प्रखर क्रांतिवीर  शचीन्द्र नाथ बख्शी 

                                                                                       -अनिल वर्मा 
 
                                मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए सभी बाधाओ को तोड़कर  अपना सर्वस्व बलिदान करते हुए सतत बढ़ते  रहना  क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ बख्शी क़ी अनूठी विशेषता थी। वह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख संगठनकर्ता भी थे , उन्होंने झाँसी और बनारस की माटी में से मोती तराश कर भारतमाता को क्रांतिपथ पर  देश के लिए मर मिटने वाले ऐसे अनेक सपूत दिए थे , जिनका हमारे स्वाधीनता  संग्राम में महान योगदान रहा है। शचीन्द्र नाथ बक्शी जी को प्रख्यात काकोरी ट्रैन डकैती केस में कालापानी की सजा हुई थी।  
                                                               बक्शी जी का जन्म २५ दिसम्बर १९०४ को संयुक्त प्रांत के बनारस शहर में हुआ था। उनके पिता मूलत: बंगाल  के फरीदपुर जिले के रहने वाले थे aur बाद में बंगाल से आकर संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के शहर बनारस में बस गये .उन्होंने १९२१ में एंग्लो बंगाली हाई स्कूल से मेट्रिक की परीछा उत्तीर्ण की थी .तब तक पूरे देश में स्वाधीनता के संघर्ष की चेतना जाग्रत हो चुकी थी और बक्शी जी के मन में भी देशप्रेम की प्रचंड ज्वाला प्रज्वलित हो गयी थी , उन्होंने देशहित को सर्वोपरि मानते हुए अपनी पढ़ाई  को त्याग दिया , असहयोग आंदोलन की नाकामी के बाद वह क्रान्ति पथ पर अग्रसर हो गए , उन्होंने अपनी विचारधारा को  मजबूत बनाने के लिए बनारस में व्यायाम शालाओ में जाना शुरू कर दिया। १९२३ के दिल्ली के स्पेशल कांग्रेस अधिवेशन में वह क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल  और जोगेश चंद्र चटर्जी के संपर्क में आने के बाद  ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के लिये गठित हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन नामक क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल हो गए   ।  फिर उन्होंने  कुछ दिनों झाँसी से निकलने वाले एक अखबार का सम्पादन भी किया।
              बक्शी जी ने सेण्ट्रल हेल्थ यूनियन के बैनर तले  बनारस के नवयुवकों को संगठित किया और तैराकी की कई प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं ,इसकी प्रतियोगिता में विजेता हुए केशव चक्रवर्ती  भी क्रांतिकारी दल के सदस्य थे , उन्हें क्रांतिकारी  गतिविधियों में आवश्यकता की पूर्ति के लिए जर्मनी से माउज़र पिस्तौल लाने का दायित्व सौपा गया , केशव जर्मनी में आयोजित तैराकी स्पर्धा में भाग लेने के बहाने जर्मनी गए  ऒर वहां उन्होंने माउज़र पिस्तौलों का सौदा पक्का कर लिया। सन १९२५ में जुलाई के तीसरे सप्ताह में हथियारों का वह पार्सल लेकर जर्मनी का एक जहाज समुद्र के रास्ते भारत आने वाला था, जिसे ब्रिटेन की समुद्री सीमा से दूर समुद्र में नगद राशि देकर मॉल छुड़ाना था।  धन की व्यवस्था  के लिए सहारनपुर लखनऊ पैसेंजर ट्रैन से जाने वाला अंग्रेजी खजाना लूटने की योजना बनायीं गयी।  बख्शी जी यह उत्तरदायित्व सौप गया कि वह अपने साथ राजिंदरनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला को ले जाकर काकोरी स्टेशन से दूसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हो और आगे की योजना को संचालित करे। ९ अगस्त १९२५ को शचीन्द्र नाथ बख्शी और उनके साथियो ने काकोरी और आलमपुर स्टेशन के बीच में ट्रैन रोक कर गार्ड के डिब्बे में रखे  संदूक को तोड़कर उसमे रखा खज़ाना लूट लिया।  बख्शी जी उससे मिले पैसो का कुछ भाग लेकर कलकत्ता चले गए और उन्होंने किराये पर ली गयी बोट से समुद्र में जाकर बिल्टी और पैसे देकर पार्सल प्राप्त क्र लिए ,जिसमे ५० माउज़र पिस्तौल थी , बाद में जब चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में लड़ते लड़ते शहीद हुए थे  तब  उनके पास इन्ही पिस्तौलों में से एक पिस्तौल पायी गयी थी। 

                               काकोरी ट्रैन डकैती की साहसिक कारनामे ने ब्रिटिश हूकूमत को हिला कर रख दिया। पुलिस की सरगर्मियां तेज हो गयी और २६ सितम्बर १९२५ तक आज़ाद , अशफ़ाक़ उल्ला और बख्शी जी को छोड़कर अन्य सभी क्रान्तिकारी साथी गिरफ्तार हो गए थे । पर शचीन्द्र नाथ बख्शी जी पुलिस को चकमा देने में सफल रहे ,वह  घर से फरार हो गए ,वह अपना पहचान चिन्ह अपना दाँत निकलवा कर और हुलिया बदलकर बम्बई पहुँच कर बंदरगाह से मॉल उतरने वाले गोदी मजदूर बन गए , वह चाहते तो गोदी कर्मचारी के रूप में जहाज में सवार होकर आसानी से विदेश भाग सकते थे ,पर वह कुछ अन्य साथी बटोरकर दल का पुनर्गठन करना चाहते थेबिहार में पार्टी का कार्य छुपे तौर पर करते रहे। उनको भागलपुर  में पुलिस तब  गिरफ्तार कर सकी , जब काकोरी-काण्ड के मुख्य मुकदमे का फैसला हो चुका था। उन्हें और अशफाक को सजा दिलाने के लिये लखनऊ के स्पेशल जज जे॰आर॰डब्लू॰ बैनेट की अदालत में काकोरी षड्यन्त्र का पूरक मुकदमा दर्ज़ हुआ था और  13 जुलाई 1927 को उन्हें आजीवन कारावास अर्थात काला पानी की सजा दी गयी। इसी मुकदमें में  अशफ़ाक़ उल्ला खां को फाँसी की सजा हुई थी

