Birth Centanary of Revolutionary Newspaper ' Pratap'

           गणेश शंकर  विद्यार्थी जी के ' प्रताप ' अखबार की जन्म शताब्दी



          आज के दौर में  प्रेस जितना सशक्त और मुखर  है ,आजादी की जंग में यह उतना ही गुलामी की बंदिशों  से जकड़ा हुआ था।  फिर भी आजादी के जाँबाजों के लिए अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ  एक हथियार  थे । पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान क्रान्ति की ज्वाला क्रान्तिकारियों से कम प्रखर नहीं थी। इनमें प्रकाशित रचनायें जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक मजबूत आधार प्रदान करती थीं।क्रांतिकारियों के ओजस्वी  लेख जनता में नई स्फूर्ति और देशभक्ति का संचार करते थे।  गाँधी जी ने ‘हरिजन’, ‘यंग-इंडिया ’ , मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 'अल-हिलाल' ,तिलक ने 'केसरी और लाला लाजपत राय ने पंजाब से 'वंदे मातरम'  पत्र के माध्यम से जन जागृति फैलायी थी ।   

                                                                          

                  आज से ठीक १०० वर्ष पूर्व   उत्तर भारत में आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने‘सरस्वती’ और ‘अभ्युदय’ पत्रों से अर्जित  पत्रकारीय अनुभव के सहारे 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से हिंदी  साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया था ,विधार्थी जी ने  महाराणा प्रताप के उच्च त्याग और  स्वातंत्र्य-प्रेम, आत्म गौरव से प्रेरित होकर अपने पत्र का नाम ‘प्रताप’ रखा था। स्वाधीनता की अलख जगाने  वाला ‘प्रताप’,   प्रथम  अंक में मुखपृष्ठ पर विद्यार्थी जी के अनुरोध पर, आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी द्धारा लिखित यह अमर  पंक्तियां लिखी गयी थी- 


                          ' जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।

                              वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।’ 


           हालाकिं अब यह पक्तियां  मैथिलीशरण गुप्त की रची हुई मानी जाती  है। ‘प्रताप’ के पहले अंक में  विद्यार्थी ने ‘प्रताप की नीति’ शीर्षक से जो संपादकीय-अग्रलेख लिखा था, वह  हिंदी पत्रकारिता का अमूल्य अभिलेख है। इसका भावार्थ यह था कि...समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं। उन्नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्यापार, विद्या, कला, वैभव, मान, बल, सदाचार और सच्चरित्रता की वृद्धि से है। हम  किसी ऐसी बात को  मानने को तैयार न होंगे, जो मनुष्य-समाज और मनुष्य-धर्म के विकास और वृद्धि में बाधक हो।



                                    प्रताप का का कुल बजट, चार भागीदारों गणेशशंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, शिवनारायण मिश्र और यशोदानंदन  के सौ-सौ रुपए के  हिस्से जोड़कर उतना ही था, जितने में आज चार किलो मूंगफली आती है। संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी ही  थे।  अखबार की शुरुआत टेब्लॉयड से बड़े आकार में 16 पृष्ठों से हुई। उस समय ‘प्रताप’ का कार्यालय शहर के एक छोर पर पीली कोठी में रखा गया था। सोलह अंकों के बाद, छपाई का भुगतान समय से न हो पाने के कारण यह व्यवस्था रुक गई। यशोदानंदन ने अपना हिस्सा भी अखबार से वापस ले लिया। लगभग साल भर बाद नारायण प्रसाद अरोड़ा भी अपना निजी अखबार निकालने के इरादे से अलग हो गए। बाकी बचे विद्यार्थी जी और शिवनारायणजी। उनका तो संकल्प ही था ‘प्रताप’। विद्यार्थी जी के पास  पैसा नहीं था ,अपना प्रेस नहीं था , दूसरे प्रेस वाले छापने को तैयार नहीं , पर विद्यार्थी जी इससे जरा भी विचलित न हुए। उन्होंने जल्द ही  एक छोटा-सा अपना प्रेस भी खड़ा कर लिया और प्रेस का  कार्यालय भी पीली कोठी से उठकर फीलखाना वाली बिल्डिंग में आ गया, जो ‘प्रताप’ की अंतिम सांस (1964) तक उसका प्रकाशन-स्थल रहा और इसे ‘प्रताप प्रेस’ के नाम से जाना जाता रहा। वैसे था वह भी किराए पर ही। इन परिवर्तनों के बावजूद ‘प्रताप’ की आर्थिक दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। कुर्सी मेज खरीदने की सामर्थ्य न थी, दरी और चटाई पर बैठकर संपादन, प्रबंधन और डिस्पैच के सब काम अंजाम दिए जाते। संपादक, मैनेजर से लेकर चपरासी और दफ्तरी तक का काम गणेशजी और मिश्रजी को स्वयं करना पड़ता था । ‘प्रताप’ के एक अंक में शुरू में 16 पृष्ठ हुआ करते थे, लेकिन पहले ही वर्ष के दौरान पृष्ठों की संख्या बढ़कर बीस हो गई , फिर तो पृष्ठों की वृद्धि का सिलसिला चलता ही रहा- 20 से 24 हुए, आगे 28, 32, 36 और अंत में 40 तक पहुंचे।  सन 1930 में ‘प्रताप’ का एक अंक 40 पृष्ठ का  था और मात्र साढ़े तीन रुपए वार्षिक शुल्क था।



