गुरु दत्त की ५० वीं पुण्यतिथि 
                                                                        - अनिल वर्मा

              


 


                 आज से ठीक ५० साल पहले वह रहस्यमय बदनसीब रात थी , जिसने गुरु दत्त को सदैव के लिए हमसे छीन लिया . उनकी मौत महज एक हादसा थी या ख़ुदकुशी ,यह रहस्य १९६४ में जहाँ था  , आज भी वही है , उनकी मौत की अबूझ पहेली शायद कभी सुलझ न सकेगी। 

                             यह कहा जाता है कि  गुरु दत्त ने वहीदा रहमान की बेवफाई के कारण उनका दिल टूट गया था , और वह गहन हताशा में डूब गए थे , पत्नी गीता को वो कभी वापस नहीं पा सकते थे। इसलिए उन्होंने मौत को ही गले लगाना बेहतर था। गुरदत्त के निधन के बाद वहीदा ने एक बयान जारी किया था। जिसमें उन्होंने कहा था  “ऊपरवाले ने उन्हें सबकुछ दिया था लेकिन उन्हें संतोष नहीं था , वह कभी संतुष्ट नहीं होते थे।  शायद इसीलिए जो चीज उन्हें जिंदगी नहीं दे पा रही थी, उसे उन्होंने मौत में तलाशा।  उन्हें पूर्ण संतुष्टी की तलाश थी। कोई तृप्ति, कोई मौत, कोई अंत, कोई पूर्णता वह चाहते थे। मुझे नहीं पता उनकी मौत दुर्घटना थी या घटना, लेकिन इतना जानती हूं, उन्हें कोई नहीं बचा सकता था। उनमें बचने की चाह ही नहीं थी। मैंने उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की कि जिंदगी में सब कुछ नहीं मिल सकता और मौत हर सवाल का जवाब नहीं है। मगर वे नहीं माने। मैं जानती हूं वो मौत से मोहब्बत करते थे, बेपनाह मोहब्बत, इसलिए उन्होंने इसे गले लगा लिया।”

                      इस दुनिया से जाने वाले कभी लौट कर वापस नहीं आते ,बस उनकी यादें शेष रह जाती है। गुरुदत्त जी सिनेमा के रुपहले परदे पर और हम सब प्रशंसकों के दिलो में हमेशा अमर रहेंगे .हम सब की ओर से महानायक गुरु दत्त को आँसूओं से धुँधली हो रही नज़रों और भरे हुई  कंठ के साथ उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित है।
                                                                                                                            - अनिल वर्मा

क्रांतिकारी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"




 क्रांतिकारी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
                                                                            -    अनिल वर्मा
  
 
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                                      अमरशहीद भगतसिंह और आज़ाद के साथी रहे सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" जीवन के प्रथम  सौपान में  देश की आज़ादी की संघर्षगाथा में भाग लेने वाले एक महान क्रांतिकारी थे , बाद में वह सैनिक बने और फिर  उन्हें  हिंदी साहित्य जगत में प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना गया।  अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं।     
  
                           अज्ञेय का जन्म ७ मार्च १९११ को  उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ था । उनके पिता पण्डित हीरानंद शास्त्री प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास आदि कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता। अज्ञेय ने घर पर ही भाषा, साहित्य, इतिहास और विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ की। 1925 में अज्ञेय ने मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की इसके बाद दो वर्ष मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में एवं तीन वर्ष फ़ॉर्मन कॉलेज, लाहौर में संस्थागत शिक्षा पाई। वहीं बी.एस.सी.और अंग्रेज़ी में एम.ए.पूर्वार्द्ध पूरा किया। 

                                                       लाहौर में आने के बाद अज्ञेय का झुकाव राष्ट्रीय  आंदोलन की ओर होने लगा था।  वह  १९२९ में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में अज्ञेय एक स्वयंसेवक अधिकारी के तौर पर मौजूद थे। इन्हीं के स्वयंसेवक दल ने उन लोगो  को अपने कैंप में  बंद कर के रखा था जो गांधी जी के खिलाफ नारे लगाने वाले थे। फिर लाहौर में पढ़ने के दौरान वह क्रांतिकारी भगत सिंह , सुखदेव , धन्वन्तरि एवं  यशपाल के संपर्क में आकर क्रांतिकारी संस्था नौजवान भारत सभा और  हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बन गए  और  वह क्रांतिकारी आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़कर फरार  हो गए , जिससे उनकी पढ़ाई पूरी न हो सकी।  वह   विज्ञान के छात्र थे और मिस्त्री के काम में भी माहिर थे, अतः दल ने उन्हें अमृतसर में हथियारों की मरम्मत के कारखाने का दायित्व सौप दिया।  वह छदम  मुस्लिम नाम से बिजली के काम की दुकान के बहाने  पिस्तौल सुधारने और खाली कारतूस भरने का कार्य सफलता पूर्वक करने लगे। इसके बाद दल के सेनापति चंद्रशेखर आज़ाद के कहने पर दिल्ली की क़ुतुब रोड पर ऊपर की मंज़िल का एक मकान किराये पर लेकर उस पर '' हिमालयन टॉयलेट फैक्ट्री '' का बोर्ड टांग दिया गया,पर  वास्तव में यह गुप्त बम फैक्ट्री थी ,यहाँ पर अज्ञेय  के साथ क्रांतिकारी यशपाल , प्रकाशवती , विमल कुमार जैन , कैलाशपति भवानी  सहाय भी काम करते थे , कभी कभी वहां दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी भी आती थी। अमृतसर की फैक्ट्री में  अज्ञेय की जरुरत होने पर उन्हें दुबारा वहां भेजा गया , पुलिस की भारी धरपकड़  बावजूद एक सहपाठी सबइंस्पेक्टर के सहयोग से वह लाहौर स्टेशन पर तो किसी तरह   बच गए , पर फिर १९३० में वह फैक्ट्री में कई पिस्तौलों के साथ  गिरफ़्तार कर लिया गया । उन पर मुक़दमा चला और ५ साल की सजा दी गयी, जिसे  उन्होंने १९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों मे भोगा, पर उन्होंने जेल जीवन का वृहद उपयोग अध्ययन और लेखन में पारंगत होने में किया  और  वह कालांतर में हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार बन गए ।

