Revolutionary Seth Damodar Swaroop


        रेली की शान :क्रांतिकारी सेठ दामोदर स्वरूप 

                                                                                    -अनिल वर्मा 
                                          राम गंगा नदी के तट पर स्थित बरेली की विरासत काफी समृद्ध है.पहले महाभारत काल में पांचाल शासकों और फिर १८वीं सदी में रोहिल्ला नवाबों की राजधानी के रूप में प्रख्यात यह पावन धरा कभी भी वीरों से रिक्त नहीं हुई है।सन १८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बरेली के नबाब खानबहादुर खान और उनके दीवान  मुंशी शोभा राम ने ३१ मई १८५७ को बरेली की आज़ादी का ऐलान कर दिया था और लगभग दो साल तक स्वाधीनता के साथ अग्रेजो को धूल  चटाई थी । अन्तः ब्रिटिश हूकूमत ने वीर खान बहादुर खान और उनके २५७ साथियों को गिरफ्तारर करके २४ फरवरी १८६० को पुरानी  कोतवाली में पेड़ो पर सरेआम फांसी  पर लटका दिया दिया था,आज भी नबाब खान बहादुर की जिला जेल स्थित कब्र और कमिश्नरी स्थित वह ऐतिहासिक पेड उनके अदम्य शौर्य की गाथा बखान कर रहे है,वास्तव में हमारे देश को ऐसे ही वीर शहीदों और क्रांतिकारियों के लहू से यह आज़ादी नसीब हुई है, बरेली के इन अमर शहीदों को नमन है.

                       सन १९२५ में काकोरी के निकट चंद क्रांतिकारियों ने रेल सेसरकारी खजाना लूटकर पूरे देश में ब्रिटिश हूकूमत को सामूल हिलाकर रख दिया था ,ताबड़तोड़ गिरफ्तारियों में ४० नौजवान क्रांतिकारियों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया । इन्हीं में से चार ने बरेली सेंट्रल जेल का नाम स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में दर्ज कर दिया था ।हालाँकि इस कांड  में बरेली के किसी क्रांतिकारी की सीधी भागीदारी नहीं थी, पर २६सितंबर १९२५ को गिरफ्तारियां हुई ,तो बरेली  के दामोदर स्वरूप सेठ को भी पकड़ा गया। बाद में चार क्रांतिकारियों को सजा काटने के लिए बरेली सेंट्रल जेल में भेजा गया, जिनमें मन्मथनाथ गुप्त को १४  साल,राजकुमार सिन्हा को १० साल,मुकंदी लाल और शचीन्द्र नाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा मिली थी ।


                   बरेली का केन्द्रीय कारागार स्वाधीनता आन्दोलन के महान  सेनानियों और शीर्षस्थ क्रान्तिकारियों का केन्द्र रहा।क्रांतिकारियों ने इसी जेल में रहकर अपनी मांगों के लिए ५० दिन लम्बी ऐतिहासिक भूख हडताल की थी,हड़ताल तोड़ने के कुत्सित प्रयास होने पर उन्होंने साफ कह दिया कि अब मांगों का नहीं हमारी लाशों का बंदोबस्त करना शुरू करो। उनके इस अदम्य साहस पर भगत सिंह ने भी संदेश भेजकर हौसला अफजाई की थी । इस हड़ताल को देश में प्रचारित होने का श्रेय दामोदर स्वरूप सेठ को जाता है, जिन्होंने जान पर खेलकर अंदर बाहर सूचनाओं का प्रसार किया, अन्तः हड़ताल सफल हुई काकोरी केस में वे और राजेन्द्र लाहिडी दो ही ऐसे क्रान्तिकारी थे, जो जेल से अदालत जाते समय ’भारतीय प्रजातंत्र की जय‘ के नारे लगाया करते थे, इस से सेठ जी की प्रगतिशीलता प्रगट होती है। उनकी अपार लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि १९३० में इस शहर की सडकों पर एक नारा गूंजता था-’’बांस बरेली का सरदार, सेठ दामोदर जिन्दाबाद ''। परन्तु जेल की नारकीय यातनाओ के कारण   सेठ दामोदर स्वरुप  बहुत बीमार हो गए थे , उनकी चिकित्सा की उचित व्यवस्था नहीं हुई , एक साल में जेल में दर्द से तड़फते रहने से उनके शरीर में केवल ढाचा मात्र  रह गया था , उनका वजन १०० पौंड से केवल ६६ पौंड रह गया था ,वह तिल तिल मौत की तरफ बढ़ रहे थे , अमरशहीद रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा '' काकोरी षड़यंत्र '' में उनकी स्थिति का वर्णन किया था , सेठ जी की इस मरणासन्न स्थिति  से भयभीत होकर अंगेज सरकार ने पहले उन्हें जमानत पर छोड़ दिया , फिर मुकदमा सेशन में आने पर उनके खिलाफ मामला वापस ले लिया था।  