                                   गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही समर्पित है।उन्होंने  ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया बिगुल  फूँका था और बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया,  जो  हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं, जिन्हे पढकर लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे। प्रताप की आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखको व संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दी, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा।  सन 1915 में रात के समय प्रताप प्रेस, विद्यार्थी जी और मिश्रजी के घरों पर पुलिस का छापा पड़ा और ग्राहकों के पते का रजिस्टर और अन्य जरूरी कागजात उठवा लिए गए। लक्ष्मणसिंह चौहान (कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के पति) का नाटक ‘कुली प्रथा’ ‘प्रताप’ से छपकर आया ,उसे भी सरकार ने तुरंत जब्त कर लिया और प्रेस ऐक्ट के तहत 30 अक्तूबर 1916 को ‘प्रताप प्रेस’ से एक हजार रुपए की जमानत तलब की गई। अंग्रजों की दमनपूर्ण नीति की मुखर आलोचना के कारण सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद करवाकर  विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया। अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बाद भी गणेश शंकर विद्यार्थी की राष्ट्रवादी कलम की प्रखरता कम न हो सकी। जेल से छूटने के बाद आर्थिक संकट से जूझते उन्होंने  किसी तरह व्यवस्था जुटाई ,तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को मुक्त हस्त से आर्थिक सहयोग करने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी जी ने २३ नवम्बर १९१९ से साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन दैनिक समाचार पत्र के रूप में प्रारंभ कर दिया। 

                     प्रताप की पहचान लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से  सरकार विरोधी बन गई थी  और कानपुर के तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921 में भी जेल की सजा दी गई, परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को बोथरा न होने दिया । विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया।  विद्यार्थी जी का सम्पूर्ण पत्रकार जीवन ही राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, साम्प्रदायिक सदभाव  को समर्पित रहा।  राष्ट्रीय मुक्ति की आकांक्षा की जो चतुर्मुखी भूमिका ‘प्रताप’ निर्मित कर रहा था, ब्रिटिश सरकार के लिए तो असहय थी ही, देशी रियासतों, सामंतों, जमींदारों, पुलिस के नौकरशाहों और धर्म के नाम पर जनता को बरगलाने वाले मठों-महंतों को भी फूटी आंखों नहीं सुहा रही थी। फिर शुरू हुआ ‘प्रताप’ के विरुद्ध सरकारी दमन और मानहानि के मुकदमों का सिलसिला।  


                                विद्यार्थी जी को ‘प्रताप‘ में प्रकाशित  समाचारो  के कारण ही १९२१ से १९३१ तक पाँच बार जेल जाना पड़ा , विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, परन्तु उनके भीतर  एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में निर्मित  पुस्तकालय में सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चौरी-चौरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से इन जनप्रतिनिधियों के बारे में नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता पुष्प की अभिलाषा प्रताप अखबार में ही मई १९२२ में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीनसोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।
                                             प्रताप में  ना  केवल क्रान्तिकारी लेखो का प्रकाशन होता था , बल्कि यह क्रांतिकारियों की अभेद्य शरणस्थली भी था , प्रताप प्रेस की अनूठी बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। बनारस षडयंत्र केस  के फरार अभियुक्त  सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं. राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली थी ।  अमर शहीद भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक पत्रकारिता  का कार्य किया।उन्होंने  दरियागंज दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए  दिल्ली की यात्रा करने के बाद  ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया था । चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भेंट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया।   विद्यार्थी जी ने बाद में भी राम प्रसाद बिस्मिल की माँ की मदद की और रोशन सिंह की कन्या का कन्यादान भी किया था । उन्होंने ही  अशफाकउल्ला खान की कब्र भी बनबाई थी । १९१६ में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे थे । 

                  देश में  स्वतंत्रता का आन्दोलन बढने पर  ब्रिटिश शासकों ने धार्मिक भेदभाव की  कूटनीति का प्रयोग करके दंगे करवाये, जिससे  दोनों संप्रदायों  के ढेर सारे लोग मारे गये। गणेश शंकर विद्यार्थी  की आत्मा इस दृश्य को देख कर कराह उठी, वह दंगो को रोकने के लिए अकेले हिंसक भीड़ के सामने खड़े हो जाते थे । भगतसिंह और साथियों की शहादत के उपरांत २५ मार्च १९३१ को चौबे गोला कानपुर में भीषण दंगे में घिरे हुए परिवारों की रक्षा के लिए   विद्यार्थी जी ने अपने जीवन को बलिदान कर दिया  था ।उनके निधन का समाचार, सुनकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में लिखा था ‘उनका खून हिन्दु-मुसलमानों के दिलों को जोड़ने के लिए सीमेंट बनेगा।' खून के प्यासे  दंगाइयों से घिरे हुए भी   विद्यार्थी  जी ने अंत में जीवटता पूर्वक यह  कहा था- ‘ यदि मेरे खून से ही सींचे जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता का पौधा बढ़ सके और तुम्हारे खून की प्यास बुझ सके, तो मेरा खून कर डालो।' अमर शहीद गणेश शंकर विधार्थी आज हमारे बीच नहीं हैं, कानपुर के फीलखाना में स्थित उनके प्रताप प्रेस का वह भवन आज  भी जीर्ण शीर्ण हालत में अपनी बदहाली पर खुद आसूं बहाता हुआ मौजूद है,  यह विडम्बना है कि स्वाधीनता उपरांत भी प्रताप और विद्यार्थी जी की  यादों को संजोने के लिए कुछ भी नहीं किया गया  है । कविवर सनेही जी के शब्दों में हम कह सकतें हैं-

