रविन्द्र जैन का निधन : संगीत के सुनहरे अध्याय का अंत 
                                                                                - अनिल वर्मा

                                 

हिंदी फिल्मो के जाने माने संगीतकार और गीतकार रवींद्र जैन का आज ९ अक्टूबर २०१५ को शाम ४ बजे मुंबई  के लीलावती अस्‍पताल  में ७१ साल की उम्र में निधन हो गया है. वह लंबे समय से बीमार थे और पिछले कई दिनों से यूरिन इन्फेक्शन से जूझ रहे थे। इसके बाद उन्हें किडनी में दिक्कत हो गई थी। उनका लीलावती अस्पताल में आईसीयू में इलाज चल रहा था। बीते रविवार को वे नागपुर में थे, लेकिन बीमारी की वजह से वहां होने वाले कंसर्ट में हिस्सा नहीं ले पाए। नागपुर के वोकहार्ट हॉस्पिटल से चार्टर्ड प्लेन के जरिए उन्हें लीलावती अस्पताल लाया गया था।

                पिता पंडित इन्द्रमणि जैन तथा माता किरणदेवी जैन के घर  रवींद्र जैन का जन्म २८  फरवरी १९४४  को यूपी के अलीगढ़ में हुआ था। वे जन्म से ही देख नहीं पाते थे। उनके पिता पंडित इन्द्रमणि जैन संस्कृत के जाने-माने स्कॉलर और आयुर्वेदाचार्य थे। वे बचपन से इतने कुशाग्र बुद्धि के थे कि एक बार सुनी गई बात को कंठस्थ कर लेते, जो हमेशा उन्हें याद रहती। परिवार के धर्म, दर्शन और अध्यात्ममय माहौल में उनका बचपन बीता। वे प्रतिदिन मंदिर जाते और वहाँ एक भजन गाकर सुनाना उनकी दिनचर्या में शामिल था। रवीन्द्र भले ही दृष्टिहीन रहे हों, मगर उन्होंने बचपन में खूब शरारतें की हैं।

                                             रवीन्द्र अपने नाम के अनुरूप बंगाल के  रवीन्द्र-संगीत की ओर आकर्षित हुए। ताऊजी के बेटे पद्म भाई के कलकत्ता चलने के प्रस्ताव पर वह फौरन राजी हो गए। पिताजी से जेबखर्च के ७५  रुपए और माँ से  चावल-दाल की कपड़े की पोटली लेकर वह कलकत्ता पहुंच गए फिल्म निर्माता राधेश्याम झुनझुनवाला के जरिए रवीन्द्र को संगीत सिखाने की एक ट्‌यूशन मिली। जिसमे मेहनताने में चाय के साथ नमकीन समोसा मिला । पहली नौकरी बालिका विद्या भवन में 40 रुपए महीने पर लगी। इसी शहर में उनकी मुलाकात पं. जसराज तथा पं. मणिरत्नम्‌ से हुई। नई गायिका हेमलता से उनका परिचय हुआ। वे दोनों बांग्ला तथा अन्य भाषाओं में धुनों की रचना करने लगे। हेमलता से नजदीकियों के चलते उन्हें ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कम्पनी से ऑफर मिलने लगे। एक पंजाबी फिल्म में हारमोनियम बजाने का मौका मिला। सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुति के १५१  रुपए तक मिलने लगे। फिर  संजीव कुमार के संपर्क में  आने के बाद कलकत्ता का यह पंछी उड़कर मुंबई आ गया।   

                       जब वह सन्‌ १९६८  में राधेश्याम झुनझुनवाला के साथ मुंबई आए ,तो पहली मुलाकात पार्श्वगायक मुकेश से हुई। रामरिख मनहर ने कुछ महफिलों में गाने के अवसर जुटाए। नासिक के पास देवलाली में फिल्म 'पारस' की शूटिंग चल रही थी।  संजीव कुमार ने वहाँ बुलाकार निर्माता एन. एन. सिप्पी से मिलवाया। रवीन्द्र ने अपने खजाने से कई अनमोल गीत तथा धुनें एक के बाद एक सुनाईं। श्रोताओं में शत्रुघ्न सिन्हा, फरीदा जलाल और नारी सिप्पी थे। अंततः उनका पहला फिल्मी गीत १४  जनवरी १९७२  को मोहम्मद रफी की आवाज में रिकॉर्ड हुआ। 