                                                         जेल जीवन का प्रभाव अज्ञेय के लेखन पर खूब पड़ा है। उनकी कहानी ' कोठरी की बात ' पढ़कर यह पता लगता है कि  आंदोलनकारी कैसे मजबूत बनते होगे जब अज्ञेय जी जेल में थे, तभी उनका काव्य-संग्रह 'भग्नदूत' और 'इत्यलम्' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की कविताओं में क्रांति का स्वर प्रधान था।  सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को 'अज्ञेय' नाम मुंशी प्रेमचंद से मिला। इसका जिक्र स्वयं अज्ञेय जी ने अपने एक साक्षात्कार में किया था। इस साक्षात्कार के अनुसार, अज्ञेय ने जैनेंद्र कुमार के पास अपनी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजीं। जैनेंद्र जी ने वह रचनाएं प्रेमचंद जी को दीं। रचना पर लेखक का नाम नहीं था। प्रेमचंद ने उनसे रचनाओं के लेखक का नाम पूछा। इस पर जैनेंद्र जी ने कहा लेखक का नाम तो नहीं बताया जा सकता, वह तो 'अज्ञेय' है।' इस पर प्रेमचंद जी ने कहा, 'तब मैं 'अज्ञेय' नाम से ही कहानी छाप दूंगा।' बस उसी दिन से 'अज्ञेय' नाम से रचनाएं प्रकाशित होने लगीं।  

                            अज्ञेय ने जेल से रिहाई के बाद १९३६-३७ में सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया।  वह १९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे इसके बाद इलाहाबाद से प्रतीक नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। उन्होंने देश-विदेश की अनेक यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। फिर वह वापस दिल्ली लौटे और दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की स्थापना की ,जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था।  अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।

                                               सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय का कृतित्व बहुमुखी है और वह उनके समृद्ध अनुभव की सहज परिणति है। अज्ञेय की प्रारंभ की रचनाएँ अध्ययन की गहरी छाप अंकित करती हैं या प्रेरक व्यक्तियों से दीक्षा की गरमाई का स्पर्श देती हैं, बाद की रचनाएँ निजी अनुभव की परिपक्वता की खनक देती हैं। अज्ञेय स्वाधीनता को महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानते थे, परंतु स्वाधीनता उनके लिए एक सतत जागरुक प्रक्रिया रही। अज्ञेय ने अभिव्यक्ति के लिए कई विधाओं, कई कलाओं और भाषाओं का प्रयोग किया, जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृत्तांत, वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्मचिंतन, अनुवाद, समीक्षा, संपादन। उपन्यास के क्षेत्र में 'शेखर' एक जीवनी हिन्दी उपन्यास का एक कीर्तिस्तंभ बना। नाट्य-विधान के प्रयोग के लिए 'उत्तर प्रियदर्शी' लिखा, तो आंगन के पार द्वार संग्रह में वह अपने को विशाल के साथ एकाकार करने लगते हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे ,जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

                                                           अज्ञेय अन्तमुर्खी थे , उन्हें अपने निजी जीवन के बारे में बाते करना अच्छा नहीं लगता था , फिर भी अज्ञेय ने अपनी चिन्तन-प्रकिया , अपनी रचना प्रकिया और अपने व्यक्त्तिगत जीवन के अनुभवों के बारे में बहुत कुछ लिखा है। १९६४ में 'आँगन के पार द्वार ' कृति पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्रदान किया गया था  और १९७९ में 'कितनी नावों में कितनी बार 'पर उन्हें  भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया थासच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" ने भले ही इस दुनिया से ४ अप्रैल १९८७ को विदा ले ली हो, लेकिन उनका काम, उनकी कृतियां नए रचनाकारों को आज भी प्रेरित करती हैं।

                                                                                                                       -  अनिल वर्मा



















शहीद भगत सिंह की बहन बीबी प्रकाश कौर

    
    शहीद भगत सिंह की बहन बीबी प्रकाश कौर 
                                                                   - अनिल वर्मा 



                                                     
        

                          
                                                 शेरे हिन्द सरदार भगत सिंह के परिवार को देशभक्ति ,त्याग और बलिदान के अनुपम गुण विरासत में मिले सच्चे मोतियों के समान थे . उनके यशस्वी पिता  किशनसिंह और माता विद्यावती की कुल ९ संतान जगत सिंह , भगत सिंह , बीबी अमर कौर , कुलबीर सिंह , बीबी शकुंतला देवी ,कुलतार सिंह , बीबी प्रकाश कौर , रणवीर सिंह और रजिन्दरसिंह थी , इनमे से जगत सिंह का  तो काफी पहले ही युवावस्था में निधन हो गया  गया था  , फिर इसके बाद   भगत सिंह ने २३ वर्ष की अल्पायु में देश के लिए फांसी के फंदे पर झूलकर शहीद हो गए थे और इससे पूरे देशवासियों  के साथ ही उनके भाई बहिनो में भी देशभक्ति का जो अनूठा जज्बा जाग्रत हुआ था , वह उन सब में आजीवन यथावत कायम रहा .

