प्रखर क्रांतिवीर  शचीन्द्र नाथ बख्शी 

                                                                                       -अनिल वर्मा 
 
                                मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए सभी बाधाओ को तोड़कर  अपना सर्वस्व बलिदान करते हुए सतत बढ़ते  रहना  क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ बख्शी क़ी अनूठी विशेषता थी। वह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख संगठनकर्ता भी थे , उन्होंने झाँसी और बनारस की माटी में से मोती तराश कर भारतमाता को क्रांतिपथ पर  देश के लिए मर मिटने वाले ऐसे अनेक सपूत दिए थे , जिनका हमारे स्वाधीनता  संग्राम में महान योगदान रहा है। शचीन्द्र नाथ बक्शी जी को प्रख्यात काकोरी ट्रैन डकैती केस में कालापानी की सजा हुई थी।  
                                                               बक्शी जी का जन्म २५ दिसम्बर १९०४ को संयुक्त प्रांत के बनारस शहर में हुआ था। उनके पिता मूलत: बंगाल  के फरीदपुर जिले के रहने वाले थे aur बाद में बंगाल से आकर संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के शहर बनारस में बस गये .उन्होंने १९२१ में एंग्लो बंगाली हाई स्कूल से मेट्रिक की परीछा उत्तीर्ण की थी .तब तक पूरे देश में स्वाधीनता के संघर्ष की चेतना जाग्रत हो चुकी थी और बक्शी जी के मन में भी देशप्रेम की प्रचंड ज्वाला प्रज्वलित हो गयी थी , उन्होंने देशहित को सर्वोपरि मानते हुए अपनी पढ़ाई  को त्याग दिया , असहयोग आंदोलन की नाकामी के बाद वह क्रान्ति पथ पर अग्रसर हो गए , उन्होंने अपनी विचारधारा को  मजबूत बनाने के लिए बनारस में व्यायाम शालाओ में जाना शुरू कर दिया। १९२३ के दिल्ली के स्पेशल कांग्रेस अधिवेशन में वह क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल  और जोगेश चंद्र चटर्जी के संपर्क में आने के बाद  ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के लिये गठित हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन नामक क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल हो गए   ।  फिर उन्होंने  कुछ दिनों झाँसी से निकलने वाले एक अखबार का सम्पादन भी किया।
              बक्शी जी ने सेण्ट्रल हेल्थ यूनियन के बैनर तले  बनारस के नवयुवकों को संगठित किया और तैराकी की कई प्रतियोगिताएँ आयोजित कीं ,इसकी प्रतियोगिता में विजेता हुए केशव चक्रवर्ती  भी क्रांतिकारी दल के सदस्य थे , उन्हें क्रांतिकारी  गतिविधियों में आवश्यकता की पूर्ति के लिए जर्मनी से माउज़र पिस्तौल लाने का दायित्व सौपा गया , केशव जर्मनी में आयोजित तैराकी स्पर्धा में भाग लेने के बहाने जर्मनी गए  ऒर वहां उन्होंने माउज़र पिस्तौलों का सौदा पक्का कर लिया। सन १९२५ में जुलाई के तीसरे सप्ताह में हथियारों का वह पार्सल लेकर जर्मनी का एक जहाज समुद्र के रास्ते भारत आने वाला था, जिसे ब्रिटेन की समुद्री सीमा से दूर समुद्र में नगद राशि देकर मॉल छुड़ाना था।  धन की व्यवस्था  के लिए सहारनपुर लखनऊ पैसेंजर ट्रैन से जाने वाला अंग्रेजी खजाना लूटने की योजना बनायीं गयी।  बख्शी जी यह उत्तरदायित्व सौप गया कि वह अपने साथ राजिंदरनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला को ले जाकर काकोरी स्टेशन से दूसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हो और आगे की योजना को संचालित करे। ९ अगस्त १९२५ को शचीन्द्र नाथ बख्शी और उनके साथियो ने काकोरी और आलमपुर स्टेशन के बीच में ट्रैन रोक कर गार्ड के डिब्बे में रखे  संदूक को तोड़कर उसमे रखा खज़ाना लूट लिया।  बख्शी जी उससे मिले पैसो का कुछ भाग लेकर कलकत्ता चले गए और उन्होंने किराये पर ली गयी बोट से समुद्र में जाकर बिल्टी और पैसे देकर पार्सल प्राप्त क्र लिए ,जिसमे ५० माउज़र पिस्तौल थी , बाद में जब चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में लड़ते लड़ते शहीद हुए थे  तब  उनके पास इन्ही पिस्तौलों में से एक पिस्तौल पायी गयी थी। 