                            उन्होंने फिल्म सौदागर में उन्होंने मीठी यादगार धुनें बनाईं और स्वरबद्ध भी किया था ,जो लोकप्रिय हो गईं। फिर उन्होंने चोर मचाए शोर , गीत गाता चल , चितचोर  ,तपस्या ,  सलाखें , फकीरा ,दीवानगी और अंखियों के झरोखों में जैसी हिट फिल्मों का संगीत दिया था । एक महफिल में रवीन्द्र-हेमलता गा रहे थे, श्रोताओं में राज कपूर भी थे। उनका 'एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा' गीत सुनकर राज कपूर झूम उठे, बोले- 'यह गीत किसी को दिया तो नहीं?'  रवीन्द्र जैन ने तुरंत कहा, 'राज कपूर को दे दिया है।' बस, यहीं राज कपूर के शिविर में उनका प्रवेश हो गया । 

                              टी. वी. सीरियल ‘रामायण’, ‘श्रीकृष्णा’, 'लव कुश', 'जय गंगा मैया', 'साईँ बाबा' और 'धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान' सहित कई पॉपुलर शोज में म्यूजिक और आवाज दी। उन्हें बड़ा ब्रेक राज कपूर ने १९८५  में फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' में दिया था। इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेठ संगीतकार का फिल्‍मफेयर अवार्ड भी मिला था। इसके बाद ‘दो जासूस’ और ‘हिना’ के लिए भी उन्होंने म्यूजिक दिया। राजश्री प्रोडक्शन की 'नदिया के पार', 'विवाह' और 'एक विवाह ऐसा भी' जैसी कई सुपरहिट फिल्मों में भी उन्होंने म्यूजिक दिया था।
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                            रवींद्र जैन को भारत सरकार की ओर से पद्मश्री पुरस्कार दिया गया था.मेरा यह सौभाग्य है गत अक्टूबर २०१४ को मुझे उनसे सागर में एक कार्यक्रम में मिलने का मौका मिला था , तब उनके मृदु व्यवहार और सरलता का मै कायल हो गया था

रविन्द्र जैन ने मन की आँखों से दुनियादारी को समझा। उन्होंने सरगम के सात सुरों के माध्यम से  जितना समाज से पाया, कई  गुना अधिक अपने श्रोताओं को लौटाया। वे मधुर धुनों के सर्जक होने के साथ गायक भी रहे और अधिकांश गीतों की आशु रचना भी उन्होंने कर सबको चौंकाया है। मन्ना डे के दृष्टिहीन चाचा कृष्णचन्द्र डे के बाद रवीन्द्र जैन दूसरे व्यक्ति हैं जिन्होंने दृश्य-श्रव्य माध्यम में केवल श्रव्य के सहारे ऐसा इतिहास रचा, जो युवा-पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बन गया है। अपनी दुनिया, अपनी धुन में मगन रहने वाले रवींद्र ने एक बार कहा था कि वह संगीत के सुरों को अलग-अलग लोगों को करीब लाने का जरिया मानते हैं और अपने गीतों, अपनी रचनाओं से पीढ़ियों, सरहदों और जुबानों के फासले कम करना चाहते हैं।  रविंद्र जैन को भारतीय सिनेमा जगत में सबसे खूबसूरत, कर्णप्रिय और भावपूर्ण गीतों के लिए उन्हें सदैव जाना जाता रहेगा। 

        रविन्द्र जैन केकई लोकप्रिय आज भी लोग गुनगुनाते है , उनमे से चंद इस प्रकार है ……
    १-आज से पहले, आज से ज्यादा , २- अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे , ३-घुंगरु की तरह, बजता ही रहा हूँ मै , ४-गोरी तेरा गाँव बडा प्यारा, मैं तो गया मारा , ५- गूँचे लगे हैं कहने, फूलों से भी सुना हैं तराना प्यार का ,६- हर हसीन चीज का मैं लतबगार हूँ ,  ७-जब दीप जले आना, जब शाम ढ़ले आना ,८-तेरा मेरा साथ रहे ,९-तू जो मेरे सूर में, सूर मिला ले, संग गा ले , १०- गीत गाता चल, ओ साथी गुनगुनाता चल,११- श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम , १२- सजना है मुझे सजना के लिए , १३-ले तो आए हो हमें सपनों के गाँव में, १४-एक राधा एक मीरा, १५ - घुंघरू की तरह , १६- हुस्न पहाड़ों का।,१७- मैं हूं खुशरंग हिना , १८- कौन दिशा में लेके।

                                                                     - अनिल वर्मा  



१९६५ के भारत पाकिस्तान युद्ध का महानायक अब्दुल हमीद

         
    