                                                  ''  दीवान-ए-वतन गया, जंजीर रह गई,
                                                    चमकी चमक के कौन की तकदीर रह गई।
                                                    जालिम फलक ने लाख मिटाने की फिक्र की,
                                                     हर दिल में अक्स रह गया तस्वीर रह गई। ''

                                                                                                                        - अनिल वर्मा



Bhagat Singh's revolutionary Brother Sardar Kultar Singh

          भगत सिंह के क्रान्तिकारी भाई  कुलतार सिंह   

           

with Anil Verma
 son Kiranjeet Singh , Anil Verma,Joravar 


Kultar singh ,his wife Satvinder with Actor manoz kumar


with his family

with Mata Vidhyavati


                                              अमर शहीद भगत सिंह का सम्पूर्ण परिवार देशप्रेम और बलिदान की अनुपम मिसाल है , भगत सिंह की शहादत के बाद उनके परिवार में क्रांति की मशाल को उनके छोटे भाई कुलतार सिंह ने बखूबी थामा था . भगत सिंह ने अपनी  फांसी के २० दिन पूर्व सेंट्रल जेल लाहौर से  कुलतार सिंह को लिखे गए अंतिम पत्र में हौसले बनाये रखने की नसीहत देते हुए लिखा था कि -

                                       ''  कोई दम भर का मेहमां हूँ, ऐ अहले- महफ़िल 
                                                     चिरागे-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ 
                                           हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिज़ली ,
                                           ये मुश्ते-खाक है फानी, रहे रहे न रहे ''


                                  कुलतार सिंह ने   इन शब्दों को जीवन में आत्मसात करके , देश और समाज की सेवा करते हुए जीवन में हर कठिन घड़ी का सामना बुलंद हौसले के साथ किया . २९ अगस्त १९१८ को नवांकोट लाहौर( अब पाकिस्तान ) में जन्मे कुलतारसिंह को वतन से मोहब्बत का जूनून विरासत में मिला था . पिता किशनसिंह की निर्भीकता  एवं सादगी, चाचा अजीत सिंह और भाई भगत सिंह के  त्याग और बलिदान  के  श्रेष्ठ गुण उनकी रगों में समाये हुए थे . चाचा  सरदार अजीत सिंह ३७ वर्ष तक देश के बाहर रहकर आज़ादी के लिए लड़ते रहे , उन्हीं  की निस्संतान पत्नी हरनाम कौर ने ही  कुलतार सिंह की परवरिश की थी , उन्होंने  खटकरकलाँ  के उसी प्राथमिक  स्कूल से विद्यार्जन किया  था , जहाँ कभी  भगतसिंह भी  पढ़े थे,   बचपन से ही भगतसिंह उन्हें बहुत चाहते थे,वह  भगत सिंह से जेल में भी मिलने जाते थे , भगतसिंह ने उन्हें  अपने अंतिम पत्र में लिखा भी था कि  तुम्हारे आंसू मुझसे सहन नहीं होते है . 

                                    कुलतार सिंह नौजवान भारत सभा के संस्थापक सदस्यों  से थे .फिर सन १९२९ में लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में वह सेवादल के सदस्य भी रहे .भाई भगत सिंह ने अपने आदर्शों पर कायम रहकर  फांसी के फन्दे पर झूलकर देश की युवा पीढ़ी में क्रांति की जो अग्नि प्रज्वलित की थी , उसने कुलतार सिंह के अंतर्मन पर भी गहरा असर डाला था ,  सन १९३५ में उन्हें जॉर्ज पंचम के सिल्वर जुबली कार्यकर्मों  में बाधा डालने का काम सौंपा गया था , जिसमें वह    पंजाब के कई जिलों  में बिजली की सप्लाई फ़ेल करके  बखूबी कामयाब रहे थे . सन १९३६-४० में वह पंजाब किसान सभा में सक्रिय रहे , १ मार्च १९३७ को  श्रीमती सतिन्दर कौर के साथ उनका विवाह हुआ था , अंग्रेजों ने कुलतार सिंह को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान १९३९ से १९४५ तक रावलपिंडी , गुजरात , लाहौर और देवली की विभिन्न जेल में निरुद्ध रखा  था , उस दौरान उन्होंने जीवटतापूर्वक  एक बार ६३दिन और फिर ३२ दिन की  लम्बी भूख हडताल की थी .  तब सतिंदर कौर ने उस संघर्ष के दौर  में ना  केवल साहस   के साथ घर और खेती-बाड़ी  संभाली  , वरन भगत सिंह के माता पिता की खूब सेवा भी की थी .