                                बख्शी जी का जेल जीवन  भी जीवटता और संघर्ष से परिपूर्ण रहा , उन्होंने १९३७ में राजबंदियों की रिहाई के लिए आमरण अनशन किया था ,जिससे देश भर में खलबली मच गयी , अंततः बम्बई में कांग्रेसी सरकार  बनने के बाद अन्य क्रांतिकारियों के साथ बख्शी जी भी जेल के बाहर आ गए , फिर उन्होंने कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर निष्ठा से काम किया ,वह बहुत दिनों तक उत्तरप्रदेश कांग्रेस समिति के संगठन मंत्री रहे ,स्वराज्य प्राप्ति  के उपरांत उन्होंने भीषण गरीबी में जीवन गुजारा था , पर  किसी से कोई शिकायत नही की।   बाद में वह जनसंघ में शामिल हुए और बनारस से उ. प्र. विधान सभा सदस्य निर्वाचित हुए , पर राजनीति में रहकर भी उन्होंने अपने उच्च आदर्शो और नैतिक मूल्यों से कभी कोई समझौता नहीं किया।   

                                  शचीन दा ने अपने जीवन काल में क्रान्तिकारी संस्मरणों पर आधारित दो पुस्तकें  "क्रान्ति के पथ पर: एक क्रान्तिकारी के संस्मरण" एवं  "वतन पे मरने वालों का "भी लिखीं, जो उनके मरने के बाद ही प्रकाशित हो सकीं।  सुल्तानपुर  (उत्तर प्रदेश) में 80 वर्ष का आयु में 23 नवम्बर 1984 को उनका  निधन हो गया था । भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में  एक प्रमुख क्रान्तिकारी के  रूप में उनका  महान योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा ।

                                            
                                                                                                                   -अनिल वर्मा
            आजाद की माता की लाड़ली बहू : शांता मलकापुरकर 
 
                                                                                                                           - अनिल वर्मा

शांता ताई और अनिल वर्मा
आज़ाद की माता जगरानी देवी
आज़ाद
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सदाशिव राव मलकापुरकर



                                                 इतिहास के पन्ने गवाह है कि अमरशहीद चन्द्रशेखर आज़ाद  ने वतन के लिए अपना घर परिवार  और  जिंदगी सहित सर्वस्व बलिदान कर दिया था।  27 फरवरी 1931 को आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क इलाहबाद शहीद होने के पूर्व उनके चारो भाई काल कलवित हो चुके थे , 2 -3 साल बाद उनके पिता प. सीताराम तिवारी का भी निधन हो गया , फिर अकेली रह गयी उनकी वृद्ध माता जगरानी देवी को असहाय हालात में भाभरा (जिला अलीराजपुर म. प्र. )  में एक छोटी सी टूटी फूटी कुटिया में भीलों के बीच जीवन संध्या व्यतीत करना पड़ी। यह विडम्बना है कि देश के लिए मर मिटने वाले इस अमर शहीद की माता को 1 -2 पैसे के गोबर के उपले बेचकर जो सस्ता अनाज कोदो कुटकी नसीब होता   था ,  रोटी बनाने के लिए अपर्याप्त न होने से उसे पानी में  घोलकर  किसी तरह से पेट की भूख मिटाना पड़ती  थी. इधर अनपढ़ भील उसे  यह ताने देते थे कि तेरा बेटा तो चोर डाकू था ,इसलिए ब्रिटिश हूकूमत ने उसे मार गिराया था , वह बेचारी गरीब देहाती महिला अपने आँसुओ को पीकर  दुनिया से अपना मुँह छिपाते फिरती थी।

                                                                               देश की आज़ादी के बाद सन 1949 में आज़ाद के दांये हाथ माने जाने वाले उनके विश्वस्त साथी क्रांतिकारी सदशिवराव मलकापुरकर को जब माता जी के जीवित होने की जानकारी मिली, तो वह माता जी को ससम्मान  अपने घर ले आये।  माताजी उनके साथ कभी झाँसी और कभी रहली (जिला सागर म. प्र. )में रहने लगी।  सदाशिवराव के बड़े भाई शंकरराव भी क्रांतिकारी थे , उन्हें भी जलगांव बम केस में  जेल की सजा हुई थी . दोनों भाईयो ने असीम सेवा और स्नेह से माता जी को कभी भी बेटे की कमी महसूस न होने दी , सदाशिव ने तो आज़ाद के पदचिन्हों पर चलते हुए शादी नहीं की थी , पर शंकरराव की पत्नी शान्ता ताई माताजी की बहुत सेवा करती थी और माताजी भी उन्हें प्यार से दुल्हन कहती थी और उन पर खूब वात्सल्य लुटाती थी , 1949 में सदाशिव और शान्ता ताई ने माताजी की  चारो धाम की तीर्थयात्रा  की अंतिम अभिलाषा पूरी करायी थी .माताजी अक्सर कहती भी थी कि यदि चंदू (चंद्रशेखर आज़ाद ) जिन्दा भी होता तो इससे ज्यादा क्या सेवा करता।