                                               प्रकाश कौर जी का जन्म पाकिस्तान के लायलपुर जिले में गांव खासडिय़ां में १९१९  में हुआ था , उन्हें घर में लोग सुमित्रा के नाम से जानते थे ,उन्हें अपने प्रिय प्राजी भगत सिंह के साथ रहने और खेलने कूदने का कम ही अवसर मिल सका , भगत सिंह अल्प  आयु में ही क्रांति के पथ पर चल पड़े थे , वह जान बूझकर घर परिवार से दूर रहते थे , ताकि उनके क्रान्तिकारी अभियानों में कोई  बाधा न पहुंचे। २३ मार्च १९३१ को भगत सिंह की शहादत के समय प्रकाश केवल १० वर्ष की थी, पर इस घटना ने उन पर गहरा असर डाला था और वह अपने महान भाई के बलिदान गाथाओं से वह पूरे जीवन भर गौरव अभिभूत  रही ।


                                            बीबी प्रकाश कौर का विवाह राजस्थान के गंगानगर  जिला की पदमपुर तहसील के ५ एन एन  के हरबंश सिंह मलहि के साथ हुआ था , प्रकाश कौर में अपने भाई भगत सिंह के समान अदम्य साहस और संघर्ष का अनूठा ज़ज्बा था , वह ६ फीट ऊंची कदकाठी  की   रौबदार व्यक्तित्व की थीं। १९४७ में देश के बटँवारे की त्रासदी के दौरान उन्होंने दंगे रोकने और लोगो के पुनर्वास करने में अहम दायित्व का निर्वाह किया था।  वर्ष १९६७ में उन्होंने पंजाब विधानसभा के आम चुनावों में भारतीय जनसंघ की टिकट पर कोटकपूरा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा है,  तब  अकाली दल के उम्मीदवार हरभगवान सिंह ने कांग्रेस प्रत्याशी मेहर सिंह को हराया था, जबकि प्रकाश कौर करीब पांच हजार मत लेकर तीसरे स्थान पर रही थीं । उस समय भारतीय जनसंघ के सीनियर नेता एडवोकेट श्रीराम गुप्ता की अगुवाई में प्रकाश कौर के समर्थन में जोरदार चुनावी मुहिम चली थी और चुनाव प्रचार में शहीद भगत सिंह की माता समेत परिवार के अन्य सदस्य भी शामिल हुए थे।

                                   सन १९८० में बीबी प्रकाश कौर अपने पति और दोनों पुत्र रुपिंदरसिंह और हकमत सिंह के साथ कनाडा चली गयी और वहीं बस गयी थी , करीब १९९५ में   उनके पति  का निधन हो गया था। इनकी दो बेटियां गुरजीत कौर व परविंदर कौर की होशियारपुर के गांव अंबाला जट्टां के एक ही परिवार में शादी हुई  हैं। गुरजीत कौर अभी गांव में ही रहती हैं , जबकि परविंदर कौर कनाडा में रहती हैं।

                                          इस देश की विडम्बना है कि हमने जिन शहीदों और क्रांतिवीरो के अपार त्याग और बलिदान से यह आज़ादी पायी है , उन्हें भुला दिया गया है , उन्हें और उनके वीर परिवारों को सम्मान देना तो दूर रहा , हमारी पाठ्य पुस्तकों में भगत सिंह और आज़ाद जैसे महान क्रांतिकारियों को आतंकवादी लिखा जा रहा है।  यह दुखद और  कटु सत्य है कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह के  एक रिश्तेदार को आतंकवादी करार देकर पुलिस द्वारा फ़र्ज़ी एनकाउंटर में  गोली मारकर हत्या कर दी गयी और उनके परिजन न्याय  के लिए पिछले २५ साल से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था , तब १९८९ में प्रकाश कौर की बेटी  सुरजीत कौर के दामाद के भाई और ओलंपियन धर्म सिंह के दामाद अम्बाला के जत्तन गांव के रहने वाले कुलजीत  रहस्यमय ढंग से गायब हो गए थे, उन्हें होशियारपर के गरही  गावं से पंजाब पुलिस ने पकड़ा था ,तब से वह लापता है और ऐसा विश्वास है कि पुलिस ने उनकी हत्या कर दी थी।

