on the train journey in which he made his escape in disguise after the Saunders killing, Since she was wife of another HSRA member Bhagwati Charan Vohra, other members of HSRA referred her as 'Bhabhi' (elder brother's wife) and became popular as "Durga Bhabhi" in Indian revolutionary cirlces. Durga was a Bengali and her mother tongue was Bengali. Durgavati Devi was married to Bhagwati Charan Vohra when she was aged eleven.her husband was also a revolutionary &  he died during a bumb explosion near Lahore.

                            She tried to kill Lord Hailey on October 1, 1931 at Lamington Road, Bombay  . Lord Hailey escaped but many of associates died.She was caught by the police and imprisoned for three years.  She was caught by the police and imprisoned for three years. She had also sold her ornaments worth Rs. 3,000 to rescue Bhagat Singh and his comrades under trial. 

                                   After Indian independence Durga bhabhi started living as a common citizen in quite anonymity and exclusion in Ghaziabad. She later opened a school for poor children in purana kila area Lucknow. Prime minister Pandit Jawaharlal Nehru visited her school in 1956. that school is now known as Montesory school, she also donated her land for Shaheed Sodh Sansthan, established by her revolunary member Shiv Verma ,  Durga Devi died in Ghaziabad on 15 October 1999 at the age of 92.  A terror to the British police she was "The Agni of India’, a flashback of its ancient heritage of sacrifice and fearlessness, a legend in her lifetime.                                                                                          - Anil verma