                               काकोरी ट्रैन डकैती की साहसिक कारनामे ने ब्रिटिश हूकूमत को हिला कर रख दिया। पुलिस की सरगर्मियां तेज हो गयी और २६ सितम्बर १९२५ तक आज़ाद , अशफ़ाक़ उल्ला और बख्शी जी को छोड़कर अन्य सभी क्रान्तिकारी साथी गिरफ्तार हो गए थे । पर शचीन्द्र नाथ बख्शी जी पुलिस को चकमा देने में सफल रहे ,वह  घर से फरार हो गए ,वह अपना पहचान चिन्ह अपना दाँत निकलवा कर और हुलिया बदलकर बम्बई पहुँच कर बंदरगाह से मॉल उतरने वाले गोदी मजदूर बन गए , वह चाहते तो गोदी कर्मचारी के रूप में जहाज में सवार होकर आसानी से विदेश भाग सकते थे ,पर वह कुछ अन्य साथी बटोरकर दल का पुनर्गठन करना चाहते थेबिहार में पार्टी का कार्य छुपे तौर पर करते रहे। उनको भागलपुर  में पुलिस तब  गिरफ्तार कर सकी , जब काकोरी-काण्ड के मुख्य मुकदमे का फैसला हो चुका था। उन्हें और अशफाक को सजा दिलाने के लिये लखनऊ के स्पेशल जज जे॰आर॰डब्लू॰ बैनेट की अदालत में काकोरी षड्यन्त्र का पूरक मुकदमा दर्ज़ हुआ था और  13 जुलाई 1927 को उन्हें आजीवन कारावास अर्थात काला पानी की सजा दी गयी। इसी मुकदमें में  अशफ़ाक़ उल्ला खां को फाँसी की सजा हुई थी

                                बख्शी जी का जेल जीवन  भी जीवटता और संघर्ष से परिपूर्ण रहा , उन्होंने १९३७ में राजबंदियों की रिहाई के लिए आमरण अनशन किया था ,जिससे देश भर में खलबली मच गयी , अंततः बम्बई में कांग्रेसी सरकार  बनने के बाद अन्य क्रांतिकारियों के साथ बख्शी जी भी जेल के बाहर आ गए , फिर उन्होंने कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर निष्ठा से काम किया ,वह बहुत दिनों तक उत्तरप्रदेश कांग्रेस समिति के संगठन मंत्री रहे ,स्वराज्य प्राप्ति  के उपरांत उन्होंने भीषण गरीबी में जीवन गुजारा था , पर  किसी से कोई शिकायत नही की।   बाद में वह जनसंघ में शामिल हुए और बनारस से उ. प्र. विधान सभा सदस्य निर्वाचित हुए , पर राजनीति में रहकर भी उन्होंने अपने उच्च आदर्शो और नैतिक मूल्यों से कभी कोई समझौता नहीं किया।   

                                  शचीन दा ने अपने जीवन काल में क्रान्तिकारी संस्मरणों पर आधारित दो पुस्तकें  "क्रान्ति के पथ पर: एक क्रान्तिकारी के संस्मरण" एवं  "वतन पे मरने वालों का "भी लिखीं, जो उनके मरने के बाद ही प्रकाशित हो सकीं।  सुल्तानपुर  (उत्तर प्रदेश) में 80 वर्ष का आयु में 23 नवम्बर 1984 को उनका  निधन हो गया था । भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में  एक प्रमुख क्रान्तिकारी के  रूप में उनका  महान योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा ।

                                            
                                                                                                                   -अनिल वर्मा

No comments:

Post a Comment