                   मेरा यह परम सौभाग्य है कि सागर में पदस्थापना के दौरान मुझे मलकापुरकर परिवार के  सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ था , शंकरराव जी बड़े पुत्र हेमन्त राव मलकापुरकर के साथ मिलकर हम लोग हर साल 27 फरवरी को आज़ाद जयंती पर किसी न किसी क्रांतिकारी के वंशज को रहली आमंत्रित कर कार्यक्रम आयोजित करते थे ,आदरणीय माता जी (शांता ताई ) मेरे प्रति असीम स्नेह रखती थी , आज़ाद और उनकी माता जी के उल्लेख से ही वो खिल उठती थी , जब मैं उनके चरणस्पर्श करता था, तो वो बड़े प्यार से हाथ पकड़कर मुझे अपने गले लगा लेती थी , मैं भी स्नेहित भाव से उनमे अपनी स्व. माँ का अक्स  पाकर गदगद हो जाता था . माता जी 90 वर्ष की उम्र के पड़ाव पर भी एकदम स्वस्थ थी , वो घर , मोहल्ले ,बाजार सब तरफ आसानी से पैदल घूम फिर आती थी।

                                                    वक्त के धपेड़े भी माताजी के मानसपटल से 60 -62 पुरानी  स्मृतियों को धूमिल नहीं कर सके थे , वह अक्सर उत्साहपूर्वक यह बताती थी कि आज़ाद की माताजी उनके साथ अधिकतर झाँसी वाले घर में रहती थी और कभी कभी रहली के इस घर में आकर भी रहती थी ,वह रहली से ही उनके साथ अधिकांश तीर्थ यात्राओ पर गयी थी .माता जी सुबह जल्दी उठ जाती थी , उन्हें बिना प्याज लहसुन का सादा खाना पसंद था , वह अपना खाना खुद बनाती थी और सदु (सदाशिव) को भी खिलाती थी ,उन्हें मैथी के लडडू बहुत पसंद थे ,वह पुरी जाते समय भी अपने साथ डिब्बे भर के मैथी के लड्डू ले गयी थी।   माता जी ने ही उनके छोटे बेटे जगन्नाथ का नामकरण किया था  और बहुत लाड़ प्यार के साथ झाँसी से बच्चे के लिए 5 रु. भेजे थे , जिससे बहुत सारे कपङे , खिलौने , गद्दे रजाई ख़रीदे गए थे  , पर बिचारी वह  उस बच्चे का मुँह न देख पायी , आजाद की माता जगरानी देवी ने  23 मार्च 1951 को  झाँसी में सदाशिव की बाँहों में अंतिम सांसे ली थी। शान्ता ताई  आज़ाद की माता का लोहे संदूक ,और लोटा स्मृतिचिन्ह के बतौर आजीवन सहेज कर रखी रही , हम लोग उस संदूक और लोटे का स्पर्श कर खुद को धन्य महसूस  करते थे। इन सब ऐतिहासिक घटनाचक्रों  का  मेरी पुस्तक ''आजाद की माता जगरानी देवी '' में विस्तृत वर्णन किया गया है।

                                                     करीब 3 साल पहले माताजी (आदरणीय शान्ता ताई ) के गिर जाने से उनके कूल्हे की हड्डी टूटने पर डॉक्टरों सहित किसी को भी यह यकीन  न था कि  वो 93 साल की आयु में डायबिटीज़ के रहते हुए दुबारा फिर कभी बिना सहारा के चल सकेगी , पर उनमे तो आज़ाद और उनकी जन्मदायिनी माता की दिव्यशक्ति का अंश था , उन्होंने अपनी प्रबल इचछा शक्ति के दम पर 6 -7 माह में बिना सहारे के चल फिर कर सबको चकित कर  दिया था , पर फिर एक बेटे की मौत ने उनके अंतर्मन को तोड़ दिया और वो यह कहने लगी थी कि अब मुझे जाने दो।  उन्हें अभी २ दिन पहले ही जब उन्हें दिल  और लकवे के दौरे के कारण गंभीर स्थिति में सागर के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया था ,तब भी हम सब को फिर उन्हें  पूर्ण स्वस्थ  देखने की आस थी , पर आज 25 अगस्त 2016 को दोपहर के समय वह हम सब को रोते बिलखते छोड कर अपनी प्यारी सासूमाँ (माता जगरानी) के पास सदैव के लिए उस अंतिम यात्रा पर चली गयी है , जहाँ से फिर कभी उनकी वापसी न हो सकेगी। परमपिता ईश्वर से यही वंदना है कि उनकी पुण्य आत्मा को अपने चरणों में स्थान प्रदान करे।

                                                                                                                               - अनिल वर्मा

शहीद भगत सिंह के साथी : अजय कुमार घोष

                                       
                                                                                            -अनिल वर्मा 

 

                                                   भगत सिंह के युग के उनके क्रान्तिकारी साथी  अजय कुमार घोष लाहौर षड़यंत्र केस में
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु एवं बटुकेश्वर दत्त के साथ जेल में निरुद्ध थे , उन्होंने  सेंट्रल जेल लाहौर में कैद के दौरान  प्रखर जीवटता  से  ब्रिटिश  हुकूमत के जुल्म सितम सहन किये थे ,पर स्वाभिमान से तना शीश ना झुकने दिया था। हालांकि उस मामले  में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सजा हुई थी , पर सबूत के अभाव में अजय घोष  को बरी कर दिया गया था। क्रांतिकारी युग के अवसान उपरांत उन्होंने सन 1933  में कम्युनिस्ट पार्टी से नाता जोड़ लिया , एक क्रांतिकारी से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साम्यवादी तक की उनकी  जीवनयात्रा रही।