                                                                                                                          - अनिल वर्मा
                                                                                                                                           
                                                                                                      
                    जब भी कोई वीर  सैनिक रणभूमि में अपने प्राणों को देश पर न्यौछावर करता है ,तो यह कहा जाता है कि वो देश के लिए शहीद हो गया गया और उसकी शहादत को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। पर विडंबना है कि सन १९६५ के भारत पाकिस्तान युद्ध में  अदम्य शौर्य और वीरता का परिचय देकर वतन के लिए शहीद होने वाले परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद की शहादत के ५० वर्ष पूर्ण होने पर के अवसर पर भी उन्हें याद तक नहीं किया गया है । भारत माता के इस महान सपूत ने   अद्भुत वीरता के साथ लड़ते हुए पाकिस्तान के  कुत्सित इरादों को तो ध्वस्त करते हुए आत्म बलिदान कर अपने लहू से इतिहास के पन्नों में अमिट दास्ताँ लिख दी थी और  यह भी साबित कर दिया कि जंग महज हथियारों से नहीं बल्कि हौसलों से लड़ी जाती है। ।

                              अब्दुल हमीद का जन्म १ जुलाई १९३३ को उत्तर प्रदेश में ग़ाज़ीपुर ज़िले के धरमपुर गांव के एक निर्धन मुस्लिम परिवार में  हुआ था । आजीविका के लिए दर्ज़ी का काम करने वाले मोहम्मद उस्मान के पुत्र अब्दुल हमीद की रूचि इस पैतृक कार्य में कतई नहीं थी। उन पर कुश्ती के दाँव पेंचों में रूचि रखने वाले पिता का प्रभाव था। लाठी चलाने , कुश्ती लड़ने , उफनती नदी को पार करने , गुलेल से निशाना लगाने में बालक हमीद पारंगत थे। वह  बचपन से ही परोपकारी और दूसरो की मदद करने वाले थे।वह किसी अन्याय को सहन नहीं कर पाते थे । एक बार जब किसी ग़रीब किसान की फसल बलपूर्वक काटकर ले जाने के लिए जमींदार के करीब ५० गुंडे उस किसान के खेत पर पहुंचे ,तो हमीद ने निडरतापूर्वक उनको ललकारते हुए खदेड़ दिया था । गाँव की मगई नदी में प्रचंड बाढ़  में डूबती हुई दो युवतियों के प्राण बचाकर भी हमीद ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया था ।

                              अब्दुल हमीद जीवन  सन १९५४ में २१ वर्ष की आयु में देश पर मर मिटने के जज्बे के साथ सेना में भर्ती हुए थे ।  वह 2दिसंबर१९५४ को ग्रेनेडियर्स इन्फैन्ट्री रेजिमेंट में शामिल किये गये थे। जम्मू काश्मीर में तैनात अब्दुल हमीद पाकिस्तान से आने वाले घुसपैठियों की खबर तो लेते हुए मजा चखाते रहते थे, ऐसे ही एक आतंकवादी डाकू इनायत अली को जब उन्होंने पकड़वाया ,तो प्रोत्साहन स्वरूप उनको प्रोन्नति देकर सेना में लांस नायक बना दिया गया। 1962 में जब चीन ने भारत की पीठ में छुरा भोंका ,तो अब्दुल हमीद को नेफा में तैनाती के कारण शत्रु को मार गिराने के अरमान पूरा करने का विशेष अवसर नहीं मिला पाया ।

                                           परन्तु जब 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। तब अब्दुल हमीद को पुनः अपनी जन्मभूमि के प्रति अपना कर्तव्य निभाने का मौका मिला । मोर्चे पर जाने से पूर्व, उन्होंने  अपने भाई झुन्नन से यह कहा था कि   ‘ पल्टन में उनकी बहुत इज्जत होती है जिनके पास कोई चक्र होता है, देखना हम जंग में लड़कर कोई न कोई चक्र जरूर लेकर लौटेंगे।” आखिर  उनकी भविष्यवाणी पूर्ण हुई।