                                 सन १९४७ में स्वाधीनता प्राप्ति उपरांत जब लायलपुर से विस्थापित  होनें के बाद कुलतार सिंह का परिवार जब वापस जलंधर लौटा , तब वह ४ वर्ष तक शरणार्थियों की सेवा और पुनर्वास के कामों में जुटे रहे , फिर सन १९५१ में वह सहारनपुर में फॉर्महाउस खरीदकर वही बस गए , सन १९६३ में जब भगत सिंह  के अनन्य साथी  बटुकेश्वर दत्त माता विद्यावती से मिलने खटकरकलां पधारे थे  , तब कुलतारसिंह ने बहुत जोश से उनका शानदार स्वागत कराया था . सन १९७४ में  वह उत्तरप्रदेश  विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से  सहारनपुर से विधायक निर्वाचित हुए थे, फिर उ. प्र.  के मुख्यमन्त्री श्री  नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें अपने मत्रिमंडल में खाद्य और राजनैतिक पेंशन विभाग का राज्यमंत्री बनाया था , तब उन्होंने हजारों स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के लंबित पेंशन प्रकरण निपटाए थे ,  लखनऊ के पास काकोरी में भव्य  काकोरी स्मारक बनवाया   और सन १९७६ में उनके अनथक प्रयासों से ही वाराणसी में अमरशहीद  चन्द्रशेखर आज़ाद के अस्थि कलश को खोज कर कई शहरों में जुलूस निकालने  के उपरांत  लखनऊ संग्रहालय  में स्थापित किया गया था ,

                         सन १९८६ में जब पंजाब आतंकवाद के दावानल से धधक रहा था , तब  कुलतार सिंह ने अमेरिका,कनाडा और ब्रिटेन की यात्रा करके  प्रवासी  सिक्खों में अलगाव और  आतंकवाद के  खिलाफ संघर्ष करने की अलख जगायी थी , उन्होंने क्रान्तिकारी शिव वर्मा , दुर्गा भाभी , जयदेव कपूर , शचीन्द्र नाथ बक्शी के साथ मिलकर शहीदों के अधूरे सपनों को पूरा करने का अभियान जारी रखा , वह शहीद शोध संस्थान  लखनऊ और उत्त्तर प्रदेश स्वाधीनता सेनानी संघ के अध्यक्ष भी रहे  तथा आर्य समाज की गतिविधियों से भी सदैव जुड़े रहे , उन्होंने अपने  दोनों  पुत्र  जोरावर सिंह ,  किरनजीत सिंह तथा तीनों पुत्रियों वीरेंद्र, इन्द्रजीत और कवलजीत को   देशभक्ति के पारिवारिक संस्कार दिए थे , वीरेन्द्र संधू ने भगत सिंह पर प्रख्यात पुस्तक '' भगत सिंह एवं उनके मृत्युंजय  पुरखे ' लिखी है .  डॉ. के . एल. जौहर ने कुलतार सिंह  पर  एक पुस्तक '' सरदार कुलतार सिंह सिम्बल ऑफ करेज एंड  कनविक्शन ''लिखी है. 

                            यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैंने  सन २००३ में प्रधुम्न नगर सहारनपुर( उ.प्र.) में  स्थित' भगत सिंह निवास 'जाकर  इस महान क्रांतिकारी  की चरणधूलि और आशीर्वाद प्राप्त किया था , तब वह बीमारी और वृद्धवास्था  के कारण अधिक बोलने की स्थिति में नहीं थे  . पहले ३ जून २००४ को  कुलतार सिंह जी की पत्नी श्रीमती सतविंदर कौर दुनिया से विदा हो गयी  , फिर उसके २ माह बाद ५ सितम्बर २००४ को चंडीगढ़ में कुलतार सिंह भी इस नश्वर संसार को छोड़कर चले गए , पर आज़ादी की लड़ाई में शहीद भगतसिंह के साथ  कुलतार सिंह जी की यादें भी हमेशा कायम रहेगी 

                                                                                                                       -अनिल  वर्मा  .