                                                              अजय घोष का जन्म 20 फ़रवरी 1909 को बंगाल के मिहजम(अब चितरंजन) में हुआ। उनके बाबा ने उस गाँव के निकट बहने वाली नदी के नाम पर ही उनका नाम अ जय रख दिया था। अजय घोष के पिता का नाम शचीन्द्र नाथ घोष पेशे से डाक्टर थे और माँ का नाम सुधान्शु बाला था। अजय चार भाई और दो बहन थे।  उन्होंने प्रारंभिक विद्यार्थी जीवन आदर्श बांग्ला विद्यालय से शुरू किया , वह  मिडिल की परीक्षा में प्रथम आए। वे आगे चलकर विज्ञान के विद्यार्थी बने, साथ ही उन्हें बंगला समेत साहित्य में बड़ी रुचि थी  । स्कूल में तरुण भट्टाचार्या द्वारा स्थापित तरुण संघ  में वे शामिल हो गए। वे रामकृष्ण मिशन के कामों में भी भाग लिया करते थे, दिलचस्प बात यह है कि भविष्य के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा और बटुकेश्वर दत्त भी इसी संघ में शामिल थे। सुरेश बाबू वास्तव में यू0पी0 के क्रांतिकारियों के संगठन कर्ता थे, वे अजय के लिए एक आदर्श थे।
                        

                                        1921 में अजय के स्कूल में देशबन्धु सी0आर0 दास की गिरफ्तारी के विरुद्ध छात्रों की हड़ताल हो गई, जिसमें उन्होंने सक्रियता से भाग लिया। अजय ने 1920-22 के असहयोग आंदोलन में वालंटियर बनने की कोशिश भी की, लेकिन कम उम्र के कारण उन्हें इजाजत नहीं मिली। बटुकेश्वर दत्त और विजय कुमार सिन्हा अजय के घर नियमित रूप से आया करते थे। अजय के पिता ने उन्हें  क्रांति पथ पर अग्रसर होते देखकर भी कोई दखल नहीं दिया ,वरन उन्हें पूरी आजादी दी। 1922 में अजय को राजकीय कालेज में भर्ती कर दिया गया।  साहित्य में गहन रूचिके आधार पर उन्होंने विजय के साथ मिलकर तीन वर्षों तक 'निर्मला 'नाम की एक पत्रिका भी निकाली। 1924 में अजय कानपुर के क्राइस्ट चर्च कालेज में भर्ती हुए। उन्होंने बम बनाने का तरीका जानने केलिए केमिस्ट्री और विज्ञान का विशेष तौर पर अध्ययन किया । उन्होंने रेड बंगाल नामक एक पत्रिका का वितरण करना भी शुरू किया, साथ ही पिस्टल चलाने में भी निपुणता हासिल की  ।
                                                                       1926 में अजय घोष इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भर्ती हो गए और 1929 में उन्हें बी0एस सी0 की डिग्री मिली। वे हिन्दू हास्टल में रहा करते थे।यहाँ  उनका कमरा क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्रबिन्दु  बन गया था । उनके कमरे में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, शिव वर्मा और अन्य क्रांतिकारी आते  थे और बैठक करनेके अलावा कभीकभार  रहते  भी थे,इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ अनेक क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया ।
 

 
                                          सन 1928  में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकलन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य के नाते भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु एवं बटुकेश्वर दत्त के साथ उन पर भी लाहौर षड़यंत्र  काण्ड में  मुकद्दमा चला । उनके जेल से बाहर आने तक क्रांतिकारी दल छिन्न भिन्न हो चुका था , 1933 में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी से नाता जोड़ लिया , 1934  में उन्हें सी.पी.आई. का केन्द्रीय कमेटी सदस्य और 1936 में पोलित ब्यूरो सदस्य निर्वाचित किया गया तथा 1951 में उन्हें इसका महासचिव निर्वाचित किया गया। कामरेड अजय घोष ने 1951 से 1962 तक महासचिव  के रूप में यू.पी. और समूचे  देश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को सुस्थापित किया । सन १९५२ में स्वतन्त्र भारत में प्रथम आम चुनाव में उनके अनथक प्रयासों से दल को अच्छी सफलता मिली।

                     उसने 1945 में " भगत सिंह एण्ड हिज कामरेड्स" शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी. इसमें उन्होंने अपने क्रांतिकारी जीवन , लाहौर षड़यंत्र केस तथा बंदी जीवन के अनुभव सहज भाव से अंकित किये थे , साथ ही इसमें अपने सभी क्रांतिकारी साथियों के संस्मरण अंकित किये थे। 13 जनवरी 1962 को अजय घोष का निधन हो गया और इसके साथ ही क्रान्तिकारी आंदोलन के एक और अध्याय का समापन हो गया। 

                                                                                                                            - अनिल वर्मा

भगत सिंह और दत्त द्वारा असेम्बली में फेंके गए पर्चो का इतिहास


                                                                                       - अनिल वर्मा 





            
                                          ८ अप्रैल  सन १९२९ को दिन के करीब ११ बजे अमरशहीद भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश हुकूमत के शोषण के खिलाफ सुसुप्त जनमानस को जाग्रत करने के लिए सेंट्रल असेंबली की पब्लिक गैलरी से बम विस्फोट किया था , हालांकि उससे किसी को चोट नहीं आई थी ,पर चारो ओर भीषण भगदड़ मच गयी थी , तभी बटुकेश्वर दत्त द्वारा फेंका गया गुलाबी रंग के पर्चो के एक पुलिंदा फड़फड़ाते हुए पत्तों की बौछार की तरह गैलरी के नीचे आया। उन पर्चो ने जमीन का भाग और कुछ कुर्सियों को ढक लिया था. अंग्रेजी भाषा में लिखे गए  इन पर्चो का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत हैं -
           

               

 

                      ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना’