                               09 सितंबर 1965 को वीर अब्दुल हमीद पंजाब के तरन तारन जिले के खेमकरण सेक्टर में सेना की अग्रिम पंक्ति में तैनात थे। तभी उन्हें खबर मिली कि पाकिस्तानी सेना अपने अभेद्य अमेरिकन पैटन टैको के साथ अमृतसर को घेर कर  अपने नियंत्रण में लेने  कूच कर रही  है, वहाँ  मौजूद भारतीय सैनिकों के पास न तो टैंक थे और न हीं अन्य बड़े हथियार ,पर  उनके पास था भारत माता की रक्षा के लिए लड़ते हुए मर जाने का बुलंद हौसला। अपनी योजना के अनुसार पैटन टैंकों के  फौलादी गोले बरसाते हुए दुश्‍मन फौज भारतीय सेना पर टूट पडी। भारतीय सैनिक अपनी साधारण "थ्री नॉट थ्री रायफल" और एल.एम्.जी. के साथ पैटन टैंकों का सामना करने लगे।  हवलदार अब्दुल हमीद के पास "गन माउनटेड जीप" थी ,जो पैटन टैंकों के सामने मात्र एक खिलौने की भांति थी। टैंकों के इस भीषण आक्रमण को रोकने में मृत्यु निश्चित है लेकिन हमीद को अपनी जान से ज्यादा देश प्यारा था। मौत का डर उन्हें कभी था ही नहीं। लिहाजा वो साहस के साथ अपने मोर्चे पर डटे गए ,उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया कि वो दुश्‍मन को एक इंच भी आगे नहीं बढने देगे।  वीरतापूर्वक जान की बाज़ी लगाकर हमीद ने अपनी जीप को टीले के समीप खड़ा कर दिया और अपनी गन से पैटन टैंकों के कमजोर अंगों पर एकदम सटीक निशाना लगाकर एक -एक कर धवस्त करना शुरू कर दिया। उनकी इस वीरता से अन्य सैनिको  का भी हौसला बढ़ गया और देखते ही देखते पाकिस्तान फ़ौज में भगदड़ मच गई। वीर अब्दुल हमीद ने आठ  पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट कर दिया । उस दिन भारत का "असल उताड़" गाँव "पाकिस्तानी पैटन टैंकों" की कब्रगाह बन गया। लेकिन भागते हुए पाकिस्तानियों का पीछा करते "वीर अब्दुल हमीद" की जीप पर एक गोला गिर जाने से वे बुरी तरह से घायल हो गए , पर उन्होंने ना तो हिम्मत हारी   और ना ही दुश्मनो को पीठ दिखाई , दुश्मनो के पाँव उखड़ गये और वो पीछे हटने लगे. इस बहादुर जवान ने करीब 9 घंटे चले इस मुठभेड़ मे पाकिस्तानियो को खेमकरण सेक्टर से आगे नही आने दिया। अन्ततः १० सितम्बर १९६५ की सुबह ५  बजे अब्दुल हामिद ने अंतिम साँस ली और भारत मां का  यह लाडला सिपाही वतन के लिए शहीद हो गए ।

                                  अब्दुल हमीद ने आत्मउत्सर्ग करके भी अपने भाई से किया हुआ वायदा निभाया , युद्ध समाप्ति के होने के पूर्व ही १६ सितम्बर १९६५ उन्हें असाधारण शौर्य  के लिए मरणोपरान्त भारतीय सेना के सर्वोच्च पदक  परमवीर चक्र से सम्मानित किये जाने की घोषणा की गयी , जिसे उनकी पत्नी श्रीमती रसूली बीबी ने प्राप्त किया था . कसूर क्षेत्र में बनी अमर शहीद वीर अब्दुल हमीद की समाधि देश पर मर मिटने की लाखों करोड़ों लोगों को यूं ही प्रेरणा देती रहेगी ।महज ३२ वर्ष की आयु में ही शहीद होने वाले इस जाबांज़  वाले अब्दुल हामिद की ५० वीं पुण्यतिथि पर उन्हें शत शत नमन है ,पर यह दुर्भाग्य है कि   भारत माता के  तमाम वीर सपूतों की तरह देश ने इस वीर सपूत के महान बलिदान को भी विस्मृत कर दिया गया है ।

                              '' पूजे न गए शहीद तो फिर आज़ादी कौन बचाएगा ,
                                फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचायेगा ''

                                                                                                                           - अनिल वर्मा








हाल में ही मेरी एक नयी पुस्तक '' वो चार जाबांज क्रांतिकारी '' भारत सरकार के प्रतिष्ठित प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली से प्रकाशित हुई  है। यह पुस्तक आज़ादी की लड़ाई के उन चार जाँबाज़ महान क्रान्तिकारी मास्टर अमीरचंद , मास्टर अवधबिहारी ,बालमुकुंद और बसंत कुमार विश्वास के बारे में है , जिन्होंने सन १९१२ में नई दिल्ली के चाँदनी चौक में भारत के वॉइसरॉय लार्ड हार्डिंग्स पर बम फेंककर ब्रिटिश हूकूमत को दहला दिया था , उन्हें मई १९१५ में फांसी दी गयी थी ,अतः  उनकी शहादत का इस शताब्दी वर्ष पर श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मैंने यह पुस्तक लिखी थी। यह विडम्बना है कि गत १०० वर्षो में उन पर आज तक कोई पुस्तक नहीं छप सकी है और सरकार ने इस शताब्दी वर्ष में भी कोई आयोजन नहीं कराया है। मैंने महामहिम उपराष्ट्रपति महोदय को पुस्तक का विमोचन करने हेतु अनुरोध पत्र भेजा था , उन्होंने भी असमर्थता व्यक्त  कर दी है ,हालांकि उन्होंने पुस्तक की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनाये प्रेषित की है।

