आजाद की माता की लाड़ली बहू : शांता मलकापुरकर 
 
                                                                                                                           - अनिल वर्मा

शांता ताई और अनिल वर्मा
आज़ाद की माता जगरानी देवी
आज़ाद
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सदाशिव राव मलकापुरकर



                                                 इतिहास के पन्ने गवाह है कि अमरशहीद चन्द्रशेखर आज़ाद  ने वतन के लिए अपना घर परिवार  और  जिंदगी सहित सर्वस्व बलिदान कर दिया था।  27 फरवरी 1931 को आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क इलाहबाद शहीद होने के पूर्व उनके चारो भाई काल कलवित हो चुके थे , 2 -3 साल बाद उनके पिता प. सीताराम तिवारी का भी निधन हो गया , फिर अकेली रह गयी उनकी वृद्ध माता जगरानी देवी को असहाय हालात में भाभरा (जिला अलीराजपुर म. प्र. )  में एक छोटी सी टूटी फूटी कुटिया में भीलों के बीच जीवन संध्या व्यतीत करना पड़ी। यह विडम्बना है कि देश के लिए मर मिटने वाले इस अमर शहीद की माता को 1 -2 पैसे के गोबर के उपले बेचकर जो सस्ता अनाज कोदो कुटकी नसीब होता   था ,  रोटी बनाने के लिए अपर्याप्त न होने से उसे पानी में  घोलकर  किसी तरह से पेट की भूख मिटाना पड़ती  थी. इधर अनपढ़ भील उसे  यह ताने देते थे कि तेरा बेटा तो चोर डाकू था ,इसलिए ब्रिटिश हूकूमत ने उसे मार गिराया था , वह बेचारी गरीब देहाती महिला अपने आँसुओ को पीकर  दुनिया से अपना मुँह छिपाते फिरती थी।

                                                                               देश की आज़ादी के बाद सन 1949 में आज़ाद के दांये हाथ माने जाने वाले उनके विश्वस्त साथी क्रांतिकारी सदशिवराव मलकापुरकर को जब माता जी के जीवित होने की जानकारी मिली, तो वह माता जी को ससम्मान  अपने घर ले आये।  माताजी उनके साथ कभी झाँसी और कभी रहली (जिला सागर म. प्र. )में रहने लगी।  सदाशिवराव के बड़े भाई शंकरराव भी क्रांतिकारी थे , उन्हें भी जलगांव बम केस में  जेल की सजा हुई थी . दोनों भाईयो ने असीम सेवा और स्नेह से माता जी को कभी भी बेटे की कमी महसूस न होने दी , सदाशिव ने तो आज़ाद के पदचिन्हों पर चलते हुए शादी नहीं की थी , पर शंकरराव की पत्नी शान्ता ताई माताजी की बहुत सेवा करती थी और माताजी भी उन्हें प्यार से दुल्हन कहती थी और उन पर खूब वात्सल्य लुटाती थी , 1949 में सदाशिव और शान्ता ताई ने माताजी की  चारो धाम की तीर्थयात्रा  की अंतिम अभिलाषा पूरी करायी थी .माताजी अक्सर कहती भी थी कि यदि चंदू (चंद्रशेखर आज़ाद ) जिन्दा भी होता तो इससे ज्यादा क्या सेवा करता।

                   मेरा यह परम सौभाग्य है कि सागर में पदस्थापना के दौरान मुझे मलकापुरकर परिवार के  सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ था , शंकरराव जी बड़े पुत्र हेमन्त राव मलकापुरकर के साथ मिलकर हम लोग हर साल 27 फरवरी को आज़ाद जयंती पर किसी न किसी क्रांतिकारी के वंशज को रहली आमंत्रित कर कार्यक्रम आयोजित करते थे ,आदरणीय माता जी (शांता ताई ) मेरे प्रति असीम स्नेह रखती थी , आज़ाद और उनकी माता जी के उल्लेख से ही वो खिल उठती थी , जब मैं उनके चरणस्पर्श करता था, तो वो बड़े प्यार से हाथ पकड़कर मुझे अपने गले लगा लेती थी , मैं भी स्नेहित भाव से उनमे अपनी स्व. माँ का अक्स  पाकर गदगद हो जाता था . माता जी 90 वर्ष की उम्र के पड़ाव पर भी एकदम स्वस्थ थी , वो घर , मोहल्ले ,बाजार सब तरफ आसानी से पैदल घूम फिर आती थी।

