आजाद की शहादत: १९३१ में ब्रिटैन में छपी खबर

                 

                                                                               - अनिल वर्मा  

                                          अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत को करीब ८६ साल व्यतीत  हो चुके है , पर आज भी आज़ाद का नाम लेते ही अपार जोश से भुजाये फड़कने उठती  है और  जहन  में देशभक्ति  और बलिदान  का जज्बा सैलाब की भांति उमड़ने लगता है।   चंद्रशेखर तिवारी   ने बचपन में बनारस में १५ बैत की सजा पाने के बाद आज़ाद नाम वरण किया था, वह क्रान्तिकारी दल हिसप्रस के सेनापति होने के नाते दल के सभी महत्वपूर्ण एक्शन में शामिल थे ,ब्रिटिश हुकूमत ने आज़ाद को जिन्दा या मुर्दा पकड़वाने के लिए २५,००० हजार रूपये का ईनाम  घोषित किया था ,पर अपने नाम को सार्थक करते हुए वह आजीवन आज़ाद रहे और अंततः २७ फरवरी १९३१ को अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद में ब्रिटिश पुलिस से बहादूरीपूर्वक लड़ते हुए वतन  की आज़ादी  के लिए भारत माता की गोद में सदा के लिए सो   गए ।   यह विडंबना है कि स्वाधीनता उपरांत भी  इस महान क्रांतिकारी पर  नगण्य  शोध  हुआ है ,यद्यपि अब उनसे संबधित इतिहास  मिटने की कगार पर आ गया है ,फिर भी   उनके  बारे में कभी कभार नए संस्मरण सामने आ जाते  है।आज़ाद की शहादत उपरांत ब्रिटैन के एक छोटे से अखबार में उनके बारे में छपी एक खबर मैंने   गहन शोध उपरांत हासिल की है , जो  सर्वप्रथम  बार देश के सामने प्रस्तुत  है ।


               उन दिनों इंग्लैंड के स्कॉटलैंड काउंटी  के एनगस शहर में डुंडी नामक छोटे से स्थान से '' Dundee Evening Telegraph ''अख़बार प्रकाशित होता था।  इस अख़बार के २ मार्च १९३१ के ऐतिहासिक अंक में शीर्षक  '' Crowd   throw  flowers before  procession '' से वर्णित  समाचार में भारतीय  क्रांतिकारी चंद्र शेखर आज़ाद के ब्रिटिश पुलिस के साथ मुठभेड़ में अल्फ्रेड पार्क इलाहाबाद में मारे जाने , उनकी शिनाख्त एवं पोस्टमार्टम किये जाने तथा अंतिम यात्रा का जुलूस निकाले जाने का महत्वपूर्ण उल्लेख है।  समाचार में यह भी बताया गया था कि आज़ाद के रिश्तेदार व बनारस के कांग्रेसी सदस्य श्री शिव विनायक मिश्र ने उनका अंतिम संस्कार किया थाऔर  आज़ाद की अंतिम यात्रा के जुलुस  के दौरान शहर की गलियों में उन पर पुष्प वर्षा  की गयी थी और उनके पार्थिव देह क़ी राख को काले  रंग के हस्तनिर्मित कपड़े में  सहेज कर रखा गया था।    


                   

 

                                       

                      ब्रिटैन के अख़बार की इस दुर्लभ कतरन के साथ भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की सुनहरी यादों को ताजा करते हुए , अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद को सादर शृद्धा सुमन अर्पित है।


                                                                                                                            - अनिल वर्मा



                                                           
                                         
              अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद की टोपी 
                                                                                  - अनिल वर्मा 
 
                                     



                                           अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद ने बाल्यकाल  में वाराणसी में वीरतापूर्वक १५ बैत की सजा भुगतने के बाद यह भीष्म  प्रतिज्ञा ली थी कि   ब्रिटिश हुकूमत उन्हें फिर कभी जीते जी पकड़ नहीं पायेगी।  वह सन १९२५ के काकोरी ट्रैन डकैती कांड से लेकर २७ फरवरी सन १९३१ को अपनी शहादत  तक लगातार फरार रहे,इस दौरान ब्रिटिश हुकूमत   पूरे देश मेंउनकी तलाश में शिकारी  कुत्तो की तरह पीछे पड़ी रही , पर वह  फिर कभी पुलिस के हत्थे नही चढे। उनके इस लंबे और सफल फरारी जीवन का मुख्य राज यह   था कि वह  अपनी पहचान छिपाये रखने के लिए अपना परिवेश  , बोलचाल  और वेश भूषा निरंतर बदलते रहते थे  और उनका व्यक्तित्व ऐसा अनूठा था  कि वह वेश बदल कर  कभी निपट देहाती बन जाते ,तो  कभी  साधु संत, पंडित, सेठजी, या  शिकारी बन जाते थे  , फिर उनके परिचित तक उन्हें पहचान नहीं पाते थे।

                        अभी हाल में जनवरी २०१७ में मुझे कानपुर में अमरशहीद चंद्रशेखर आजाद की ऐसी ही एक दुर्लभ  टोपी देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ .जिसके बारे में आज भी बहुत कम लोग जानते है. कानपुर के परेड इलाके की तंग गलियो में सन १९३३-३૪ के बने तिलक मेमोरियल हाल में एक पुरानी लायब्रेरी में आजाद की यह टोपी रखी हुई है. सन १९२५ में काकोरी कांड के बाद आजाद ट्रेन से कानपुर जा रहे थे. तब तक अधिकांश क्रन्तिकारी पकडे जा चुके थे। उन्हें  भलीभांति यह आभास था कि कानपुर में सी.आई. डी पुलिस सरगर्मी से उन्हें चप्पे चप्पे में तलाश कर रही है. वो गंगाघाट स्टेशन पर उतरकर पैदल ही गंगापुल पार करके पटकापुर में अपने परिचित श्री नारायण प्रसाद अरोडा के घर चले गये और सुबह वहां से रवाना होते समय उन्होने वेष बदलने के लिये अपनी खादी टोपी उतारकर अरोडा जी के बेटे द्रोण को दे दी और उसका हैट पहनकर बेख़ौफ़  पटकापुर की गलियो से होते हुए, सकुशल अपनी राह पर आगे बढ़  गये थे । 

                            आज़ाद की   इस टोपी को श्री नारायण प्रसाद अरोड़ा ने आजीवन बहुत संभाल कर  रखा था , वह हर साल   यह टोपी केवल राखी के समय ही  पहनते थे। अरोड़ा जी की मृत्यु उपरांत उनके पौत्र डा. अरविन्द अरोडा ने इस टोपी को तिलक मेमोरियल सोसाइटी कानपुर को भेंट किया  था . अमरशहीद आजाद की इस  ऐतिहासिक टोपी को  देख कर मैं काफी भावुक हो गया था. उस समय मेरे साथ श्री क्रांति कुमार कटियार जी भी थे .जो कि शहीद भगत सिंह के अन्यय साथी और लाहौर षड़यंत्र केस में कालापानी की यातना  भुगतने वाले महान क्रांतिकारी डा. गया प्रसाद कटियार  के सुपुत्र है. 
                                                                                                                      -अनिल वर्मा