क्रांतिकारी आज़ाद और उनका अचूक निशाना


                                                                                       -अनिल वर्मा
                                                                                

     



                                         



                     भारत माता की स्वाधीनता के लिए अटूट संघर्ष और बलिदान करने वालो में महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम सर्वोपरि है। क्रान्ति का यह आलौकिक मसीहा गुलाम देश में रहते हुए भी जीवनपर्यन्त आज़ाद रहा और अपना नाम अंत तक सार्थक किया।

                                     महान क्रांतिवीर आजाद का सम्पूर्ण जीवन साहस ,वीरता और राष्ट्रप्रेम की अनुपम मिसाल है। वह सशस्त्र क्रांति के महानायक थे , उनका यह मानना था कि जीवन के सुख ऐश्वर्य और क्रांतिपथ सर्वथा भिन्न है। वह दल के कमांडर-इन चीफ के रूप अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ एक फौजी की भाँति निशानेबाज़ी के  सतत अभ्यास  का प्रयास करते थे।  आज़ाद की सबसे बड़ी अभिरुचि थी निशानेबाज़ी , इसके वह दीवाने  थे , वह यह कहते थे कि  एक क्रान्तिकारी को योग्य सैनिक होना चाहिए ,अन्यथा संकट आने पर वह मात खा सकता है। आज़ाद  अपने बाल्यकाल में भीलों के साथ तीर कमान के सतत अभ्यास से निपुण  निशानेबाज़ हो गए थे , यह भी कहा जाता है कि उन्होंने किशोरावस्था में बांसों के झुरमुट में छुपकर शेरो का शिकार किया था। कालांतर में क्रान्तिकारी जीवन में तीर कमान की जगह पिस्तौल ने ले ली  , तब उनका निशाना इतना अचूक हो गया था कि वह दूर रखी एक लौंग को भी आसानी से गोली से उड़ा सकते  थे। यह रोचक कल्पना की जा सकती है कि यदि आज़ाद  उस दौर  के ओलिंपिक या राष्ट्रमंडल खेल में निशानेबाज़ी के मुकाबले में भाग ले रहे होते , तो निसंदेह  स्वर्णपदक उनके गले में ही सुशोभित होता।

                         आज़ाद की अचूक निशानेबाज़ी की  गाथाएँ किवदन्तियाँ बन चुकी है।  लाहौर में एडीशनल एस.पी. सांडर्स के वध के समय भगतसिंह और राजगुरु का तेजी से पीछा कर रहे हवलदार चननसिंह की गिरफ्त से उन्हें बचा लेना आज़ाद के प्रिय माउज़र पिस्तौल का ही कमाल था , जब एक साथ तीन व्यक्त्ति पास पास इतनी तेज़ी से भाग रहे हो , तब निशाने की अल्प चूक भी अपने ही साथी को ढेर कर सकती थी , परन्तु  तनाव की उस विकट परिस्थिति में भी एकग्रता कायम रखकर तत्परता पूर्वक निशाना साधते हुए वांछित व्यक्ति को मार गिराना आज़ाद के बलबूते की ही बात थी।

               प्रख्यात क्रान्तिकारी यशपाल ने  अपनी पुस्तक '' सिंहावलोकन ' में आज़ाद के इस शौक का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आगरा में रहने के दौरान आज़ाद साथियों को   निशानाबाज़ी में पारंगत करने के लिए बुंदेलखंड के जंगलो में ले जाते थे ,इस काम में आज़ाद को जो अनुपम सुख मिलता था ,उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है , दूर किसी महीन चीज़ को सही निशाना लगाने से उन्हें काम से काम उतना संतोष होता था ,जितना कोई बहुत बड़ी उक्ति कह देने पर किसी कवि को हो सकता है या लाख दो लाख का सट्टा जीत लेने पर किसी मारवाड़ी को।

                               चन्द्रशेखर आज़ाद जब अज्ञातवास में साधुवेश में छिपकर झाँसी के निकट ओरछा ,ढ़ीमरपुरा और खलियाधाना में रहे थे , तब वहाँ  ठाकुरो के साथ उनकी कई बार तीखी नोकझोक हो जाती थी ,पर निशानेबाज़ी में उन्हें कभी लज्जित नहीं होना पड़ा।  एक बार ओरछा नरेश वीर सिंह जू देव अपने दीवान हरबल सिंह के साथ जंगली सूअर  के शिकार पर गए थे , इक तगड़े बनैल सूअर को मारने में दीवान साहब  और उनके सभी मशहूर शिकारी नाकाम हो गए ,तब लंगोटी बाँधे एक हष्ठ पृष्ठ साधू हरिशंकर ब्रह्मचारी ने  शिकारियों के हास परिहास के बीच उनसे बन्दूक लेकर पहली ही गोली से सटीक निशाना लगाकर उस जंगली पशु का काम तमाम कर दिया था , वो चंद्रशेखर आज़ाद ही थे।

