Bharat mei Angerji Raj aur Pandit Sundar Lal

 ''भारत में अंग्रेजी राज'' के रचियता प.सुन्दरलाल                                                                                


                                            


             भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय उन साहसी लेखकोंकवियों को भी है, जिन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी और प्रखर लेखनी से विदेशी दासता से आक्रान्त देशवासियों के हृदय में अंग्रेज़ी शासन से मुक्ति की अलख जगाई और प्राणों की परवाह न करते हुए भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये निरन्तर संघर्ष करने का जज्बा जागृत किया। ऐसे ही एक लेखक थे पंडित सुन्दर लाल, जिनकी पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज' ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लड़ने वालों को प्रेरणा देते हुए सत्य इतिहास की रचना की थी  ,वास्तव में यह पुस्तक भारतीय स्वाधीनता का गौरव ग्रन्थ है  

            सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम के दमन के उपरांत अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुस्लिमों में मतभेद उत्पन्न किये और 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत बंगाल का विभाजन कर दिया। , इतिहास के विद्वान पण्डित सुन्दरलाल ने इस विद्वेष की जड़ तक पहुंचने का प्रयास किया। जब वह  उच्चाध्ययन के लिए इंग्लैंड गये , तब  ब्रिटिश पुस्तकालयों में संग्रहीत भारत में ब्रिटिश राज से विभिन्न प्रामाणिक  दस्तावेजों तथा इतिहास का गहन अध्ययन किया। उनके सामने अनेक रहस्य खुलते चले गये, जिसने उनके भीतर के विद्रोही को जाग्रत कर दिया ,  इसके बाद वे तीन साल तक क्रान्तिकारी बाबू नित्यानन्द चटर्जी के घर पर शान्त भाव से पुस्तक के काम में जुटे रहे। इस पुस्तक को पण्डित सुन्दर लाल जी के बोलने पर  प्रयाग के श्री विशम्भर पाण्डे ने लिखा था , इसी साधना के फलस्वरूप एक हजार पृष्ठों का 'भारत में अंग्रेजी राज'  नामक ग्रन्थ तैयार हुआ , पर  इसकी पाण्डुलिपि का प्रकाशन आसान नहीं था। सुन्दरलाल जी जानते थे कि प्रकाशित होते ही ब्रिटिश हूकुमत इसे जब्त कर लेगी । अत: उन्होंने इसे कई खण्डों में बांटकर विभिन्न शहरों में छपवाया। उन खण्डों को प्रयाग में जोड़ा गया और अन्तत: 18 मार्च, 1928 को यह पुस्तक प्रकाशित हो गयी। 

           पहला संस्करण २०००प्रतियों का था। १७०० प्रतियां तीन दिन के अन्दर ही ग्राहकों तक पहुंचा दी गयीं। शेष ३०० प्रतियां डाक या रेल द्वारा  जा रहीं थींपर इसी बीच अंग्रेजी हुकूमत की मुखालफत वाली इस पुस्तक को  २२  मार्च को प्रतिबन्धित घोषित कर इन्हें जब्त कर लिया। जो १७००  पुस्तक वितरित हो चुकीं थीं, उन्हें भी ढूंढने का असफल प्रयास किया गया, पर तमाम विरोध के बावजूद पुस्तक आज़ादी के मतवालों के बीच आयी और लोकप्रियता के शिखर तक पहुंची। जवाहर लाल नेहरू से लेकर महात्मा गांधी तक ने पं. सुंदरलाल की इस कृति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। गांधीजी ने अपने पत्र 'यंग इण्डिया' में लिखे लेख में लोगों को सलाह दी थी कि वे कानून तोड़ कर भी इस पुस्तक के अंश को छापें और इसका वितरण करे .