Bhagat Singh's Great Sister Bibi Amar Kaur

                   भगत सिंह की क्रान्तिकारी बहन  बीबी अमर कौर


                    अमरशहीद भगत सिंह के महान व्यक्तित्व और उनके द्वारा जागृत देशप्रेम की अलख से उस दौर में नौजवानों की समूची पीढ़ी प्रेरित हुई थी,  परिवार में  उनकी क्रान्तिकारी विचारधारा का सबसे गहरा प्रभाव 
छोटी बहन बीबी अमर कौर पर  पड़ा था . वह  भगत सिंह से ३ वर्ष छोटी थीं , पर उनका बचपन एक साथ खेलते कूदते बीता था , सभी ६ भाई ३ बहिनों में से  उन दोनों में ही आपस में सबसे ज्यादा स्नेह था , भगत सिंह उन्हें  प्यार से 'अमरो'  कहते थे और अपने बालमन में उमड़ती देशप्रेम की बाते  उनसे ही करते थे.  भगत सिंह की लाडली बहन अमर कौर का जन्म १ जुलाई १९१० को हुआ था , इसके कुछ दिन बाद ही २० जुलाई को उनके चाचा स्वर्ण सिंह की मृत्यु हो  गयी थी , फिर भी पिता सरदार किशन सिंह और माता विद्यावती ने बहुत उत्साह से उनका नाम अमर रखा था जिसे उन्होंनें बखूबी सार्थक किया . 

               भगतसिंह के अमर कौर के साथ बचपन के संस्मरणों में से  सबसे यादगार वह घटना  है, जब सन १९१९ में  ब्रिटिश हूकुमत द्वारा जलियांवाला बाग में भीषण नरसंहार होने पर दूसरे दिन सुबह भगतसिंह स्कूल से बिना किसी को बताये अमृतसर चले गए थे और खून से लथपत मिट्टी एक छोटी  शीशी में भर कर देर रात घर लौटे  थे,जब अमर कौर  अपने स्वभाव के अनुरूप उछलते कूदते उनके पास पहुच कर बोलीं कि" वीरा आज इतनी देर कर दी, मैंने आपके हिस्से के फल रखे हैं चलो खा लो'' , तो भगत सिंह ने बड़ी  उदासी के साथ खाने से इंकार करते हुए  खून से रंगी वह शीशी दिखाकर यह कहा था कि 'अंग्रेजों ने हमारे बहुत आदमी मार दिए हैं', फिर वह कुछ फूल तोड़कर लाये और शीशी के चारों ओर रख दिए ,कई दिनों तक भाई बहन का फूल चढ़ाने का क्रम जारी रहा . यह बलिदान की वंदना थी, भगत सिंह उन्हें सदैव निर्भीक, बहादुर और देशभक्त बनाने हेतु  प्रयासरत रहते थे.

                 जब लाहौर षड़यंत्र केस में  भगत सिंह और उनके साथी लाहौर की जेल में बंद थे , तब अमर कौर अक्सर उनसे मिलने आती थीं , २३ मार्च १९३१ को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव  की फांसी के बाद  वह हुसैनीवाला में उस ओर दौड़ पड़ीं, जहां ब्रिटिश सरकार ने उनके  तीनो भाइयों  के शवों के टुकड़ों को मिट्टी तेल से जलाने की कुचेष्टा की थी  . वह अपने शहीद भाईयों  के शवों के चंद टुकड़े  स्मृति के बतौर  लायी थीं  और उन्होंने अपने तीनों वीरभाइयों  की  राह  पर आजीवन  चलने की कसम खायी  थी ,

                           एक बार जब उनके भाई क्रान्तिकारी सरदार कुलतार सिंह को जेल में  डाल दिया गया था , बीमार होने से जब उन्हें लाहौर के एक अस्पताल में भर्ती रखा गया था , तब  अमर कौर साहसपूर्वक  उन्हें भगाने का प्रयास कर रही थीं , इस योजना  की खबर मिलने पर उनके बहादुर पिता किशन सिंह ने  उन्हें यह जोखिम का कार्य से रोकने के विपरीत , यह कहा था कि' मैं अब फालिज़ गिरने से कमजोर हो गया हूँ , कहीं मेरे मुँह से कुछ निकल ना जाये , इसलिए मुझे कुछ नहीं  बताओ , मेरे पास ५०० रुपये हैं , यह रख लो और जो करना है वह करो.  '
        
                                                    बीबी अमर कौर ने ९ अक्टूबर १९४२ को लाहौर में जेल गेट पर सफलता पूर्वक तिरंगे झंडे का धव्जारोहण किया था , तब उन्हें  गिरफ्तार कर जेल भेजा दिया गया था,सन १९४५ में ब्रिटिश सरकार के विरोध में भाषण देने और  आन्दोलन करने के अपराध   में उन्हें  १ वर्ष ६ माह के कैद की सजा दी गयी थी , उस समय उनके पुत्र जगमोहन केवल १ माह के थे , वह भी अपनी माँ के साथ अम्बाला जेल में रखे गए थे . तब उसी जेल में आज़ाद हिन्द फौज  के काफी सैनिक  भी निरुद्ध थे  , शिशु जगमोहन उन सब की गोद में खेलते रहते थे, आखिर उन्हें ९ माह की यातना भुगतने के  बाद जेल से रिहा कर दिया गया.   