                    भगत सिंह की वीरांगना बहन  बीबी  प्रकाश कौर इस मामले में लगातार कनाडा से भारत आकर न्याय के संघर्ष में जुटी रही ,उनके द्वारा  सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी रिट याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट को मामला शीघ्र निपटने के दिशा-निर्देश दिए थे और होशियारपुर के सेशन कोर्ट को जल्दी मामले में सुनवाई पूरी करने के लिए कहा है। जिसके बाद से सुरजीत को न्याय मिलने की उम्मीद जगी है। सुरजीत का परिवार 1989 से ही कुलजीत की रिहाई के लिए प्रयासरत था। बाद में पुलिस ने कहा कि जब कुलजीत को हथियारों की पहचान के लिए ब्यास नदी के नजदीक ले जाया गया था तो वह उसकी गिरफ्त से निकलकर भाग गया था।प्रकाश कौर ने सितंबर 1989 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग गठित किया। आयोग ने अक्टूबर १९९३  में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में पंजाब पुलिस अधिकारी एस. एस.पी अजीत सिंह संधु (जिसने १९९७ में आत्महत्या कर ली ), डी . एस.पी. जसपाल सिंह ,सार्दुलसिंह , एस.पी.एस. बसरा , सीताराम को प्रथम दृष्टया दोषी  होना इंगित किया गया था और यह कहा गया कि पुलिस की कुलजीत के भागने की कहानी काल्पनिक है। यह दुर्भाग्य है कि बीबी प्रकाश कौर के जीवनकाल में यह मामला अंतिम रूप से निराकृत नहीं हो पाया . बीबी प्रकाश कौर अंतिम बार व २००५ में होशियारपुर आई थी।
 
                                        बीबी प्रकाश कौर का  ९४ वर्ष की आयु में गत २८ सितम्बर २०१४  को उनके  भाई शहीद-'ए-आजम भगत सिंह के जन्मदिन पर ही  ब्रंटन (टोरंटो ) कनाडा में देहांत हो गया है । उस दिन मृत्यु के पूर्व  परिवार के लोग एवं कनाडा के कुछ संगठन के लोग उनसे मिले थे ,भगत सिंह के बारे में चर्चा किये थे  और उनका आशीर्वाद लिए थे।  वह करीब ६ वर्ष से वह लकवा से पीड़ित थी, चल फिर नहीं पाती थी और बिस्तर पर ही थी । उनके देहांत की जानकारी पंजाब के होशियारपुर में रहने वाले उनके दामाद हरभजन सिंह दत्‍त ने दी।प्रकाश कौर के निधन के  बाद अब भगत सिंह  कोई भी भाई बहन जीवित नहीं बचे है ।   बीबी  प्रकाश कौर ने मृत्यु के चार दिन पहले बुलंद हौंसले के साथ अपनी बेटी गुरजीत कौर से कनाडा में यह कहा था कि जिंदगी में कभी हौंसला मत हारना। प्रकाश कौर  ने तो अपने महान भाई का अनुसरण करते हुए अपना पूरा जीवन देश और समाज के लिए बुलंद हौसलों के साथ भरपूर जिया , उन्होंने अपनी राखी भी आज़ादी के हवन कुण्ड में समर्पित कर दी थी , पर  हम कृतघ्न देशवासी उन्हें सम्मानपूर्वक श्रद्धांजलि भी नहीं दे सके है , यह उनका नहीं वरन हमारा ही दुर्भाग्य है।  
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        -अनिल वर्मा                  








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शहीद भगत सिंह के भाई क्रांतिवीर सरदार कुलबीर सिंह




शहीद भगत सिंह के भाई क्रांतिवीर सरदार कुलबीर सिंह  
                                                                               
                                                                                                                             - अनिल वर्मा

अभितेज सिंह
 

                                                                                                               





                  
                                    कुलवीर सिंह उस महान परिवार के रोशन  चिराग थे ,जहाँ  देशभक्ति और बलिदान की भावना रग रग में समायी हुई थी , अमर शहीद भगत सिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह का जन्म २६ फरवरी १९१५ को सरदार किशनसिंह और माता विद्यावती के घर लाहौर में हुआ था . उनकी प्राथमिक शिक्षा  दादा अर्जुन सिंह के संरक्षण  में ग्राम बंगा में हुई थी , फिर उन्होंने लाहौर के डी.ए.वी. मिडिल स्कूल से आगे की पढ़ाई की थी , पर १९२९ में उनकी पढ़ाई पर  पूर्ण विराम लग  गया और वह भी परिवार की गौरवशाली परम्परा को आगे बढाते हुए क्रांति के पथ पर चल पडे एवं क्रांतिकारियों के भूमिगत आंदोलन में छिपकर सहयोग देने लगे।

                              बड़े भाई भगत सिंह की  असेंबली बम केस में गिरफ़्तारी  के बाद कुलबीर अपने माता पिता के साथ  सेंट्रल जेल और बोर्स्टल जेल लाहौर उनसे मिलने जाते थे , देश के हजारो नौजवानों की भाँति  वह भी भगतसिंह को अपना हीरो मानते थे।  भगत सिंह भी उन्हें बहुत चाहते थे , उन्होंने जेल में रहते हुए कुलवीर को ३ पत्र  क्रमशः १६ सितम्बर १९३० , २५ सितम्बर १९३० और ३ मार्च १९३१ को लिखे थे . उन्होंने अंतिम पत्र में कुलबीर के लिए काफी चिंता व्यक्त करते हुए लिखा था कि ''मै तुम्हारे लिए कुछ न कर सका ,तुम्हारी जिंदगी का क्या होगा ,गुजारा कैसे करोगे , यह सोचकर काँप जाता हूँ , मगर भाई हौसला रखना , मुसीबत में भी कभी मत घबराना , आहिस्ता आहिस्ता मेहनत करके पढ़ते जाना ,जानता हूँ कि आज तुम्हारे दिल के अंदर गम का समुन्द्र टाठे मार रहा है ,पर हौसला रखना मेरे प्यारे भाई '' . २३ मार्च १९३१ को भगत सिंह फांसी पर चढ़कर वतन के लिए शहीद हो गए और क्रांति की विरासत कुलबीर सिंह को सौप गए। कुलबीर सिंह  जल्द ही भगत सिंह के संगठन नौजवान भारत सभा से जुड़ गए।

