गुरु दत्त की ५० वीं पुण्यतिथि 
                                                                        - अनिल वर्मा

              


 


                 आज से ठीक ५० साल पहले वह रहस्यमय बदनसीब रात थी , जिसने गुरु दत्त को सदैव के लिए हमसे छीन लिया . उनकी मौत महज एक हादसा थी या ख़ुदकुशी ,यह रहस्य १९६४ में जहाँ था  , आज भी वही है , उनकी मौत की अबूझ पहेली शायद कभी सुलझ न सकेगी। 

                             यह कहा जाता है कि  गुरु दत्त ने वहीदा रहमान की बेवफाई के कारण उनका दिल टूट गया था , और वह गहन हताशा में डूब गए थे , पत्नी गीता को वो कभी वापस नहीं पा सकते थे। इसलिए उन्होंने मौत को ही गले लगाना बेहतर था। गुरदत्त के निधन के बाद वहीदा ने एक बयान जारी किया था। जिसमें उन्होंने कहा था  “ऊपरवाले ने उन्हें सबकुछ दिया था लेकिन उन्हें संतोष नहीं था , वह कभी संतुष्ट नहीं होते थे।  शायद इसीलिए जो चीज उन्हें जिंदगी नहीं दे पा रही थी, उसे उन्होंने मौत में तलाशा।  उन्हें पूर्ण संतुष्टी की तलाश थी। कोई तृप्ति, कोई मौत, कोई अंत, कोई पूर्णता वह चाहते थे। मुझे नहीं पता उनकी मौत दुर्घटना थी या घटना, लेकिन इतना जानती हूं, उन्हें कोई नहीं बचा सकता था। उनमें बचने की चाह ही नहीं थी। मैंने उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की कि जिंदगी में सब कुछ नहीं मिल सकता और मौत हर सवाल का जवाब नहीं है। मगर वे नहीं माने। मैं जानती हूं वो मौत से मोहब्बत करते थे, बेपनाह मोहब्बत, इसलिए उन्होंने इसे गले लगा लिया।”

                      इस दुनिया से जाने वाले कभी लौट कर वापस नहीं आते ,बस उनकी यादें शेष रह जाती है। गुरुदत्त जी सिनेमा के रुपहले परदे पर और हम सब प्रशंसकों के दिलो में हमेशा अमर रहेंगे .हम सब की ओर से महानायक गुरु दत्त को आँसूओं से धुँधली हो रही नज़रों और भरे हुई  कंठ के साथ उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित है।
                                                                                                                            - अनिल वर्मा

क्रांतिकारी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"




 क्रांतिकारी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
                                                                            -    अनिल वर्मा
  
 
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                                      अमरशहीद भगतसिंह और आज़ाद के साथी रहे सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" जीवन के प्रथम  सौपान में  देश की आज़ादी की संघर्षगाथा में भाग लेने वाले एक महान क्रांतिकारी थे , बाद में वह सैनिक बने और फिर  उन्हें  हिंदी साहित्य जगत में प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना गया।  अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं।     
  
                           अज्ञेय का जन्म ७ मार्च १९११ को  उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ था । उनके पिता पण्डित हीरानंद शास्त्री प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास आदि कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता। अज्ञेय ने घर पर ही भाषा, साहित्य, इतिहास और विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ की। 1925 में अज्ञेय ने मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की इसके बाद दो वर्ष मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में एवं तीन वर्ष फ़ॉर्मन कॉलेज, लाहौर में संस्थागत शिक्षा पाई। वहीं बी.एस.सी.और अंग्रेज़ी में एम.ए.पूर्वार्द्ध पूरा किया। 

                                                       लाहौर में आने के बाद अज्ञेय का झुकाव राष्ट्रीय  आंदोलन की ओर होने लगा था।  वह  १९२९ में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में अज्ञेय एक स्वयंसेवक अधिकारी के तौर पर मौजूद थे। इन्हीं के स्वयंसेवक दल ने उन लोगो  को अपने कैंप में  बंद कर के रखा था जो गांधी जी के खिलाफ नारे लगाने वाले थे। फिर लाहौर में पढ़ने के दौरान वह क्रांतिकारी भगत सिंह , सुखदेव , धन्वन्तरि एवं  यशपाल के संपर्क में आकर क्रांतिकारी संस्था नौजवान भारत सभा और  हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बन गए  और  वह क्रांतिकारी आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़कर फरार  हो गए , जिससे उनकी पढ़ाई पूरी न हो सकी।  वह   विज्ञान के छात्र थे और मिस्त्री के काम में भी माहिर थे, अतः दल ने उन्हें अमृतसर में हथियारों की मरम्मत के कारखाने का दायित्व सौप दिया।  वह छदम  मुस्लिम नाम से बिजली के काम की दुकान के बहाने  पिस्तौल सुधारने और खाली कारतूस भरने का कार्य सफलता पूर्वक करने लगे। इसके बाद दल के सेनापति चंद्रशेखर आज़ाद के कहने पर दिल्ली की क़ुतुब रोड पर ऊपर की मंज़िल का एक मकान किराये पर लेकर उस पर '' हिमालयन टॉयलेट फैक्ट्री '' का बोर्ड टांग दिया गया,पर  वास्तव में यह गुप्त बम फैक्ट्री थी ,यहाँ पर अज्ञेय  के साथ क्रांतिकारी यशपाल , प्रकाशवती , विमल कुमार जैन , कैलाशपति भवानी  सहाय भी काम करते थे , कभी कभी वहां दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी भी आती थी। अमृतसर की फैक्ट्री में  अज्ञेय की जरुरत होने पर उन्हें दुबारा वहां भेजा गया , पुलिस की भारी धरपकड़  बावजूद एक सहपाठी सबइंस्पेक्टर के सहयोग से वह लाहौर स्टेशन पर तो किसी तरह   बच गए , पर फिर १९३० में वह फैक्ट्री में कई पिस्तौलों के साथ  गिरफ़्तार कर लिया गया । उन पर मुक़दमा चला और ५ साल की सजा दी गयी, जिसे  उन्होंने १९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों मे भोगा, पर उन्होंने जेल जीवन का वृहद उपयोग अध्ययन और लेखन में पारंगत होने में किया  और  वह कालांतर में हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार बन गए ।