मीरपुर  पुलिस चौकी से जुडी भगत सिंह एवं बी.के. दत्त की यादें 
                                                                            
                                                                                                                           -अनिल वर्मा 


                                                                                                                   
 




                                              वतन की आज़ादी के लिए आन बान और शान से अपनी जिंदगी कुर्बान करने वाले अमरशहीद भगत सिंह की स्मृतिया इतिहास की अनुपम धरोहर है। इस महान युगपुरुष की यादों से जुड़ा हर स्थल स्वाधीनता का पावन एवं वंदनीय तीर्थ  है ,जिस धरा पर उनके चरण पडे  ,उसकी पवित्र माटी मस्तक पर तिलक कर नमन किये जाने योग्य  है।

                                  भगत सिंह और उनके साथी क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त ने सुसुप्त भारतीय जनमानस को जाग्रत करने के लिए दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट किया था , उस मामले में दिल्ली की सेशंस कोर्ट ने दिनाक १२ जून १९२९ को पारित निर्णय अनुसार उन्हें आजीवन निर्वासन की सजा से दण्डित किया था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र प्रकरण में अन्य क्रांतिकारियों के साथ लाहौर में फ़ौज़दारी मुकदमा की सुनवायी होना थी ,इसके लिए भगत सिंह  को पंजाब की जिला जेल मियांवाली  और दत्त को सेंट्रल जेल  लाहौर भेजने का आदेश दिया गया था। उस मामले के विचारण में भाग  लेने के लिए और असेंबली बम केस में सजा भुगतने के लिए उन्हें दिल्ली से एक ही ट्रैन में अलग अलग डिब्बो में भेजा गया था. उस दौरान १४ जून १९२९ को उन्हें कुछ घंटे के लिए रात में डेराबस्सा के पिंड मीरपुर की एक पुलिस चौकी की हवालात में निरुद्ध रखा गया था . सन १८८१ की बनी यह प्राचीन पुलिस चौकी घग्घर रेलवे स्टेशन से महज़ २०० मीटर दूरी पर आज भी जर्जर हालत में मौजूद  है ।

                               शहीद भगतसिंह जागृति मंच पंचकुला के प्रधान जगदीश भगतसिंह एवं प्रख्यात इतिहासविद प्रो. एम. एम.जुनेजा की अगुवाई में हाल में एक प्रतिनिधि मंडल ने इस पुलिस चौकी का अवलोकन कर यहाँ परिचय पट्टिका लगाये जाने की मांग की है ,इस ऐतिहासिक तथ्य की जानकारी से मुझे हिसार के क्रान्तिकारी उपासक श्री विकास गोयल अवगत कराया है । यह संस्था और अन्य सम्बद्ध व्यक्ति इस शोधकार्य के लिए साधुवाद के पात्र  है।  वास्तव में सरकार को अमरशहीद भगत सिंह और क्रांतिवीर बटुकेश्वर दत्त की स्मृतियों से जुड़े इस ऐतिहासिक स्थल के निकट एक भव्य शहीद स्मारक बनाकर इसका समुचित प्रचार भी करना चाहिये ,ताकि हमारी भावी पीढ़िया इन महान क्रांतिकारियों के देशप्रेम और बलिदान की अनुपम गाथाओं से प्रेरणा अर्जित कर सके।
                                                                                                                           - अनिल वर्मा

क्रांतिकारी आज़ाद और उनका अचूक निशाना


                                                                                       -अनिल वर्मा
                                                                                

     



                                         



                     भारत माता की स्वाधीनता के लिए अटूट संघर्ष और बलिदान करने वालो में महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम सर्वोपरि है। क्रान्ति का यह आलौकिक मसीहा गुलाम देश में रहते हुए भी जीवनपर्यन्त आज़ाद रहा और अपना नाम अंत तक सार्थक किया।