                           इन पंक्तियों के लेखक को उनके बाबा और कटनी (म. प्र. ) के प्रख्यात स्वाधीनता संग्राम सेनानी स्व. श्री मोतीलाल वर्मा अपने जीवनकाल में यह गर्व से बताते थे कि  वह सन १९२७-२८ में संगठन के काम से इलाहाबाद गए थे।  तब उनके साथी जगन्नाथ गुप्ता उन्हें बिना कुछ बताये जंगल में गंगा नदी के एक सुनसान किनारे पर ले गए थे , वहां आर्कषक व्यक्तित्व  का सुगठित कसरती बदन का एक नौजवान बड़ी तल्लीनता से एक विशेष प्रकार की मछलियों को , जो  पानी से हवा में फुदककर  क्षण भर के लिए बाहर आती थी ,उन्हें अपनी पिस्तौल की गोलियों का सटीक निशाना बना रहा था , बाद में पता चला कि वे आज़ाद ही थे।

                              लक्ष्यभेद में चन्द्रशेखर आज़ाद को अनुपम दक्षता प्राप्त  थी। यशपाल के अनुसार आज़ाद की दृष्टि में निशाने बाज़ी  सैनिक शिक्षा का आवश्यक अंग ही नहीं थी ,बल्कि उनका निजी  शगल  भी था। वह अक्सर अपने साथियों से कहते थे कि 'अबे बगडूस पिटपिटिया को जेब में डालकर फिरते रहोगे , प्रैक्टिस नहीं होगी , तो वक्त  पर गोली दो हाथ दूर जाएगी और दाँत निपोरते रह जाओगे। ' एक माँ को जितना स्नेह अपनी संतान से होता है , उतना   ही  ममत्व आज़ाद को अपनी प्रिय माउज़र पिस्तौल से था।  वह झाँसी में अपने योग्य शिष्य क्रान्तिकारी सदाशिव मलकापुरकर को स्नेहवश डपटते हुए यह कहते थे कि ' देख तू पकड़ा जायेगा या मर जायेगा तो उतनी हानि नहीं होगी , जितनी इस पिस्तौल के जाने से होगी। ' उनका जीवटता यह भी कहते थे  कि जब तक यह बमतुल बुखारा (आज़ाद ने अपनी पिस्तौल का यही विचित्र नाम रखा था ) मेरे पास है , किसने माँ का दूध पिया है जो मुझे जीवित पकड़ सके। वह मस्ती में कहते थे कि -

                                 '' दुश्मनों की गोलियों का हम सामना करेंगे ,
                                       आज़ाद ही  रहे है  आज़ाद ही रहेंगे । ''

                     आज़ाद के निशाने की अंतिम परीक्षा २७ फरवरी १९३१ की सुबह इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश हूकूमत से आखिरी मोर्चे पर लड़ते समय हुई थी।  जब उन्होंने स्वयं गंभीर रूप से जख्मी होते हुए भी अपनी पिस्तौल के शब्दभेदी अचूक निशाने   से एस. एस. पी. सर नॉट  बाबर का हाथ और इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह का जबड़ा बेकार कर दिया था , यह करिश्मा देखकर वहां मौजूद सी. आय. डी. के अंग्रेज इंस्पेक्टर जनरल ओकार्नर ने अनजाने में उनके निशाने की दाद देते हुए यह कहा  था '' व्हॉट ए वंडरफुल शॉट ''। चन्द्रशेखर आज़ाद ने करीब २५ मिनिट तक बहादुरीपूर्वक अंग्रेज सरकार के सैकड़ो सिपाहियों का अकेला मुकाबला  करते हुए, आज़ाद रहने के अपने प्रण को भी बखूबी निभाया और जब उनकी गोलिया खत्म हो गयी , तब उन्होंने दुश्मनों के सामने समर्पण करने की जगह अपनी कोल्ट पिस्तौल को  अपनी कनपटी में लगाकर उसकी अंतिम गोली को चलाकर आत्मबलिदान कर लिया  , क्रांति का देवता सो गया , मातृभूमि पर निसार एक रोशन चिराग बुझ गया ,  पर वह आज भी हर देशभक्त हिंदुस्तानी के दिल में जीवित है और सदा अमर रहेगे।

                                                                                                                         -अनिल वर्मा

अमरशहीद चंद्रशेखर आजाद की यादें और पांडव प्रपात पन्ना


 
                                                                                                          - अनिल वर्मा 

                  '' यादें नक्श हो जाये किसी पत्थर पर तो ,वे पत्थर दिल को पिघला सकती है।
                      यादें होती है , होते उनके पैर नहीं , पर पीढ़ियों तलक वे जा सकती है । ''


  
  
                                     अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत को अब  ८४ वर्ष गुजर चुके है ,यह तो ज़माने का दस्तूर है कि वक्त और शासन की फ़िज़ा में बदलाव के साथ लोगो के आदर्श बदल जाते है, पर आज़ भी  युवा पीढ़ी गर्व के साथ आज़ाद को अपना महानायक मानती  है और  वतन से मोहब्बत करने वाले हर हिंदुस्तानी के दिल में आज़ाद अब भी जीवित है.  यूँ तो आज़ादी के मतवाले क्रांतिवीर चन्द्रशेखर आज़ाद की कर्मस्थली झाँसी थी , पर वह लम्बे अर्से तक अज्ञातवास के दौरान ओरछा और उसके समीपवर्ती स्थानो पर बेखौफ आज़ाद रहकर समूचे देश में क्रान्तिकारी आंदोलन का कुशल संचालन करते रहे . जब ब्रिटिश हूकूमत उन्हें शिकारी कुत्तो की तरह देश भर में हर तरफ तलाश कर रही थी , तब निर्भीक आज़ाद बुंदेलखण्ड की पावन धरा पर स्वाधीनता की अलख जगाते घूम रहे थे .