                      सन १९३५ में जब पंजाब में जॉर्ज पंचम के स्वागत की तैयारी चल रही थी , तब कुलबीर ने अपने साथियो के साथ मिलकर लायलपुर और आस पास के जिलो की बिजली व्यवस्था फ़ैल करके रंग में भंग कर दिया था ,उन्हें गिरफ्तार किया गया , पर सरकार कोई गवाह न मिलने से मुकदमा नहीं चला पायी . इसी साल वह  लायलपुर के जिला बोर्ड के सदस्य भी निर्वाचित हुए।  उन्हें पंजाब किसान सभा का जनरल सेक्रेटरी और कांग्रेस सोशियोलिस्ट पार्टी की प्रांतीय  समिति का सदस्य भी बनाया गया , उन्होंने अनेक किसान आंदोलनों का सफल नेतृत्व किया ,  १९३९ में उन्हें  Defence of India Rules के तहत  ६ माह जेल की सजा दी गयी ,२६ जून १९४० को वह अपने भाई कुलतार सिंह के साथ फिर गिरफ्तार कर लिए गए उन्होंने जेल में अपने क्रन्तिकारी साथियो धन्वन्तरी , राम किशन भरोलियन ,टीकाराम सुखन के साथ ६३ दिन की लम्बी भूख हड़ताल की, तब वह काफी बीमार हो गए थे , जब माता विद्यावती मिलने आई तो जेल अधिकारियो  ने उन्हें मिलने नहीं दिया , परन्तु माता के प्रचंड विद्रोही स्वरूप के सामने जेल अधीक्षक बुरी तरह घबरा गया , उसने गिड़गिड़ाकर माफ़ी मांगी और कुलबीर को इलाज के लिए लाहौर के मेयो अस्पताल भिजवा दिया। बाद में जेल में राजनैतिक बंदियों की सुविधाओ के सम्बन्ध में यह हड़ताल पूरे देश में फ़ैल गयी , सरदार कुलबीर सिंह को पुनः जेल भेज दिया गया , पर वहाँ  भी उन्होंने संघर्ष जारी रखते हुए३२ दिन की भूख हड़ताल की , इधर देवलाली जेल में जयप्रकाश नारायण , सेठ दामोदर दास  डॉ. जेड. ए. अहमद , एस. ए. डांगे ने भी भूख हड़ताल की .६ माह के अंतराल बाद १९४४ में कुलतार सिंह को फिर गिरफ्तार  कर लिया गया और वह १९४६ तक हिरासत में रखे गए   , फिर लाहौर हाई कोर्ट में याचिका दायर करने पर कुलबीर सिंह , उनके भाई कुलतार सिंह , बहिन बीबी अमर कौर को जेल से रिहा कर दिया गया .

                                                जब देश आज़ादी का सूरज देखने ही वाला था , तब उनके यशस्वी चाचा महान  क्रान्तिकारी अजीत सिंह ३७ साल बाद मुल्क वापस लौटे और देश के बटवारे से दुखी होकर १५ अगस्त १९४७ को ही उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आखे मूँद ली।  स्वाधीनता के उपरांत भी कुलबीर सिंह जी देश और समाज की सेवा में सतत जुटे रहे , १९४८ में उन्हें पंजाब कांग्रेस सेवा समिति का ‘G.O.C.’बनाया गया , कुलबीर सिंह  ने १९६२ में   फिरोज़पुर से लोकसभा चुनाव  जीत कर सांसद  रहे ,उनकी बहिन बीबी अमर कौर ने भी १९६७ में कपूरथला से जनसंघ की टिकिट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था।  उन्होंने युवाओ को अतीत के गौरव और   देशभक्ति  की प्रेरणा देने के लिए '' सरदार कुलबीर सिंह फाउंडेशन  '' की स्थापना की , वह आ. भा. स्वाधीनता संग्राम सेनानी संघ की हरियाणा  शाखा के प्रमुख भी रहे , उन्होंने  Faridabad Branch of Indian Council of World Affairs के प्रेजिडेंट पद पर भी कार्य किया , उन्होंने एक पुस्तक “Revolutionary Movements” Significance and Sardar Ajit Singh” भी लिखी , उन्होंने अपना बाद का जीवन क्रांतिकारियों के दुर्लभ दस्तावेजो के संग्रह में व्यतीत किया , यह उल्लेखनीय है कि भगत सिंह  द्वारा  जेल में लिखी गयी जेल डायरी  उनकी शहादत के २ दिन पहले ही लाहौर के जेलर द्वारा कुलबीर सिंह को  सौपी गयी थी।  १९८२ में उन्होंने क्रान्तिकारी  इतिहास संकलन के कार्य के लिए पाकिस्तान का भी दौरा किया , पर वह २२ अगस्त १९८३ को पुस्तक लेखन का कार्य अधूरा छोड़कर हमेशा  के लिए  अपने भाई शहीद भगत सिंह के पास चले गए। 