                        अमर कौर का विवाह पंजाब के एक किसान श्री मक्खनसिंह से हुआ था, वह बहुत ही सरल, सहज और नेक दिल इन्सान थे , उन्होंने अपनी पत्नी के द्वारा किये जा रहे  देशहित के राजनीतिक कार्यों में कभी  बाधा नहीं डाली , अमर कौर के ४ पुत्र और २ पुत्रियाँ हुए , उन्होंने एक पुत्र सरदार अजीत सिंह की निस्संतान  पत्नी को और एक पुत्र तन्हां रह रहे अपने सास ससुर को देकर काफी उदारता का परिचय दिया था , उनके यशस्वी पुत्र प्रो. जगमोहन यह बताते हैं कि  माता जी बचपन में उन सब भाई-बहिनों को पड़ोस के एक कश्मीरी परिवार की देख रेख में छोड़कर आज़ादी के कार्यो में हिस्सा लेने चली जाती थीं , पर उन्हें बड़े प्यार से देशप्रेम की बातें बताती थीं , उन्होंने परिवार  के साथ देश के प्रति अपने कर्त्तव्य पालन में कभी कोई कोताही नहीं की.

                          सन १९४७   में  देश की  आजादी और बटवारे  के  बाद वे  शरणार्थियों और  विस्थापित स्त्रियों के पुनर्वास के कार्यों में जुट गयी थीं ।  १९५६ में मजदूर-किसानों की माँगों के साथ उन्होंने ४५ दिन की भूख हड़ताल की थी । सन  १९७८ में   पंजाब में ‘जम्हूरी अधिकार सभा’ की ओर से  पुलिस दमन के विरोध में वे उग्र होकर संघर्ष करने में अग्रणी रहीं । बीबी अमर कौर जीवन संध्या में भी राष्ट्र  के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह में सजग रहीं , जब ८ अप्रैल  १९८१ को  भगत सिंह की शहादत की  ५० वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी , तब बीबी अमर कौर ने लोक सभा में' इन्कलाब जिंदाबाद' के नारे लगाते हुए उसी दर्शक दीर्घा से सरकारी नीतियों के विरोध में पर्चे फेंके थे , जहाँ से ५२ साल पहले भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सुसुप्त जनता को जगाने हेतु  धमाका करने के लिए बम और पर्चे फेंके थे , अमर कौर के उन पर्चों में लिखा था कि क्या  इसी आज़ादी के लिए मेरे भाइयों  ने अपनी जिन्दगी कुर्बान की थी ?

                 सन १९८३  में समूचे पंजाब की धरती  खालिस्तान के आतंकवाद के विभीषिका से थरथरा रही थी ,अक्टूबर १९८३ में बीबी अमर कौर बहुत ज्यादा बीमार हो चुकी थीं और वह कोमा में चली गयी थीं , पर  तब  यह देखकर सभी  दंग रह गए थे , जब वह ४ दिसम्बर १९८३ को  अचानक बिस्तर से उठ गयीं और यह बोलीं  कि 'मेरा भाई कह रहा है, मेरा देश मेरा पंजाब जल रहा है और तुम आराम से सोयी हुई हो' , इसके बाद वह आतंकवाद के खिलाफ हिंदू-सिक्ख सदभाव की सांझी विरासत का झंडा लेकर आगे बढ़ीं . उन्होंने  आतकंवाद के विरोध में  १ लाख पर्चे छपवा कर पूरे पंजाब में  बंटवाये .वह अपनी जिन्दगी के अंतिम समय तक  पंजाब के गाँव-गाँव में जाकर लोगों को शहीद  भगत सिंह के विचारों से प्रेरणा लेकर उन्हें आतकंवाद से दूर रहने के लिए जागृत करने की   मुहिम में जुटी  रहीं.  उन्होंने १२ मई  १९८४ को देश सेवा करते हुए ही ,गुमनामी के अन्धेरें में ही अंतिम साँसे ली थीं और  फिर सदा के लिए अपने भाई के पास चली गयीं .