                                                  सेठ दामोदर स्वरुप ने बरेली जेल से रिहा होने के बाद सन  १९२७ में देहरादून के निकट राजपुर में डा. केशव चंद शास्त्री से इलाज कराया , तब सेठ जी के दुर्बल शरीर में केवल चमड़ी और हड्डी ही रह गयी थी , वह बिना सहारा दिए करवट भी नहीं बदल पाते थे , एक दयालु अमेरिकन महिला फ्रेडा दास की अनथक सेवा से देश के काम आने के लिए उनकी जिंदगी बच गयी। इसके बाद वह फिर से  देश की आज़ादी की लडाई में सक्रिय  हो गए ,सन १९३० में कानपुर  में आयोजित क्रान्तिकारी दल की गोपनीय बैठक में चन्द्रशेखर आज़ाद ने उन्हें हिसप्रस के संगठन विभाग का नेतृत्व सौपा  था।


                                   ११  फरवरी १९०१ को बरेली में जन्मे सेठ दामोदर स्वरुप मूलतः बिहारीपुर के रहने वाले थे,उन्हें अधययन के लिए इलहाबाद भेजा गया था , जहाँ वह क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गए ,फिर उन्होंने आजन्म अविवाहित रहकर देशसेवा का व्रत लिया था , वह असहयोग आंदोलन के दौरान जेल गए , उन्होंने लाला लाजपत रॉय की 'लोक सेवक समिति ' की  सदस्यता ली थी ,  वह समर्पित क्रान्तिकारी  थे , उन्हें सन १९२२  में हुए चर्चित बनारस कांड में सात साल की सजा हुई थी। उन्हें बरेली छावनी में विद्रोह कराने की बडी जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। काशी विद्यापीठ में वह अवैतनिक शिक्षक भी रहे। उन्होंने पहले अपना एक अलग क्रान्तिकारी दल  बनाया था , बाद में उस दल का विलय शचीन्द्रनाथ सान्याल और आज़ाद के हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ में कर लिया था। जब अमरशहीद  आज़ाद , भगत सिंह और अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों की शहादत के बाद क्रान्तिकारी  दल लगभग समाप्तप्राय: हो गया , तब सेठ जी ने समाजवादी पार्टियो के साथ मिलकर काम करके  स्वाधीनता के लिये संघर्ष को सतत जारी रखा। वह कांग्रेस समाजवादी पार्टी के प्रमुख सदस्य थे,बाद में उन्होने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ फारवर्ड ब्लाक में भी काम किया।