                                                     सूचना

                                     “बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है,” प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वेला के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
                              पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जानेवाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं,विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘औद्योगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
                                          राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परन्तु उसकी वैधनिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।
                                               जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।
हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
                                                                        इन्कलाब जिन्दाबाद !
                                                                                                                                ह. बलराज
                                                                                                                                कमाण्डर इन चीफ
                                            

                        
                                            सरदार भगतसिंह ने फ़्रांस के महान क्रान्तिकारी वेलां से प्रेरणा लेकर बम विस्फोट के दौरान  फेंके गए जोशीले क्रांतिकारी  पर्चे का मसविदा दिल्ली के सीताराम बाजार की डैन में बैठकर लिखा था। इन पर्चो का मूल उद्देश्य जनता को यह संदेश देना था क़ि क्रान्तिकारियों  ने असेंबली में यह घटना क्यों की हैं।  उन्होंने एच.आर. एस. ए . के गुलाबी रंग के लैटरहैड पर स्वयं ३०-४० पर्चे टाइप करके तैयार किये थे। इसके लिए ड्रिल मास्टर राजबली सिंह ने मारवाड़ी हाई  स्कूल से टाइप राइटर की व्यवस्था की थी ,यह काम जयदेव कपूर ने कराया था। बाद में दिल्ली बम केस के अन्वेषण के दौरान पुलिस ने दिल्ली में जितने भी हाथ से चलने वाले प्रेसो की जाँच पड़ताल की थी। बहुत से टाइप राईटर भी मांगकर देखे गए क़ि किस टाइप मशीन से ये  टाइप  किया गए थे ,पर  पुलिस  अंत तक हकीकत नहीं जान पायी ।

                                     यद्यपि  अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह और दत्त द्वारा असेम्बली में फेंके गए सभी  पर्चो को सफाई से बटोर लिया गया था और यह भरपूर प्रयास किया गया था कि इनकी गंध भी बाहर न जाने पाए ,परन्तु दिल्ली के अंग्रेजी दैनिक ' हिंदुस्तान टाइम्स ' संवाददाता  होशियारी और फुर्ती से एक पर्चा उड़ा लिया था , जो शाम के संस्करण में छपकर आम जनता तक पहुंच गया था। अख़बार' वर्तमान ' कानपुर ने ११ अप्रैल १९२९ के अंक में पर्चे  के बारे में यह लिखा था कि इस पर्चे में अंग्रेज सरकार की नादिरशाही का भंडाफोड़ करते हुए सशस्त्र क्रांति का समर्थन किया गया हैं.
                        इतिहास को  बदल देने वाले इन जोशीले  पर्चों के माध्यम से देश के कोने कोने में '' इंकलाब जिंदाबाद ''की यलगार  गूँज उठी थी ,जिसने  ब्रिटिश हुकूमत को हिंदुस्तान से लन्दन तक दहला दिया था और इस ऐतिहासिक घटना से  व्याप्त सम्रग क्रांति के फलस्वरूप अन्तः  १८ वर्ष बाद अंग्रेजो को भारत छोड़कर जाना पड़ा।

                                                                                                                               - अनिल वर्मा
                                                                                                  - 

गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत का वो दिन

                
                                                                                                                         -अनिल वर्मा
वह स्थान जहाँ विद्यार्थी जी को अंतिम बार देखा गया
बन्दुकेश्वर मंदिर के ऊपर स्थित विद्यार्थी जी का स्मारक
 

             

      २३ मार्च १९३१ को भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु की फाँसी होने की खबर से पूरे देश में बेहद सनसनी फैल चुकी थी , कानपुर नगर कांग्रेस कमेटी ने २४ मार्च को शहर बंद का आव्हान किया था , हिन्दुओं ने तो अपनी दुकाने बंद रखी थी ,पर कुछ मुस्लिम दुकानदारो की दुकानों पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओ को पिकेटिंग करना पड़ी थी और दोनों सम्प्रदायों के मनमुटाव का लाभ उठाकर ब्रिटिश हुकूमत ने  फूट डालो राज करो की रणनीति से इस राष्ट्रवादी आंदोलन को हिन्दू मुस्लिम दंगो का विकराल रूप दे दिया।

                               गणेश शंकर विद्यार्थी जी सयुंक्त प्रान्त कांग्रेस कमेटी के प्रेसिडेंट होने के नाते २७ मार्च को कांग्रेस के राष्ट्रीय सम्मलेन में कराची जाने वाले थे , पर इस विषम स्थिति में उन्होंने कानपुर में ही रुकने का निर्णय लिया, क्योंकि कानपुर में वही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे ,जो  हिन्दू मुस्लिम दोनों को समान रूप से प्रभावित कर सकते थे । परन्तु विद्यार्थी जी के अनुरोध के बावजूद स्थानीय अधिकारीयों ने दंगाइयों पर अंकुश लगने की दिशा में कोई भी कारगर कदम नहीं उठाया , अपितु  यह कहना उचित होगा कि प्रशासन ने ३ दिन तक दंगाइयों को खुली छूट दे दी थी। विद्यार्थी जी ने प्रताप का एक विशेष अंक निकालकर लोगो से कौमी एकता बनाये रखने की अपील की , पर २४ मार्च १९३१ को कानपुर  में भयानक सांप्रदायिक दंगा हुये  , जिसमे ५०० लोग मारे गए , हज़ारो घायल हुए ,हज़ारो मकान और दुकाने नष्ट कर  दी गयी।  अपनी जान की परवाह किये बिना विद्यार्थी जी दंगाग्रस्त  इलाकों से लोगो को बचाने में जुट रहे और उन्होंने सैकड़ो हिन्दू और मुसलमानों की जान बचायी।