                   सरदार कुलबीर सिंह का विवाह  कान्ता  संधु से हुआ था , कुलबीर सिंह के २ पुत्र बाबर सिंह और अभय सिंह एवं २ पुत्री वर्षा बासी  और अमर ज्योति है , कुलबीर सिंह जी की पत्नी श्रीमती कान्ता  संधु एवं बड़े पुत्र बाबर का निधन हो चुका है उनके ५५ वर्षीय  बेटा अभय सिंह ने २०१२ में पंजाब विधानसभा के लिए पीपुल्स पार्टी के लिए चुनाव लड़ा था , वह अपने पिता कुलबीर की स्मृति में स्थापित कुलबीर सिंह मेमोरियल फाउंडेशन के फाउंडर प्रेजिडेंट है , उनके पुत्र अभितेज सिंह इसके फाउंडर मेंबर है ।सरदार   कुलबीर सिंह को क्रांतिकारी   परिवार की  महान परम्परा के संवाहक के रूप में  शहीद भगत सिंह के साथ सदैव  याद रखा जायेगा। 
                                         
                                                                                                                   - अनिल वर्मा
 



                                      
                                            


क्रांतिवीर यतीन्द्र नाथ दास


         यतीन्द्र नाथ दास  : भूख हड़ताल में शहीद 
                                                                                                             - विकास गोयल 

 
                 
                         हिंदुस्तान के क्रान्तिकारी इतिहास में क्रांतिकारी यतीन्द्र नाथ का नाम सदैव अमर रहेगा , वो एक ऐसा वीर था , जिसे समूची ब्रिटिश हूकूमत  भी न झुका सकी थी , उन्होंने  देश की  स्वाधीनता के संघर्ष में   भूख हड़ताल के माध्यम  से तिल तिल कर मौत की ओर  बढ़कर  आत्म बलिदान  की जो प्रखर जीवटता दिखायी थी , वह तो अहिंसा के महान अनुयायियों में भी नहीं थी .

                                         महान क्रांतिकारी यतीन्द्र नाथ का जन्म २७ अक्टूबर १९०४ को कलकत्ता में हुआ था , जब वह महज ९ वर्ष के थे , तब उनके पिता बंकिम बिहारी दास और माता सुहासिनी देवी का निधन हो गया था , सन १९२० में उन्होंने मैट्रिक  उत्तीर्ण की थी , उसी  समय देश में असहयोग आंदोलन का बिगुल बजने पर यतीन्द्र भी स्वाधीनता की लड़ाई में कूद गए , वह पहली बार में ४ दिन के लिए जेल गए , फिर वह १ माह और ३ माह जेल की  सजा काटे। इसके बाद वह प्रख्यात क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल के संपर्क में आने के बाद क्रान्तिकारी पार्टी के सदस्य बन गए। सन १९२१ में दक्षिण कलकत्ता के नेशनल स्कूल में क्रान्तिकारी संगठनो की एक बैठक आयोजित की गयी , जिसमे शचीन्द्र नाथ सान्याल के प्रस्ताव पर सभी दलों और संगठनो को मिलाकर '' हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन '' नामक क्रांति दल गठित किया गया।  दल के लिए ' द  रेवोलूशनरी ' और 'पीला पर्चा '' छपवाकर देश भर में वितरण का अहम दायित्व यतीन्द्रबाबू को सौपा गया , जिसे उन्होंने बखूबी किया।  फिर उन्होंने दल के लिए पैसा जुटाने के लिए इंडो-बर्मा पेट्रोलियम के पेट्रोल पंप की डकैती के साहसिक कारनामे को बिना किसी बम पिस्तौल के किया था ।  उन्होंने बम निर्माण में  महारत हासिल कर ली।

                    इधर उत्तर भारत में चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और उनके साथी लगातार क्रान्तिकारी गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे , १९२८ में भगत सिंह , राजगुरु और आज़ाद ने लाहौर में लाला लाजपत रॉय की हत्या का बदला एडीशनल  सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस सॉण्डर्स को गोली  मारकर लिया था , जब भगतसिंह छदम वेश में कलकत्ता पहुंचे ,तब यतीन्द्र नाथ से मिलने पर उन्होंने   साथियो को दल की आगरा  में बम निर्माण सीखने के लिए राजी कर लिया।  यतीन्द्र नाथ  दास ,भगत सिंह , राजगुरु , सुखदेव , आज़ाद , बटुकेश्वर दत्त आदि के साथ आगरा में बम फैक्ट्री स्थापित की ।  भगत सिंह और दत्त द्वारा दिल्ली में सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट के बाद गिरफ़्तारी दी गयी , फिर पुलिस की धर पकड़ तेज होने पर फणीश्वर नाथ घोष मुखबिर बन गए , उसकी शिनाख्त पर १४ जून १९२९ को कलकत्ता के शरद बोस रोड के चौक से यतीन्द्र नाथ को भी गिरफ्तार किया गया और लाहौर भेज दिया गया।