              उन्होंने अपने अंतिम दिनों में देश के नौजवानों के नाम  पर  जो वसीयत लिपिबद्ध की थी, उसका एक-एक शब्द देशप्रेम के सुनहरे हर्फों से मढ़ा हुआ है , इस ऐतिहासिक दस्तावेज में प्रचलित अर्थ में किसी संपत्ति के स्वामित्व की घोषणा नहीं है, बल्कि इसमें  देश और समाज की चिंता के साथ शहीदों के आदर्शों और भविष्य के क्रांतिकारी संघर्ष की एक संक्षिप्त और  विचारोत्तेजक अनुगूँज है जहाँ एक स्त्री जमीन-जायदाद और घर परिवार के सीमितदायरे से  मुक्त होकर  सिर्फ देश और समाज के नवनिर्माण के लिए क्रांतिकारियों के सपनों का ताना-बाना बुनती है और नई पीढ़ी के हाथों में इंकलाब की मशाल थमाना चाहती है। अपनी वसीयत में उन्होंने दर्ज किया है- ‘१९२९ में मजदूरों और किसानों को कुचलने के लिए अंग्रेज जिन कानूनों को लोगों पर थोपना चाहते थे, जिसके खिलाफ भगत सिंह और दत्त ने असेंबली में बम फेंका था, वही कानून आज श्रमिक और ईमानदार वर्गों पर थोपे जा रहे हैं. वास्तव में वह देश के हालत से बहुत दुखी थीं, फिर भी उनके भीतर यह उम्मीदें जिंदा थीं कि चारों ओर फैला अंधेरा  कितना भी गहरा हो जाये , लेकिन कुछ दृढ़ कोशिशों से उजियारा लाया जा सकता है । इस ऐतिहासिक वसीयतनामे के अंतिम शब्द इस महान  क्रांतिकारी महिला की विचारधारा और उनकी विराट दृष्टि के परिचायक  हैं कि ‘मेरे मरने के बाद कोई धार्मिक रस्म न की जाए। प्रचलित धारणा है कि गांवों में मेहनतकश दलित लोगों को मुर्दा शरीर को छूने नहीं दिया जाता, क्योंकि इससे स्वर्ग में जगह नहीं मिलती! इसलिए मेरी यह इच्छा है कि मेरी अर्थी उठाने वाले चार आदमियों में से दो मेरे इन भाइयों में से हों, जिनके साथ आज भी सामाजिक अत्याचार हो रहा है।  मरने के बाद मेरी आत्मा की शांति के लिए अपील न की जाए, क्योंकि जब तक लोग दुखी हैं और उन्हें शांति नहीं मिलती, मुझे शांति कैसे मिलेगी!  मेरी राख हुसैनीवाला और सतलज नदी में डाली जाए। १९४७ में अंग्रेज जाते समय हमें दो फाड़ कर खूनोखून कर गए थे। मैं सदा सीमापार के भाइयों से मिलने को तड़पती रही हूं, लेकिन कोई जरिया नहीं बन पाया। पार जा रहे नदी के पानी के साथ मेरी यादें उस ओर के भाई-बहनों तक भी पहुँचे।’

                  क्या आज नई पीढ़ी  बीबी अमर कौर की इस वसीयत के  मर्म को आत्मसात कर सकेगीं ? यह विडंबना ही है कि हम आज भी शहीद भगत सिंह के सपनों के भारत का निर्माण नहीं कर सके हैं,  बीबी अमर कौर ने आजीवन अपने वीर जी के क्रान्तिकारी विचारों की विरासत को आगे बढाया है , देश और समाज के लिए उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है .
                                                                                                              


                                   
                    
with B K Dutt
with Rajguru's Sister & Mother
with BK Dutt's siter Pramila
                   


Bhagat Singh ka Shahadat isthal : Central Jail Lahore

भगत सिंह  का शहादत स्थल : सेंट्रल जेल लाहौर 
                              



फांसी का फन्दा

शैडमैन चौक

                      












                                                                 २३ मार्च सन १९३१ शाम करीब  ७ बजे सेंट्रल जेल लाहौर में भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव ने काल  कोठरियों से बाहर आकर एक दूसरे के हाथ थाम लिए 
थे,  तभी भगतसिंह के कंठ से मार्मिक गीत फूट पड़ा और तीनो झूमकर गा रहे थे -

                                             '' दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत ,
                                                    मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी .''

                          भारत माता के ये महान सपूत झूमते गाते फांसी घर की ओंर चले, उनके पीछे पूरा काफिला चला , आगे पीछे जेल के वार्डन , अगल बगल सरकारी अफसर और बीच में गूँज रहा था   आज़ादी के मतवालों का तराना , फिर फांसीघर आ गया , सामने मंच पर तीन फंदे झूल रहे थे , अंदर लाहौर  का अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर तीनो को खुला देखकर कुछ परेशांन  सा खड़ा था ,तभी भगत सिंह उसकी ओर मुखातिब हुए , वह बोले   '' Well Mr. Magistrate,you are fortunate to be able today to see how Indian revolutionries can embress death with pleasure for the sake of their supream ideal''

                                    भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सीना ताने हुए जोश के साथ फांसी के मंच की सीढियों पर चढ़ें,भगत सिंह ने अपने साथियों से अलविदा कहा , इसके जबाब में उनके साथियों ने ''भगतसिंह जिंदाबाद''  के नारे लगाये , फिर तीनो के   '' इन्कलाब जिंदाबाद,   डाउन विथ इम्प्रिलिज्म,  डाउन विथ यूनियन जैक ''के नारों से पूरा आकाश गुंजायमान हो गया , जेल के बैरिको में निरुद्ध सभी बंदियों  के नारों के  स्वर भी जेल की दीवारो को भेदकर बाहर तक पहुच रहे थे.  भगत सिंह , राजगुरु  और सुखदेव ने फांसी के  फंदों को चूमा और अपने ही हाथो अपने गले में डाल लिया , तीनो वीरों के नारे आसमान की बुलंदियों को छू रहे थे, तीनो मित्रो के पहले पैर , फिर हाथ बांध दिए गए , चेहरे पर काली टोपी चढ़ा दी गयी ,   मजिस्ट्रेट ने घड़ी देखी  ७ बजकर ३३ मिनट , जल्लादों  ने मंच के नीचे आकर कांपते हाथो से चरखी घूमा  दी, तख्ता गिरा और फिर यह तीनो वीर एक साथ शहीद हो गए अपने  वतन के लिए .