                                                    वक्त के धपेड़े भी माताजी के मानसपटल से 60 -62 पुरानी  स्मृतियों को धूमिल नहीं कर सके थे , वह अक्सर उत्साहपूर्वक यह बताती थी कि आज़ाद की माताजी उनके साथ अधिकतर झाँसी वाले घर में रहती थी और कभी कभी रहली के इस घर में आकर भी रहती थी ,वह रहली से ही उनके साथ अधिकांश तीर्थ यात्राओ पर गयी थी .माता जी सुबह जल्दी उठ जाती थी , उन्हें बिना प्याज लहसुन का सादा खाना पसंद था , वह अपना खाना खुद बनाती थी और सदु (सदाशिव) को भी खिलाती थी ,उन्हें मैथी के लडडू बहुत पसंद थे ,वह पुरी जाते समय भी अपने साथ डिब्बे भर के मैथी के लड्डू ले गयी थी।   माता जी ने ही उनके छोटे बेटे जगन्नाथ का नामकरण किया था  और बहुत लाड़ प्यार के साथ झाँसी से बच्चे के लिए 5 रु. भेजे थे , जिससे बहुत सारे कपङे , खिलौने , गद्दे रजाई ख़रीदे गए थे  , पर बिचारी वह  उस बच्चे का मुँह न देख पायी , आजाद की माता जगरानी देवी ने  23 मार्च 1951 को  झाँसी में सदाशिव की बाँहों में अंतिम सांसे ली थी। शान्ता ताई  आज़ाद की माता का लोहे संदूक ,और लोटा स्मृतिचिन्ह के बतौर आजीवन सहेज कर रखी रही , हम लोग उस संदूक और लोटे का स्पर्श कर खुद को धन्य महसूस  करते थे। इन सब ऐतिहासिक घटनाचक्रों  का  मेरी पुस्तक ''आजाद की माता जगरानी देवी '' में विस्तृत वर्णन किया गया है।

                                                     करीब 3 साल पहले माताजी (आदरणीय शान्ता ताई ) के गिर जाने से उनके कूल्हे की हड्डी टूटने पर डॉक्टरों सहित किसी को भी यह यकीन  न था कि  वो 93 साल की आयु में डायबिटीज़ के रहते हुए दुबारा फिर कभी बिना सहारा के चल सकेगी , पर उनमे तो आज़ाद और उनकी जन्मदायिनी माता की दिव्यशक्ति का अंश था , उन्होंने अपनी प्रबल इचछा शक्ति के दम पर 6 -7 माह में बिना सहारे के चल फिर कर सबको चकित कर  दिया था , पर फिर एक बेटे की मौत ने उनके अंतर्मन को तोड़ दिया और वो यह कहने लगी थी कि अब मुझे जाने दो।  उन्हें अभी २ दिन पहले ही जब उन्हें दिल  और लकवे के दौरे के कारण गंभीर स्थिति में सागर के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया था ,तब भी हम सब को फिर उन्हें  पूर्ण स्वस्थ  देखने की आस थी , पर आज 25 अगस्त 2016 को दोपहर के समय वह हम सब को रोते बिलखते छोड कर अपनी प्यारी सासूमाँ (माता जगरानी) के पास सदैव के लिए उस अंतिम यात्रा पर चली गयी है , जहाँ से फिर कभी उनकी वापसी न हो सकेगी। परमपिता ईश्वर से यही वंदना है कि उनकी पुण्य आत्मा को अपने चरणों में स्थान प्रदान करे।

                                                                                                                               - अनिल वर्मा