                                    २५ मार्च को दंगे काबू से बाहर हो गए , उस दिन विद्यार्थी जी अपने घर से सुबह ९ बजे ही यकायक निकल गए थे ,न तो उनके सिर पर टोपी थी और न ही पैरो में जूता। बादशाही नाके पर सड़क अवरोध ,कोतवाली पर ईट पत्थर पथराव  ,कोतवाली, मूलगंज , ठठेरी बाजार ,चूक बाजार , सराफे में तनाव की खबरों के बावजूद भी प्रशासन ने शांति बनाए रखने के कोई गम्भीर कदम नहीं उठाये।  जब  दिन के डेढ़ बजे मेस्टन रोड में भीषण लूटपाट और आगजनी होने लगी थी ,तब सच्चे और बहादुर विद्यार्थी जी ने वहाँ लोगो को  समझाने का प्रयास किया , पर दंगा फसाद जोर पकड़ गया था , २ दंडाधिकारियों की मौजूदगी के बावजूद मेस्टन रोड के मंदिर और चौक बाजार की मस्जिद में आग लगा दी गयी , शाम ४-५ बजे तक स्थिति और विकराल हो गयी ,  विद्यार्थी जी ने उस दिन श्रीमती इंदुमती गोयनका को लिखे गए अपने अंतिम पत्र में दुखी मन से यह यह लिखा था कि 'पुलिस का ढंग बहुत निंदनीय हैं , मंदिर मस्जिद में लोगो को आग लगते हुए , लोगो के साथ मारकाट होते और दुकाने लुटते हुए पुलिस खड़ी खड़ी देखती रहती हैं '. डिप्टी कलेक्टर तकी अहमद ने  जाँच समिति में दिए गए अपने बयान  में यह बताया था कि  जब वह कुछ सिपाहियों के साथ घटनास्थल पर पंहुचा ,तब मारकाट इटावा बाजार तक फैल चुकी थी , गणेशशंकर विद्यार्थी ने वहां पहुंचकर काफी मुस्लिम लोगो की जान बचाई थी , फिर इटावा बाजार में दंगा करने वाली भीड़ ने बंगाली मोहाल की ओर जाकर भयानक हत्याएं की, विद्यार्थी जी ने आगजनी के बीच बहुत से मुस्लिमो को जलते हुए मकानों से बाहर निकालकर बचाते हुए रामनारायण बाजार पहुंचाया था ।

                       तत्पश्चात् गणेशशंकर विद्यार्थी मिश्री बाजार और मछली बाजार होते चौबेगोला पहुंचे , तो उनके साथ जो २ सिपाही डयूटी पर थे , वे भी उन्हें अकेला छोड़कर चले गए , पर विद्यार्थी फिर भी कुछ कार्यकर्ताओ के साथ हालात से जूझते रहे , वह  अपने हितैषी कार्यकर्ताओ की अनसुनी करके दंगाई इलाके में अकेले ही घुस गए , चश्मदीद  माधो प्रसाद के आँखों देखे विवरण अनुसार ,विद्यार्थी जी चोबेगोला ३-४ बजे के बीच पहुंचे थे , वह स्थान मेस्टन रोड की मस्जिद के समीप ही था ,वहां दंगो ने भीषण रूप धारण कर  लिया था , कुछ कार्यकर्ताओं ने भीड़ को शांत करने के लिए उन्हें कुछ बोलने के लिए कहा। कांग्रेस जाँच समिति के निष्कर्षो के अनुसार वहाँ पर भीड़ में करीब २०० मुसलमान थे। भिक्खू अखाड़ा के चुन्नी खां खलीफा और अन्य ५-७ प्रतिष्ठित व्यक्तियों से विद्यार्थी जी ने हाथ मिलाया था तथा उन्हें गले से लगाया था , फिर चुन्नीखां और उनका एक साथी उन्हें एक अन्य दंगाई इलाके में ले गए. चौबेगोला पहुंचकर तो वह एकदम अकेले रह गये थे।

                                        एक और चश्मदीद गवाह गणपतसिंह के बयान के मुताबिक गणेशशंकर विद्यार्थीदंगा पीड़ितों को बचाने के प्रयास में जनसमुदायों के बीच फँस गए थे , एक झुण्ड मकरमण्डी की और से आ रहा था और दूसरा नए चौक से।  यही स्थान था जहाँ भीड़ में से कुछ लोगो ने उन पर लाठी प्रहार किया था ,क्योंकिं वह सैकड़ो मुसलमानो का जीवन बचा चुके थे ,इसलिए एक प्रमुख मुस्लिम कार्यकर्त्ता के हस्तछेप पर उन्हें छोड़ दिया गया। परन्तु सहसा दूसरी और से आ रही भीड़ ने उन्हें गली की ओर  घसीटना शुरू किया , उन्होंने अपने बचाव में कहा कि '' वह भागेंगे नहीं, एक दिन तो उन्हें भी मरना ही हैं , अतः वह मौत से नहीं डरेंगे और कर्तव्यपालन करेंगे '', पर उनके विनीत शब्दों का दंगाईयो पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा , उन्होंने चारो ओर से उन पर प्रहार किये । उनका एक साथी वही मार दिया गया ,दूसरे कार्यकर्त्ता को भी छुरा भौक दिया गया। जब उनका नंबर आया तो , एक हत्यारा उनकी ओर बढ़ा ,विद्यार्थी जी ने अपना सिर नीचा कर लिया ताकि वह उन्हें मार सके। उसी समय उनकी पीठ में छुरा भौक दिया गया , एक अन्य हत्यारे ने उन पर खंता (कुल्हाड़ी ) से वार किया ,जिससे वह धराशाही हो गए। फिर दो दिन बाद अस्पताल में लाशों के ढ़ेर में से उनके सड़ गल गए पार्थिव शव को  बमुश्किल पहचाना गया ।