                                     महान क्रांतिवीर आजाद का सम्पूर्ण जीवन साहस ,वीरता और राष्ट्रप्रेम की अनुपम मिसाल है। वह सशस्त्र क्रांति के महानायक थे , उनका यह मानना था कि जीवन के सुख ऐश्वर्य और क्रांतिपथ सर्वथा भिन्न है। वह दल के कमांडर-इन चीफ के रूप अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ एक फौजी की भाँति निशानेबाज़ी के  सतत अभ्यास  का प्रयास करते थे।  आज़ाद की सबसे बड़ी अभिरुचि थी निशानेबाज़ी , इसके वह दीवाने  थे , वह यह कहते थे कि  एक क्रान्तिकारी को योग्य सैनिक होना चाहिए ,अन्यथा संकट आने पर वह मात खा सकता है। आज़ाद  अपने बाल्यकाल में भीलों के साथ तीर कमान के सतत अभ्यास से निपुण  निशानेबाज़ हो गए थे , यह भी कहा जाता है कि उन्होंने किशोरावस्था में बांसों के झुरमुट में छुपकर शेरो का शिकार किया था। कालांतर में क्रान्तिकारी जीवन में तीर कमान की जगह पिस्तौल ने ले ली  , तब उनका निशाना इतना अचूक हो गया था कि वह दूर रखी एक लौंग को भी आसानी से गोली से उड़ा सकते  थे। यह रोचक कल्पना की जा सकती है कि यदि आज़ाद  उस दौर  के ओलिंपिक या राष्ट्रमंडल खेल में निशानेबाज़ी के मुकाबले में भाग ले रहे होते , तो निसंदेह  स्वर्णपदक उनके गले में ही सुशोभित होता।

                         आज़ाद की अचूक निशानेबाज़ी की  गाथाएँ किवदन्तियाँ बन चुकी है।  लाहौर में एडीशनल एस.पी. सांडर्स के वध के समय भगतसिंह और राजगुरु का तेजी से पीछा कर रहे हवलदार चननसिंह की गिरफ्त से उन्हें बचा लेना आज़ाद के प्रिय माउज़र पिस्तौल का ही कमाल था , जब एक साथ तीन व्यक्त्ति पास पास इतनी तेज़ी से भाग रहे हो , तब निशाने की अल्प चूक भी अपने ही साथी को ढेर कर सकती थी , परन्तु  तनाव की उस विकट परिस्थिति में भी एकग्रता कायम रखकर तत्परता पूर्वक निशाना साधते हुए वांछित व्यक्ति को मार गिराना आज़ाद के बलबूते की ही बात थी।

               प्रख्यात क्रान्तिकारी यशपाल ने  अपनी पुस्तक '' सिंहावलोकन ' में आज़ाद के इस शौक का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आगरा में रहने के दौरान आज़ाद साथियों को   निशानाबाज़ी में पारंगत करने के लिए बुंदेलखंड के जंगलो में ले जाते थे ,इस काम में आज़ाद को जो अनुपम सुख मिलता था ,उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है , दूर किसी महीन चीज़ को सही निशाना लगाने से उन्हें काम से काम उतना संतोष होता था ,जितना कोई बहुत बड़ी उक्ति कह देने पर किसी कवि को हो सकता है या लाख दो लाख का सट्टा जीत लेने पर किसी मारवाड़ी को।

                               चन्द्रशेखर आज़ाद जब अज्ञातवास में साधुवेश में छिपकर झाँसी के निकट ओरछा ,ढ़ीमरपुरा और खलियाधाना में रहे थे , तब वहाँ  ठाकुरो के साथ उनकी कई बार तीखी नोकझोक हो जाती थी ,पर निशानेबाज़ी में उन्हें कभी लज्जित नहीं होना पड़ा।  एक बार ओरछा नरेश वीर सिंह जू देव अपने दीवान हरबल सिंह के साथ जंगली सूअर  के शिकार पर गए थे , इक तगड़े बनैल सूअर को मारने में दीवान साहब  और उनके सभी मशहूर शिकारी नाकाम हो गए ,तब लंगोटी बाँधे एक हष्ठ पृष्ठ साधू हरिशंकर ब्रह्मचारी ने  शिकारियों के हास परिहास के बीच उनसे बन्दूक लेकर पहली ही गोली से सटीक निशाना लगाकर उस जंगली पशु का काम तमाम कर दिया था , वो चंद्रशेखर आज़ाद ही थे।

                           इन पंक्तियों के लेखक को उनके बाबा और कटनी (म. प्र. ) के प्रख्यात स्वाधीनता संग्राम सेनानी स्व. श्री मोतीलाल वर्मा अपने जीवनकाल में यह गर्व से बताते थे कि  वह सन १९२७-२८ में संगठन के काम से इलाहाबाद गए थे।  तब उनके साथी जगन्नाथ गुप्ता उन्हें बिना कुछ बताये जंगल में गंगा नदी के एक सुनसान किनारे पर ले गए थे , वहां आर्कषक व्यक्तित्व  का सुगठित कसरती बदन का एक नौजवान बड़ी तल्लीनता से एक विशेष प्रकार की मछलियों को , जो  पानी से हवा में फुदककर  क्षण भर के लिए बाहर आती थी ,उन्हें अपनी पिस्तौल की गोलियों का सटीक निशाना बना रहा था , बाद में पता चला कि वे आज़ाद ही थे।