                                                    देश की इकलौती हीरा नगरी पन्ना के निकट स्थित पन्ना नेशनल पार्क बाघों के लिए प्रख्यात है , इसी पार्क में सुन्दर वन और जलप्रपात के प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित  ' पांडव प्रपात '  नामक एक  मनोरम और रमणीक पर्यटनस्थल है। इस गौरवशाली इतिहास से बहुत कम ही लोग अवगत है कि यह  ऐतिहासिक स्थल अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद की दुर्लभ स्मृतिया संजोये हुए है . ४ सितम्बर १९२९ को इसी स्थान पर आज़ाद ने स्थानीय क्रांतिकारियों के साथ एक बैठक की थी , जिसमे प. रामसहाय तिवारी ,नारायण दास खरे , प्रेम नारायण , बिहारीलाल , जयनारायण एवं झाँसी के अन्य क्रान्तिकारी उपस्थित थे।  इस बैठक में ब्रिटिश हूकूमत के खिलाफ संघर्ष का आव्हान किया गया था और देश को आज़ाद कराने  का संकल्प लिया गया था।  यह संस्मरण सन १९७८ में लेखक श्री दशरथ एवं अन्य द्वारा प्रकाशित पुस्तक ''उत्कर्ष '' में छपा था , जो शब्दशः इस प्रकार था -

 '' नौगाव स्थित एजेंसी की एक सी.आय. डी. रिपोर्ट के अनुसार ४ सितम्बर १९२९ को छतरपुर से पन्ना जाने वाले मार्ग पर केन नदी के उस पार पाण्डव प्रपात नामक वनाच्छादित स्थल पर श्री चंद्रशेखर आज़ाद की अध्यक्षता में क्रांतिकारियों की बैठक हुई थी , जिसका आयोजन पंडित रामसहाय तिवारी ने किया था और जिसमे टीकमगढ़ निवासी नारायण दास  खरे व् प्रेम नारायण ,सरीला निवासी बिहारीलाल , महोबा निवासी जय नारायण ,आज़ाद तथा झाँसी के चार (एकत्र १३ ) लोगो ने भाग लिया था।  इस सभा का उद्देश्य उक्त प्रतिवेदन अनुसार ' शासन को उखाड़ फेंकना तथा शासन के शीर्षस्थ अधिकारीयों की हत्या कर देना था। ' इस सभा की सूचना प्रभुदयाल  नामक चरवाहे द्वारा दी गई थी। ''

                                       इस घटनाचक्र  का आंशिक उल्लेख लेखक श्री ए. यू. सिद्दीकी द्वारा अंग्रेजी में लिखित पुस्तक ''Indian Freedom Movement in Princely States of Vindhya Pradesh '' में भी किया गया हैपरन्तु यह  ऐतिहासिक तथ्य आज़ाद की शहादत के ८० वर्ष उपरांत  भी शासन और आमजन की जानकारी में नहीं आया था , पहली बार इन पक्तियों के लेखक  द्वारा  यह तथ्य पन्ना टाईगर रिज़र्व के फील्ड डायरेक्टर श्री आर. श्रीनिवास मूर्ति को लिखित पत्र दिनांक १-१-२०१० अनुसार  शासन के संज्ञान में लाया गया था , तब अपने कर्तव्य के प्रति सजग, ईमानदार और निष्ठावान I. F.S. अधिकारी श्री मूर्ति के सद्प्रयासों के परिणामस्वरूप २६जनवरी २०१० को पाण्डव प्रपात  पर आयोजित  एक गरिमामयी समारोह में कुछ फ्लैक्सो  पर आज़ाद के दुर्लभ चित्रों की  स्मारिका लगायी गयी थी , इसके उपरांत १५ अगस्त २०१० को उसी स्थान पर शासन द्वारा आज़ाद की  एक भव्य प्रतिमा स्थापित करायी  गयी और पाण्डव प्रपात  से जुड़े उनके संस्मरण को भी शिलालेख पर अंकित किया गया था , इसका अनावरण मध्यप्रदेश शासन के तात्कालीन राज्य मंत्री श्री ब्रजेंद्र प्रताप सिंह द्वारा किया गया था।  यह आशा है कि पांडव प्रपात पन्ना (म. प्र. ) में स्थित यह पाषाण प्रतिमा  अमरशहीद चन्द्रशेखर आज़ाद के महान त्याग और बलिदान की अनुपम गाथाओं से देशवासियों को युग युग तक प्रेरणा प्रदान करती रहेगी ।

                                                                              -  अनिल वर्मा