             दूसरी ओर प. सुन्दरलाल जी प्रतिबन्ध के विरुद्ध न्यायालय में चले गये।  उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने यह तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। तब सरकारी वकील ने यह कहा था कि, ‘यह इसीलिए तो  अधिक खतरनाक है। सुन्दरलाल जी ने संयुक्त प्रान्त की सरकार को पत्र लिखा। शुरू में तो गर्वनर राजी नहीं हुए; पर मुख्यमंत्री श्री जी. बी. पन्त के प्रयासों से 15 नबम्वर 1937 को उन्होंने प्रतिबन्ध हटा लिया, फिर अन्य प्रान्तों में भी प्रतिबन्ध हट गया।  चर्चित पुस्तक होने के कारण अब नये संस्करण को कई लोग इसे छापना चाहते थे; पर सुन्दरलाल जी ने कहा कि वे इसे वहीं छपवायेंगे, जहां से यह कम दाम में छप सके। सन १९३८ में ओंकार प्रेस  प्रयाग ने इसे केवल सात रुपए मूल्य में छापा। इस संस्करण के छपने से पहले ही १०,००० प्रतियों के आदेश मिल गये थे। मेरे बाबा श्री मोतीलाल वर्मा स्वाधीनता संग्राम सेनानी इस ग्रन्थ को स्वतंत्रता  आन्दोलन की गीता मानते थे , उनसे ही मुझे  इस दूसरे संस्करण की तीनो जिल्द प्राप्त हुई थी , जो आज भी मेरे पास मौजूद है                                 
        प. सुंदर लाल ने अपनी इतिहास प्रसिद्ध पुस्तक भारत में अंग्रेजी राजमें यह लिखा है कि मुसलमानों के आने से ठीक पहले पंजाब से दक्षिण तक और बंगाल से अरब सागर तक करीब -करीब सारा देश अलग -अलग राजपूत सरदारों के शासन में आ गया। किंतु कोई प्रधान केंद्रीय शक्ति इन सब छोटी -बड़ी रियासतों को एक सूत्र में बांधने वाली न थी। आए दिन इन तमाम रियासतों के बीच अपना- अपना राज बढ़ाने के लिए एक दूसरे से संग्राम होते रहते थे।देश की राजनैतिक और राष्ट्रीय एकता स्वप्न मात्र थी। पंडित सुंदर लाल ने अंग्रेजी राज के विवरण से पहले यहां इस्लाम और मुस्लिम हमलावरों और उनके अच्छे -बुरे पहलुओं का भी ब्यौरा  दिया है।आज के भारत में जिस तरह राष्ट्रीय मसलों पर भी यहां तक कि इस देश के खिलाफ जारी छद्म युद्ध पर भी यहां के विभिन्न नेताओं व शासकों में जिस तरह अनेकता दिखाई पड़ रही है,उसी तरह के हालात का विवरण भी सुंदरलाल की पुस्तक में है। उन्होंने लिखा है कि मुसलमानों की हुकूमत कायम होने से ठीक पहले पंजाब से दक्षिण तक और बंगाल से अरब सागर तक करीब -करीब सारा देश अलग -अलग राजपूत सरदारों के शासन में आ गया। किंतु कोई प्रधान केंद्रीय शक्ति इन सब छोटी -बड़ी रियासतों को एक सूत्र में बांधने वाली न थी। आए दिन इन तमाम रियासतों के बीच अपना- अपना राज बढ़ाने के लिए एक दूसरे से संग्राम होते रहते थे।देश की राजनैतिक और राष्ट्रीय एकता स्वप्न मात्र थी। 'भारत में अंग्रेजी राज' में अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर द्वारा 8 जून 1857 जारी एलान का उद्धरण मिलता है जिसमें भारतीयों का आह्वान करते हुए कहा गया है- हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों उठो. भाइयों, उठो! खुदा ने जितनी बरकतें इनसान को अता की हैं, उनमें सबसे कीमती बरकत 'आजादी' है. क्या वह जालिम नाकस, जिसने धोखा दे - देकर यह बरकत हमसे छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा? ...नहीं,  नहीं. फिरंगियों ने इतने जुल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का प्याला लबरेज हो चुका है'

           इस किताब के दो खंडों में सन १६६१ ई. से लेकर १८५७  ई. तक के भारत का इतिहास संकलित है. यह अंग्रेजों की कूटनीति और काले कारनामों का खुला दस्तावेज है, जिसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए लेखक ने अंग्रेज अधिकारियों के स्वयं के लिखे डायरी के पन्नों का शब्दश: उद्धरण दिया है. 
         
                पं. सुंदरलाल का जन्म मुजफ्फरनगर जिले की गावं खतौली के कायस्थ परिवार में २६ सितम्बर सन १८८५  को तोताराम के घर में हुआ था । बचपन से ही देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े देखकर  उनके दिल में देश को आजादी दिलाने का जज्बा पैदा हुआ। वह कम आयु में ही परिवार को छोड़ प्रयाग चले गए  और  प्रयाग को कार्यस्थली बनाकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। पं.सुंदरलाल स्वयं एक सशस्त्र क्रांतिकारी के रुप में गदर पार्टी से बनारस में संबद्ध हुए थे।लाला लाजपत रॉय, अरविन्द घोष , लोकमान्य तिलक के निकट संपर्क उनका हौंसला बढ़ता गया और  कलम से माध्यम से देशवासियों को आजाद भारत के सपने को साकार करने की हिम्मत दी, उनकी प्रखर लेखनी ने १९१४-१५ में भारत की सरजमीं पर गदर पार्टी के सशस्त्र क्रांति के प्रयास और भारत की आजादी के लिए गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के अनुपम बलिदानों का सजीव वर्णन किया है। लाला हरदयाल के साथ पं.सुंदरलाल ने समस्त उत्तर भारत का दौरा किया था। १९१४ में शचींद्रनाथ सान्याल और पं.सुंदरलाल एक बम परीक्षण में गंभीर रुप से जख्मी हुए थे। वह लार्ड कर्जन की सभा में बम कांड करने वालों में पंडित सोमेश्वरानंद बनकर शामिल हुए थे , सन १९२१ से १९४२ के दौरान वह गाँधी जी के सत्याग्रह में भाग लेकर ८ बार जेल गए

              पंडित सुंदरलाल पत्रकार, साहित्यकार, स्तंभकार के साथ ही साथ स्वतंत्रता सेनानी थे, वह  कर्मयोगी एवं स्वराज्य हिंदी साप्ताहिक पत्र के संपादक भी रहे, उन्होंने ५० से अधिक  पुस्तकों की रचना की    प्रख्यात क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी पं. सुंदरलाल के प्रमुख शिष्यों में एक  थे , पंडितजी ने ही गणेश शंकर को 'विद्यार्थी' की उपाधि से नवाजा था ।  स्वाधीनता उपरांत उन्होंने अपना जीवन सांप्रदायिक सदभाव को समर्पित कर दिया , वह अखिल भारतीय शांति परिषद् के अध्यक्ष एवं भारत चीन मैत्री  संघ के संस्थापक भी रहे, प्रधानमंत्री प. जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अनेक बार शांति मिशनो में विदेश भेजा, पंडित सुन्दरलाल  ने ९५ साल की आयु में 9 मई १९८१ को  दुनिया को  अलविदा कह दिया, लेकिन आज भी उनकी यह अमर कृति नयी पीढीयों का मार्गदर्शन कर रही हैं।

                                                    -अनिल वर्मा