                         यतीन्द्र नाथ , भगत सिंह , बटुकेश्वर दत्त , सुखदेव ,डॉ. गयाप्रसाद और अन्य क्रान्तिकारी सेंट्रल जेल लाहौर में बंद थे , भगतसिंह के आव्हान पर १३ जुलाई १९२९ से जेल में क्रांतिकारियों के साथ दुर्व्यवहार को लेकर भूख हड़ताल आरम्भ कर दी , हालाँकि इसके पहले  यतीन्द्र नाथ ने अपने पूर्व अनुभव के आधार पर साथियो को यह सचेत किया था कि अनशन द्वारा तिल तिल कर अपने आप को इंच इंच मौत की और सरकते हुए देखने से पुलिस की गोली का शिकार हो जाना या फांसी पर झूल जाना अधिक आसान होता  है . एक बार अनशन शुरू होने के बाद वह पीछे नहीं हटे ,अंग्रेजों ने उनकी भूख हड़ताल तुड़वाने का काफी कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। कुछ दिनों बाद जब उन्हें दबोचकर बलात दूध पिलाने की कोशिश की गयी ,तो डॉक्टर की लापरवाही से पेट की जगह उनके फेफड़ों में दूध चला गया ,  दिन पर दिन उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी , फिर भी उन्होंने अनशन तोड़ने और दवा लेने से मना कर दिया , यहाँ तक कि उन्होंने जमानत पर छूटने से भी इंकार कर दिया।  उनके अंतिम समय में छोटे भाई किरन् दास  को बुलाया गया।

                उच्च आदर्श और राष्ट्रीय स्वाभिमान के धनी यतीन्द्र नाथ दास का  जीवन दीप बुझने की कगार पर था , अंततः भूख हड़ताल के ६३ वें दिन वह १३ सितम्बर १९२९ को जेल में  अपने सब साथियो से  अंतिम बार मिले  , फिर क़ाज़ी नजरुल इस्लाम का गाना ' बोलो वीर ,चिर उन्नम मम शीर ' तथा इसके बाद ' वन्दे मातरम'  सुना और फिर कुछ देर बाद हमेशा के लिए अपनी आखें  मूद ली , भारत माता का यह महान सपूत स्वाधीनता की बलिवेदी पर शहीद हो गया , सेंट्रल जेल के अंग्रेज जेलर ने फौजी सलाम से उन्हें सम्मान दिया था और लाहौर के डिप्टी कमिश्नर हैमिल्टन ने भी उनके सम्मान में अपना हैट उतार लिया था। दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में उनके निधन पर मोतीलाल नेहरू ने स्थगन प्रस्ताव रखा था ,नेता सुभाष चन्द्र बोस ने उनके पार्थिव शरीर लाहौर से कलकत्ता लाने के लिए रेल के विशेष कूपे की व्यवस्था की थी ,शव के साथ दुर्गा भाभी  गयी थी, कलकत्ता में उन्हें अद्वितीय सम्मान मिला ,  उनकी शव यात्रा में ५ लाख से अधिक लोगो का जन सैलाब उमड़ पड़ा था . ऐसे ही महान देशभक्तों  के त्याग और बलिदान से हम आज स्वाधीन भारत में सकून से है , क्रांतिवीर यतीन्द्र नाथ दास को बलिदान दिवस पर शत शत नमन।

                                                                                              - विकास गोयल 
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क्रांतिवीर सूफी अम्बा प्रसाद

                                          क्रांतिवीर  सूफी अम्बा प्रसाद
                                                               - अनिल वर्मा


                          देश के लिए जिंदगी कुर्बान करने वाले क्रांतिवीरों की इस देश में उपेक्षा की जाती  रही है | ऐसे महान बलिदानी शहीदों का तो आज लोग नाम तक नही जानते | धन , सत्ता और  पद के लोलुप लोग अब इस राष्ट्र  के नायक बनते जा रहे है | सूफी अम्बा प्रसाद के जीवन व कृतित्व पर क्रांतिकारी भगत सिंह द्वारा'' विद्रोही '' छद्म नाम से सन १९२८ में 'कीर्ति 'में प्रकाशित  लेख आज भी उतना ही सार्थक है .जिसमे भगत सिंह ने कहा था कि आज भारत वर्ष में कितने लोग सूफी अम्बा प्रसाद का नाम जानते है ? कितने उनकी स्मृति में शोकातुर होकर आँसू बहाते है , कृतघ्न भारत ने कितने ही ऐसे रत्न खो दिए है . वे सच्चे देशभक्त थे , उनके हृदय में देश के लिए दर्द था . वे भारत की प्रतिष्ठा देखना चाहते थे, वह भारत को उन्नति के शिखर पर पहुंचाना चाहते थे , पर उनकेअनुपम त्याग एवं  बलिदान को देश ने भुला दिया है।  