                                  उन्होंने  मात्र ४१ वर्ष की अल्पायु में हिन्दू मुस्लिम कौमी एकता के  लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी थी । गत २३ मार्च २०१६ को मैने भगतसिंह के अनन्य साथी क्रांतिकारी  डॉ. गयाप्रसाद के सुपुत्र क्रांति कुमार कटियार के साथ गहन शोध कार्य कर , इन सब उल्लेखित स्थानों को चिन्हित करके , इतिहास ८५ साल बाद पुनर्विलोकन करने की कोशिश की थी , तो यह पाया कि अब भी वहां सन १९३१ के दौर के यह सब मोहल्ले  तो यथावत मौजूद हैं , चौबे गोला में जिस जगह विद्यार्थी जी ने अपना अंतिम संदेश दिया था ,वहाँ अब श्री बाबा बन्दुकेश्वर हनुमान जी का एक मंदिर हैं , जिसके ऊपर के भाग में अशोक चिन्ह और  उसके नीचे विद्यार्थी जी एक छोटी सी प्रतिमा बनी हैं  उसके नीचे प्रताप में स्थायी रूप से छपने वाला एक शेर लिखा हुआ हैं।  बस यही इस महान देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी का  गुमनाम स्मारक , जहां शायद ही कोई पहुँच कर श्रद्धासुमन अर्पित कर पाता  होगा।  गणेश शंकर विद्यार्थी जी  वतन की आज़ादी और सांप्रदायिक एकता के लिए शहीद हो गए, पर आम हिन्दुस्तानी के दिल में वह सदा अमर रहेंगे और उनके महान बलिदान और देशप्रेम की अनुपम गाथाएं  युगों तक  देशवासियो को प्रेरणा देती रहेगी।

                                                                                                       - अनिल वर्मा

विलुप्त हो चुका है : प्रताप प्रेस का 'प्रताप'


                         गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रताप प्रेस

                                                                                      - अनिल वर्मा

कटियार जी के साथ प्रताप में

प्रताप एक ओर चित्र

प्रताप का बंद दरवाजा
प्रताप पिछला दरवाजा


प्रताप सामने से एक विहगम चित्र

                       

                                         कानपुर के फीलखाना स्थित प्रताप प्रेस की लगभग खंडहर में तब्दील हो चुकी ऐतिहासिक इमारत भारतीय क्रांतिकारी युग की गवाह रही है , पर यहाँ की फ़िज़ाओं में अब भी अमरशहीद गणेशशंकर विद्यार्थी , भगत सिंह , चन्द्रशेखर आज़ाद ,अशफ़ाक़ उल्ला ,रामप्रसाद बिस्मिल आदि के त्याग और बलिदान की खुशबू समायी हुई हैं। महान क्रांतिकारियों की कर्मस्थली रहा ऐतिहासिक प्रताप प्रेस अब कठिन दौर से गुजर रहा है। सुनहरे इतिहास के नाम पर अब यहां सिर्फ प्रेस के बंद पड़े जर्जर दरवाजे ही बचे है।
                                                                          
                                   आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने‘ 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से प्रताप हिंदी साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया था। विधार्थी जी ने महाराणा प्रताप के उच्च त्याग और स्वातंत्र्य-प्रेम, आत्म गौरव से प्रेरित होकर अपने पत्र का नाम ‘प्रताप’ रखा था। ‘प्रताप’ के प्रथम अंक में मुखपृष्ठ पर , आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी द्धारा यह अमर पंक्तियां लिखी गयी थी -

                                            ' जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
                                                             वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।’

                                       प्रताप का का कुल बजट, चार भागीदारों गणेशशंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, शिवनारायण मिश्र और यशोदानंदन  के सौ-सौ रुपए के  हिस्से जोड़कर उतना ही था, जितने में आज चार किलो मूंगफली आती है। संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी ही  थे।  अखबार की शुरुआत टेब्लॉयड से बड़े आकार में 16 पृष्ठों से हुई। उस समय ‘प्रताप’ का कार्यालय शहर के एक छोर पर पीली कोठी में रखा गया था। सोलह अंकों के बाद, छपाई का भुगतान समय से न हो पाने के कारण यह व्यवस्था रुक गई। यशोदानंदन ने अपना हिस्सा भी अखबार से वापस ले लिया। लगभग साल भर बाद नारायण प्रसाद अरोड़ा भी अपना निजी अखबार निकालने के इरादे से अलग हो गए। बाकी बचे विद्यार्थी जी और शिवनारायणजी। उनका तो एक ही संकल्प था ‘प्रताप’। विद्यार्थी जी के पास  पैसा नहीं था ,अपना प्रेस नहीं था , दूसरे प्रेस वाले छापने को तैयार नहीं , पर विद्यार्थी जी इससे जरा भी विचलित न हुए। उन्होंने जल्द ही  एक छोटा-सा अपना प्रेस भी खड़ा कर लिया और प्रेस का  कार्यालय भी पीली कोठी से उठकर फीलखाना वाली बिल्डिंग में आ गया, जो ‘प्रताप’ की अंतिम सांस (1964) तक उसका प्रकाशन-स्थल रहा और इसे ‘प्रताप प्रेस’ के नाम से जाना जाता रहा। वैसे था वह भी किराए पर ही। इन परिवर्तनों के बावजूद ‘प्रताप’ की आर्थिक दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। कुर्सी मेज खरीदने की सामर्थ्य न थी, दरी और चटाई पर बैठकर संपादन, प्रबंधन और डिस्पैच के सब काम अंजाम दिए जाते। संपादक, मैनेजर से लेकर चपरासी और दफ्तरी तक का काम गणेशजी और मिश्रजी को स्वयं करना पड़ता था । 


                                 गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही समर्पित है।उन्होंने ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया बिगुल फूँका था और बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया, जो हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं, जिन्हे पढकर लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे. प्रताप की आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखको व संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दी, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा।
 