                  सेठ जी  सन १९३७ एवं १९४६ में संयुक्त प्रान्त की विधान सभा के सदस्य रहे , वह द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नज़रबंद रखे गए ,जेल से रिहा होने के बाद सन १९४५ उन्हें संविधान सभा का सदस्य भी बनाया गया , लेकिन  संविधान का जो प्रारूप तैयार हुआ, उस पर उन्होंने  विरोध करते हुए यह कहकर दस्तखत करने से मना कर दिया कि वे उसे समाज के अनुरूप उचित नहीं मानते है . उन्होने आरक्षण का बहुत विरोध किया था ,उनका यह कहना था कि किसी वर्ग विशेष के लिए सेवाओं में आरक्षण का अर्थ दक्षता और अच्छी सरकार को नकारना है । अपने अंतिम दिनों में  सेठ जी ने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी ,पर दुर्भाग्यवश लखनऊ की गोमती नदी में आई बाढ में जब मोती महल जलमग्न होने पर
वह नष्ट हो गयी। पूर्व प्रधानमंत्री  चन्द्रशेखर ने अपनी आपातकाल की जेल डायरी में  सेठ जी की चर्चा की है। कहा जाता है कि एक बार सेठ दामोदर स्वरूप ने चंद्रशेखर को बर्तन साफ करते हुए देख लिया, तब उन्होंने उल्टे पांव आचार्य नरेंद्र देव के पास जाकर आग बबूला होकर कहा कि आप राजनीति के नाम पर युवकों का शोषण कर रहे हैं। पं. कमलापति त्रिपाठी ने भी अपनी आत्मकथा में  उनके संस्मरणों का उल्लेख किया है।सन १९६५ में सेठ दामोदर जी का निधन हुआ था।  

                  अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के क्रांतिकारी साथी  सेठ दामोदर स्वरूप एक 
सच्चे देशभक्त , निर्भीक, जुझारू और लगनशील  स्वाधीनता सेनानी थे ,वह बरेली की शान थे , पर इस महान शहर ने उनके नाम पर चौकी चौराहे पर महज एक पार्क बनाकर उनको भुला दिया गया।  १३ अप्रैल १९९० को जंक्शन रोड पर तत्कालीन मेयर राजकुमार अग्रवाल ने दामोदर स्वरूप सेठ की प्रतिमा स्थापित कर कर इस पार्क का निर्माण कराया था। परन्तु अब  इस पार्क की देखभाल की भी जरूरत नहीं समझी जाती है ,इस की हालत बेहद दयनीय है। पार्क में स्थापित सेठ जी की प्रतिमा आसपास के पेड़ों से घिर गई है।  पार्क नशेड़ियों का अड्डा बन गया है . प्रतिमा के कान, नाक और टोपी को भी शरारती तत्वों ने खंडित कर दिया है। भीषण दुर्दशा का आलम यह है कि सरेआम नशेड़ी प्रतिमा के पास ही बैठकर नशे के इंजेक्शन लगाते हैं और शराब पीते हैं,लेकिन कोई उन्हें रोकने वाला नहीं है।  


                 यह विडम्बना है कि इस देश में स्वाधीनता के उपरांत क्रांतिकारियों  को कभी भी यथोचित सम्मान नहीं मिल सका है , सेठ दामोदर स्वरूप सेठ की स्थिति भी उनसे भिन्न नहीं है ,वास्तव स्वाधीन भारत के वाशिंदों ने नीवं में गड़े उन पत्थरों को ही भुला दिया है , जिन पर स्वाधीनता की बुलंद इमारत खड़ी है , पर यह याद रखे कि इतिहास इसके लिए हमे कभी माफ़ न कर सकेगा ।

                        '' प्रेरणा शहीदों से अगर हम नहीं लेगे , आज़ादी ढलती हुई साँझ हो जाएगी।
                         यदि वीरों की पूजा हम नहीं करेंगे तो,यह सच मानों वीरता बाँझ हो जाएगी। '' 

                                                                                                                          
बरेली उ. प्र. स्थित सेठ दामोदर की प्रतिमा ( फोटो बरेली की श्रीमती मधुलिका शर्मा से साभार प्राप्त )
 
                                                                                                                            - अनिल वर्मा