                                                         जेल जीवन का प्रभाव अज्ञेय के लेखन पर खूब पड़ा है। उनकी कहानी ' कोठरी की बात ' पढ़कर यह पता लगता है कि  आंदोलनकारी कैसे मजबूत बनते होगे जब अज्ञेय जी जेल में थे, तभी उनका काव्य-संग्रह 'भग्नदूत' और 'इत्यलम्' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की कविताओं में क्रांति का स्वर प्रधान था।  सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को 'अज्ञेय' नाम मुंशी प्रेमचंद से मिला। इसका जिक्र स्वयं अज्ञेय जी ने अपने एक साक्षात्कार में किया था। इस साक्षात्कार के अनुसार, अज्ञेय ने जैनेंद्र कुमार के पास अपनी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजीं। जैनेंद्र जी ने वह रचनाएं प्रेमचंद जी को दीं। रचना पर लेखक का नाम नहीं था। प्रेमचंद ने उनसे रचनाओं के लेखक का नाम पूछा। इस पर जैनेंद्र जी ने कहा लेखक का नाम तो नहीं बताया जा सकता, वह तो 'अज्ञेय' है।' इस पर प्रेमचंद जी ने कहा, 'तब मैं 'अज्ञेय' नाम से ही कहानी छाप दूंगा।' बस उसी दिन से 'अज्ञेय' नाम से रचनाएं प्रकाशित होने लगीं।  

                            अज्ञेय ने जेल से रिहाई के बाद १९३६-३७ में सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया।  वह १९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे इसके बाद इलाहाबाद से प्रतीक नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। उन्होंने देश-विदेश की अनेक यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। फिर वह वापस दिल्ली लौटे और दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की स्थापना की ,जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था।  अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।

                                               सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय का कृतित्व बहुमुखी है और वह उनके समृद्ध अनुभव की सहज परिणति है। अज्ञेय की प्रारंभ की रचनाएँ अध्ययन की गहरी छाप अंकित करती हैं या प्रेरक व्यक्तियों से दीक्षा की गरमाई का स्पर्श देती हैं, बाद की रचनाएँ निजी अनुभव की परिपक्वता की खनक देती हैं। अज्ञेय स्वाधीनता को महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानते थे, परंतु स्वाधीनता उनके लिए एक सतत जागरुक प्रक्रिया रही। अज्ञेय ने अभिव्यक्ति के लिए कई विधाओं, कई कलाओं और भाषाओं का प्रयोग किया, जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृत्तांत, वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्मचिंतन, अनुवाद, समीक्षा, संपादन। उपन्यास के क्षेत्र में 'शेखर' एक जीवनी हिन्दी उपन्यास का एक कीर्तिस्तंभ बना। नाट्य-विधान के प्रयोग के लिए 'उत्तर प्रियदर्शी' लिखा, तो आंगन के पार द्वार संग्रह में वह अपने को विशाल के साथ एकाकार करने लगते हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे ,जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

                                                           अज्ञेय अन्तमुर्खी थे , उन्हें अपने निजी जीवन के बारे में बाते करना अच्छा नहीं लगता था , फिर भी अज्ञेय ने अपनी चिन्तन-प्रकिया , अपनी रचना प्रकिया और अपने व्यक्त्तिगत जीवन के अनुभवों के बारे में बहुत कुछ लिखा है। १९६४ में 'आँगन के पार द्वार ' कृति पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्रदान किया गया था  और १९७९ में 'कितनी नावों में कितनी बार 'पर उन्हें  भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया थासच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" ने भले ही इस दुनिया से ४ अप्रैल १९८७ को विदा ले ली हो, लेकिन उनका काम, उनकी कृतियां नए रचनाकारों को आज भी प्रेरित करती हैं।

                                                                                                                       -  अनिल वर्मा