                         इस ऐतिहासिक घटना के आज  ८२ वर्ष बाद इतिहास का पुनराविलोकन से यह ज्ञात  होता  है  कि लाहौर की वह सेंट्रल जेल, जहाँ भगत सिंह और उनके साथी शहीद हुए थे , अब  लगभग नस्त्नाबूत हो चुकी है , जिन कालकोठरियों में इन शहीदों को रखा गया था , वह खाक में मिल चुकी है . लाहौर में टेम्पल रोड के निकट जेल रोड आज भी बहुत शांत स्थान है , जिसके दोनों और शानदार लम्बे  वृछो की अनवरत श्रंखला है , यदि गुलमर्ग की ओंर जाये,  तो अभी भी दाँयी ओर सेंट्रल जेल की मिट्टी की एक दीवार के भग्नावशेष नज़र आते है. जेल की ऊँची दीवारों के पास जहाँ शहीदों की फांसी  का तख्ता था , अब वह ऐतिहासिक स्थल ट्राफिक सिग्नल का चबूतरा में तब्दील हो चूका  है , जिसके चारो ओर हर दिन हजारों  गाड़ियाँ गुजरती है, धूल और धुए के गुबार उभरते है और उनमें विलीन हो जाती है , इन शहीदों से जुडी अतीत की सुनहरी यादें .

                                       किसी ज़माने में सेंट्रल जेल लाहौर ( जिसे कोट लखपत जेल भी कहा जाता था )  इतने बड़े परिसर में फैली हुई थी कि जेलर  जेल के एक से दूसरे बैरक में जाने के लिए बग्घी का उपयोग करते थे, पर वहां अब एक टूटी फूटी दीवार के अवशेष के सिवा कुछ नहीं बचा है,  जेल के अधिकांश हिस्से को तोड़कर यहाँ एक शानदार' शैडमैन कालोनी ' बनायीं जा चुकी है, अब तो इस कालोनी का शुमार लाहौर के सबसे महंगे  और पाश  इलाके में होता  है, पर यह कहा जाता है कि फांसी के तख्ते वाली  भूमि के टुकड़े को खरीदने का  साहस काफी दिनों  तक कोई नहीं जुटा पा रहा था ,तो  पाकिस्तानी हूकुमत ने ठीक उसी जगह पर  ट्राफिक पॉइंट बनवा  दिया था , इस गोलचक्कर के   बारे में एक ओर दिलचस्प कहानी है ,यह कहा जाता है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिखार अली भुट्टो के आदेश पर  नेशनल असेंबली के सदस्य नवाज़ मोहम्मद खान की हत्या के लिए इसी चौक पर उस पर गोलिया चलायी गयी थी , जो उसके पिता अहमद रजा कसूरी  को लगी थी और वह बुरी तरह घायल हुए थे , कसूरी के दादा उन लोगो में से थे , जिन्होंने भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के खिलाफ गवाही दी थी और उनके शवो की शिनाख्त की थी, पुराने लोगो की  यह धारणा थी  कि  'नैमोसिस ' (बदले की देवी ) ने कसूरी परिवार को इस गोलचक्कर पर धर दबोचा था .

                              अखंड भारत के जिस लाहौर शहर में  क्रांतिकारी भगत सिंह और सुखदेव नॅशनल  कालेज में पढ़े बड़े थे ,  उन्होने आजाद के साथ मिलकर लाला लाजपत रॉय की हत्या का बदला लेने के लिए एडीशिनल  एस. पी. सांडर्स का यही वध करके राष्ट्रीय स्वाभिमान को जाग्रत किया था , भूख हड़ताले  की ,  जेल में जुल्म सहे  और   इस धरती को अपने पवान लहू से सीचा था  ,यह विडम्बना है  उसी लाहौर में यह  अमरशहीद आज़ादी के बाद बेगाने हो गए है , उन्हें पूरी तरह से भुला दिया गया  है , यूँ भी शहीदों का देशभक्ति के अलावा कोई मज़हब  नहीं होता है , फिर भी  न जाने क्यों पाकिस्तानी हूकुमत उन्हे अपना नहीं सकी है  और  आज तक  वहां  भगत सिंह और बाकी शहीदों का कोई स्मारक नहीं बन सका है , यद्दपि हाल  के कुछ वर्षो में  लाहौर की  फिजां  में कुछ बदलाव नज़र  आया  है ,अब यहाँ की  नयी पीढ़ी  भी भगत सिंह की दीवानी हो रही है ,  उनके दबाब के कारण हालाकिं प्रशासन ने  यहाँ भगत सिंह और उनके साथियों की  स्म्रातियों को संजोने के लिए एक भव्य स्मारक बनाने की  धोषणा की है और शैडमेन चौक का नाम भी  भगत सिंह चौक किया जाना प्रस्तावित  है , इस बारे में लाहौर हाईकोर्ट में एक रिट भी लंबित है   ,परन्तु  जब तक इस धोषणा  का क्रियान्वयन न हो जाये , तब तक पाकिस्तानी  हुकुमरानों  पर  यकीन   करना कठिन ही है .


                                                                                                             -   अनिल वर्मा
                                                                                          anilverma55555@gmail.com