                      प्रताप की पहचान लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से सरकार विरोधी बन गई थी और कानपुर के तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया।विद्यार्थी जी को ‘प्रताप‘ में प्रकाशित समाचारो के कारण ही १९२१ से १९३१ तक पाँच बार जेल जाना पड़ा , विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, परन्तु उनके भीतर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में निर्मित पुस्तकालय में सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चौरी-चौरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता पुष्प की अभिलाषा प्रताप अखबार में ही मई १९२२ में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।
                                             प्रताप में ना  केवल क्रान्तिकारी लेखो का प्रकाशन होता था , बल्कि यह क्रांतिकारियों की अभेद्य शरणस्थली भी था , प्रेस की अनूठी बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था।  बनारस षडयंत्र केस के फरार अभियुक्त सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं. राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली थी । अमर शहीद भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक पत्रकारिता का कार्य किया।   उन्होंने दरियागंज दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए दिल्ली की यात्रा करने के बाद ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया था ।   चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भेंट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। १९१६ में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे थे ।
                                                     भगतसिंह और उनके साथियों की शहादत के उपरांत २५ मार्च १९३१ को चौबे गोला कानपुर में भीषण दंगे में घिरे हुए परिवारों की रक्षा के लिए विद्यार्थी जी ने अपने जीवन को बलिदान कर दिया था। खून के प्यासे दंगाइयों से घिरे होने पर भी विद्यार्थी जी ने अंत में जीवटता पूर्वक यह कहा था- ‘ यदि मेरे खून से ही सींचे जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता का पौधा बढ़ सके और तुम्हारे खून की प्यास बुझ सके, तो मेरा खून कर डालो।' उनके निधन पर   महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में लिखा था ‘ उनका खून हिन्दु-मुसलमानों के दिलों को जोड़ने के लिए सीमेंट बनेगा।' 
                                  
                                              विद्यार्थी जी की शहादत के बाद से ही प्रताप प्रेस का चमक खोने का सिलसिला शुरू हो गया । विद्यार्थी जी की मौत के बाद बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' प्रताप प्रेस के संपादक बने।उनके बाद बिहारी लाल ओमर को संपादक बना दिया गया।  कुछ ही दिनों बाद प्रताप प्रेस में ताला पड़ गया।  जब यहां से प्रिंटिंग बंद हो गई तो भवन के असली मालिक रहे शिव नारायण मिश्रा के बेटे ने भवन को अपने कब्जे में ले लिया। जहां पर छपाई होती थी, उस कमरे का दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया गया। कुछ समय बाद भवन के अलग- अलग हिस्सों को अलग- अलग लोगों को बेच दिया। गत 23  मार्च 2016 को भगतसिंह की शहादत दिवस पर, उनके उनके साथी रहे डॉ. गयाप्रसाद के सुपुत्र क्रांति  कुमार कटियार के साथ जब मैं फीलखाना कानपुर की सकंरी गलियों में स्थित प्रताप प्रेस देखने गया ,तो यह देखकर मन दुःखित हो गया कि इतिहास के पन्नों में इतना अहम होने के बाद भी प्रताप प्रेस की आज कोई सुध लेने वाला नहीं है,। क्रान्तिकारी युग की मशाल रहा यह भवन अपनी बदहाली पर आसूं बहाता शिकस्त हालत में मिटने की कगार पर आ गया हैं ,यह विडम्बना है कि स्वाधीनता उपरांत भी प्रताप और विद्यार्थी जी की यादों को संजोने के लिए देश और समाज ने कुछ भी नहीं कर सका है ।विद्यार्थी जी को पत्रकारिता का पुरौधा मानने वाले नामी गिरामी और धनवान अख़बार प्रताप प्रेस के भवन पर एक बोर्ड तक नहीं लगवा पाये हैं . कविवर सनेही जी के शब्दों में हम कह सकतें हैं-  
          
                                                     ''  दीवान-ए-वतन गया, जंजीर रह गई,                                 
                                                     चमकी चमक के कौन की तकदीर रह गई।                                   
                                                     जालिम फलक ने लाख मिटाने की फिक्र की,                                      
                                                     हर दिल में अक्स रह गया तस्वीर रह गई। ''

                                                                                                                            - अनिल  वर्मा


पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था।
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पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था
- See more at: http://www.patrika.com/news/political/today-is-ganesh-shankar-vidyarthi-death-anniversary-1013131/#sthash.diMXLe9N.dpuf


पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था।
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पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी,क्रांतिकारी कार्य करने केलिएपांच बार सश्रम कारागार अंग्रेजी शासन ने दिया
गणेशशंकर विद्यार्थी आज ही के दिन 25 मार्च सन 1931 को कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। इसी दंगे में उनकी मौत हो गई। उनका शव अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।
जीवन-
गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू तथा फ ारसी के अच्छे जानकार थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के मुंगावली में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, इसके साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऎसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऎसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऎसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे।
पत्रकारिता के महान पुरोधा थे गणेशशंकर विद्याथी
किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रूचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रूचि दिनों दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे।
महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे। विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में "हमारी आत्मोसर्गता" नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादक हिन्दी के विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आये।
द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रूझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र "अभ्युदय" से भी जुड़ गये। इन समाचार पत्रों से जुड़े और स्वाधीनता के लिए समर्पित पंडित मदन मोहन मालवीय, जो कि राष्ट्रवाद की विचारधारा का जन जन में प्रसार कर सके। अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर अंतत: विद्यार्थी जी ने 9 नवम्बर 1913 से "प्रताप" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर "प्रताप" का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऎसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत "झण्डा ऊंचा रहे हमारा" है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी ने जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था।
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