                              लक्ष्यभेद में चन्द्रशेखर आज़ाद को अनुपम दक्षता प्राप्त  थी। यशपाल के अनुसार आज़ाद की दृष्टि में निशाने बाज़ी  सैनिक शिक्षा का आवश्यक अंग ही नहीं थी ,बल्कि उनका निजी  शगल  भी था। वह अक्सर अपने साथियों से कहते थे कि 'अबे बगडूस पिटपिटिया को जेब में डालकर फिरते रहोगे , प्रैक्टिस नहीं होगी , तो वक्त  पर गोली दो हाथ दूर जाएगी और दाँत निपोरते रह जाओगे। ' एक माँ को जितना स्नेह अपनी संतान से होता है , उतना   ही  ममत्व आज़ाद को अपनी प्रिय माउज़र पिस्तौल से था।  वह झाँसी में अपने योग्य शिष्य क्रान्तिकारी सदाशिव मलकापुरकर को स्नेहवश डपटते हुए यह कहते थे कि ' देख तू पकड़ा जायेगा या मर जायेगा तो उतनी हानि नहीं होगी , जितनी इस पिस्तौल के जाने से होगी। ' उनका जीवटता यह भी कहते थे  कि जब तक यह बमतुल बुखारा (आज़ाद ने अपनी पिस्तौल का यही विचित्र नाम रखा था ) मेरे पास है , किसने माँ का दूध पिया है जो मुझे जीवित पकड़ सके। वह मस्ती में कहते थे कि -

                                 '' दुश्मनों की गोलियों का हम सामना करेंगे ,
                                       आज़ाद ही  रहे है  आज़ाद ही रहेंगे । ''

                     आज़ाद के निशाने की अंतिम परीक्षा २७ फरवरी १९३१ की सुबह इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश हूकूमत से आखिरी मोर्चे पर लड़ते समय हुई थी।  जब उन्होंने स्वयं गंभीर रूप से जख्मी होते हुए भी अपनी पिस्तौल के शब्दभेदी अचूक निशाने   से एस. एस. पी. सर नॉट  बाबर का हाथ और इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह का जबड़ा बेकार कर दिया था , यह करिश्मा देखकर वहां मौजूद सी. आय. डी. के अंग्रेज इंस्पेक्टर जनरल ओकार्नर ने अनजाने में उनके निशाने की दाद देते हुए यह कहा  था '' व्हॉट ए वंडरफुल शॉट ''। चन्द्रशेखर आज़ाद ने करीब २५ मिनिट तक बहादुरीपूर्वक अंग्रेज सरकार के सैकड़ो सिपाहियों का अकेला मुकाबला  करते हुए, आज़ाद रहने के अपने प्रण को भी बखूबी निभाया और जब उनकी गोलिया खत्म हो गयी , तब उन्होंने दुश्मनों के सामने समर्पण करने की जगह अपनी कोल्ट पिस्तौल को  अपनी कनपटी में लगाकर उसकी अंतिम गोली को चलाकर आत्मबलिदान कर लिया  , क्रांति का देवता सो गया , मातृभूमि पर निसार एक रोशन चिराग बुझ गया ,  पर वह आज भी हर देशभक्त हिंदुस्तानी के दिल में जीवित है और सदा अमर रहेगे।

                                                                                                                         -अनिल वर्मा

अमरशहीद चंद्रशेखर आजाद की यादें और पांडव प्रपात पन्ना


 
                                                                                                          - अनिल वर्मा 

                  '' यादें नक्श हो जाये किसी पत्थर पर तो ,वे पत्थर दिल को पिघला सकती है।
                      यादें होती है , होते उनके पैर नहीं , पर पीढ़ियों तलक वे जा सकती है । ''


  
  
                                     अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत को अब  ८४ वर्ष गुजर चुके है ,यह तो ज़माने का दस्तूर है कि वक्त और शासन की फ़िज़ा में बदलाव के साथ लोगो के आदर्श बदल जाते है, पर आज़ भी  युवा पीढ़ी गर्व के साथ आज़ाद को अपना महानायक मानती  है और  वतन से मोहब्बत करने वाले हर हिंदुस्तानी के दिल में आज़ाद अब भी जीवित है.  यूँ तो आज़ादी के मतवाले क्रांतिवीर चन्द्रशेखर आज़ाद की कर्मस्थली झाँसी थी , पर वह लम्बे अर्से तक अज्ञातवास के दौरान ओरछा और उसके समीपवर्ती स्थानो पर बेखौफ आज़ाद रहकर समूचे देश में क्रान्तिकारी आंदोलन का कुशल संचालन करते रहे . जब ब्रिटिश हूकूमत उन्हें शिकारी कुत्तो की तरह देश भर में हर तरफ तलाश कर रही थी , तब निर्भीक आज़ाद बुंदेलखण्ड की पावन धरा पर स्वाधीनता की अलख जगाते घूम रहे थे .

                                                    देश की इकलौती हीरा नगरी पन्ना के निकट स्थित पन्ना नेशनल पार्क बाघों के लिए प्रख्यात है , इसी पार्क में सुन्दर वन और जलप्रपात के प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित  ' पांडव प्रपात '  नामक एक  मनोरम और रमणीक पर्यटनस्थल है। इस गौरवशाली इतिहास से बहुत कम ही लोग अवगत है कि यह  ऐतिहासिक स्थल अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद की दुर्लभ स्मृतिया संजोये हुए है . ४ सितम्बर १९२९ को इसी स्थान पर आज़ाद ने स्थानीय क्रांतिकारियों के साथ एक बैठक की थी , जिसमे प. रामसहाय तिवारी ,नारायण दास खरे , प्रेम नारायण , बिहारीलाल , जयनारायण एवं झाँसी के अन्य क्रान्तिकारी उपस्थित थे।  इस बैठक में ब्रिटिश हूकूमत के खिलाफ संघर्ष का आव्हान किया गया था और देश को आज़ाद कराने  का संकल्प लिया गया था।  यह संस्मरण सन १९७८ में लेखक श्री दशरथ एवं अन्य द्वारा प्रकाशित पुस्तक ''उत्कर्ष '' में छपा था , जो शब्दशः इस प्रकार था -

 '' नौगाव स्थित एजेंसी की एक सी.आय. डी. रिपोर्ट के अनुसार ४ सितम्बर १९२९ को छतरपुर से पन्ना जाने वाले मार्ग पर केन नदी के उस पार पाण्डव प्रपात नामक वनाच्छादित स्थल पर श्री चंद्रशेखर आज़ाद की अध्यक्षता में क्रांतिकारियों की बैठक हुई थी , जिसका आयोजन पंडित रामसहाय तिवारी ने किया था और जिसमे टीकमगढ़ निवासी नारायण दास  खरे व् प्रेम नारायण ,सरीला निवासी बिहारीलाल , महोबा निवासी जय नारायण ,आज़ाद तथा झाँसी के चार (एकत्र १३ ) लोगो ने भाग लिया था।  इस सभा का उद्देश्य उक्त प्रतिवेदन अनुसार ' शासन को उखाड़ फेंकना तथा शासन के शीर्षस्थ अधिकारीयों की हत्या कर देना था। ' इस सभा की सूचना प्रभुदयाल  नामक चरवाहे द्वारा दी गई थी। ''

                                       इस घटनाचक्र  का आंशिक उल्लेख लेखक श्री ए. यू. सिद्दीकी द्वारा अंग्रेजी में लिखित पुस्तक ''Indian Freedom Movement in Princely States of Vindhya Pradesh '' में भी किया गया हैपरन्तु यह  ऐतिहासिक तथ्य आज़ाद की शहादत के ८० वर्ष उपरांत  भी शासन और आमजन की जानकारी में नहीं आया था , पहली बार इन पक्तियों के लेखक  द्वारा  यह तथ्य पन्ना टाईगर रिज़र्व के फील्ड डायरेक्टर श्री आर. श्रीनिवास मूर्ति को लिखित पत्र दिनांक १-१-२०१० अनुसार  शासन के संज्ञान में लाया गया था , तब अपने कर्तव्य के प्रति सजग, ईमानदार और निष्ठावान I. F.S. अधिकारी श्री मूर्ति के सद्प्रयासों के परिणामस्वरूप २६जनवरी २०१० को पाण्डव प्रपात  पर आयोजित  एक गरिमामयी समारोह में कुछ फ्लैक्सो  पर आज़ाद के दुर्लभ चित्रों की  स्मारिका लगायी गयी थी , इसके उपरांत १५ अगस्त २०१० को उसी स्थान पर शासन द्वारा आज़ाद की  एक भव्य प्रतिमा स्थापित करायी  गयी और पाण्डव प्रपात  से जुड़े उनके संस्मरण को भी शिलालेख पर अंकित किया गया था , इसका अनावरण मध्यप्रदेश शासन के तात्कालीन राज्य मंत्री श्री ब्रजेंद्र प्रताप सिंह द्वारा किया गया था।  यह आशा है कि पांडव प्रपात पन्ना (म. प्र. ) में स्थित यह पाषाण प्रतिमा  अमरशहीद चन्द्रशेखर आज़ाद के महान त्याग और बलिदान की अनुपम गाथाओं से देशवासियों को युग युग तक प्रेरणा प्रदान करती रहेगी ।

                                                                              -  अनिल वर्मा