                                                               सूफी अम्बा प्रसाद(वास्तविक नाम अमृतलाल ) भटनागर का जन्म 21 जनवरी १८५८ को संयुक्त प्रान्त के शहर मुरादाबाद में एक कायस्थ परिवार में हुआ था ।उन्होंने अपनी शिक्षा मुरादाबाद,जालंधर और बरेली में ग्रहण की थी । उन्होंने एम. करने के बाद कानून  की डिग्री प्राप्त की, पर वकालत कभी नहीं की । उनका दाहिना हाथ जन्म से ही कटा था | वह स्वयं ही हँसी में कहा करते थे -- अरे भाई ! हमने १८५७  में स्वतंत्रता की  जंग में अंग्रेजो के विरुद्ध युद्ध किया ,जिसमे शहीद होने से पहले ही यह हाथ कट गया और  पुनर्जन्म होने पर हाथ कटे का कटा आ गया है  | पारसी भाषा के विद्वान अम्बा प्रसाद ने सन 1890 में मुरादाबाद से उर्दू साप्ताहिक 'जाम्युल इलुक' का प्रकाशन किया। इसका हर  शब्द अंग्रेज़ शासन पर भीषण प्रहार करता था। हास्य रस के महारथी अम्बा प्रसाद ने देशभक्ति से सम्बंधित अनेक विषयों पर गंभीर चिंतन भी किया।  अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ इस जंग में वो हिन्दू मुस्लिम एकता के जबरदस्त हिमायती रहे । उन्होंने अंग्रेजो की हिन्दू मुसलमानों को लड़वाने के लिए रची गई कई साजिशें अपने अखबार के जरिये बेनकाब की न १८९७ से १९०६ के दरम्यान उन्हें कई बार जेल में असहनीय कष्ट भरे दिन गुज़ारने पड़े। उनकी सारी संपत्ति भी सरकार ने ज़ब्त कर ली ।लेकिन उन्होंने सर नहीं झुकाया। जेल में उन्हें अकथनीय कष्ट सहन  करने पड़े , परन्तु वे कभी विचलित नही हुए |
सूफी जी जेल में बीमार पड़े | एक तंग गन्दी कोठरी में बंद थे | उन्हें औषधि नही दी जाती थी यहाँ तक कि पानी आदि का भी ठीक प्रबंध न था | जेलर आता और हंसता हुआ प्रश्न करता -- सूफी , अभी तुम ज़िंदा हो ? खैर ! जे
से छूटने पर निजाम हैदराबाद ने उन्हें सारी सुविधाओ के साथ बसने का निमंत्रण दिया । परन्तु उनको क्या पता था कि   सूफी जी का जन्म एक बड़े मकसद के लिए हुआ था  

                                                               अम्बा प्रसाद पंजाब जाकर  हिन्दुस्तान अखबार में काम करने लगे थे । उन्ही दिनों सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय ने भारत माता सोसायटी की नींव डाली और पंजाब के न्यू कालोनी  बिल के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया | सूफी जी  उनके साथ काम करने लगे | सन 1906 में पंजाब में फिर धर पकड शुरू हुई , तो सरदार अजीत सिंह के भाई सरदार किशन सिंह और भारत माता सोसायटी के मंत्री मेहता आनन्द किशोर के साथ वे नेपाल चल दिए | वह नेपाल राज्य के गवर्नर श्री  जंगबहादुर जी से उनकी आत्मीयता हो गयी थी  | परिणामस्वरूप बाद में श्री जंगबहादुर  जी सूफी को आश्रय देने के कारण ही पदच्युत कर दिए गये और उनकी संम्पत्ति जब्त कर ली गयी | खैर सूफी जी वहाँ  पकडे जाने पर लाहौर लाये गये | लाला पिण्डीदास जी के पत्र '' इंडिया '' में प्रकाशित आपके लेखो के सम्बन्ध में ही उन पर अभियोग चलाया गया , परन्तु निर्दोष सिद्ध होने के बाद में उन्हें छोड़ दिया गया | सन 1909 में भारत माता बुक सोसायटी की नीव डाली जाने पर इसका अधिकतर कार्य सूफी जी  करते थे | उन्होंने बागी मसीह या विद्रोही मसीह नामक पुस्तक प्रकाशित करवाई, जो बाद में जब्त कर ली गयी वे पैर से भी लेखनी पकड़कर अच्छी तरह लिख सकते थे

                                     तत्पश्चात सरदार अजीत सिंह भी मांडले जेल से छूटकर आ गये | तब देशभक्त  मंडल के सभी सदस्य साधू वेश में पर्वतों की ओर यात्रा करने निकल पड़े | पर्वतों के उपर जा रहे थे | एक भक्त भी साथ आया था  | साधू बैठे तो, सूट बूट पहने वह  भक्त  सूफी जी के चरणों पर शीश नमन करने के बाद यह पूछने लगा -- बाबा जी आप कहाँ रहते है ?
सूफी जी ने कठोर शब्दों में उत्तर दिया -- रहते है तुम्हारे सर में ! 
साधू जी , आप नाराज हो गये ?
- अरे बेवकूफ ! तूने मुझे क्यों नमस्कार किया ! इतने और साधू भी थे , इनको प्रणाम क्यों न किया ?
मैं आपको बड़ा साधू समझा था |
अच्छा खैर जाओ , खाने -- पीने  की वस्तुए  लाओ | वह कुछ देर बाद अच्छे -- अच्छे खाद्य प्रदार्थ लेकर आया | खा पीकर सूफी जी ने उसे फिर बुलाया और कहने लगे -- क्यों बे हमारा शीघ्र पीछा छोड़ेगा या नही ?
भला मैं आपसे क्या कहता हूँ जी ?
चालाकी को छोड़ | आया है जासूसी करने ! जा अपने बाप से कह देना कि सूफी पहाड़ में गदर करने जा रहे है | वह चरणों पर गिर पड़ा -- हुजूर पेट की खातिर सब कुछ करना पड़ता है |
  
                                                   यह  कहा जाता है कि सन १८९० में जब भोपाल में एक अंग्रेज रेजिडेंट  नबाबसाहब  से रियासत हड़प करने की साजिश कर रहा था , तो वहां का भेद जानने   के लिए अमृत बाजार पत्रिका की ओर से सूफी जी को भेजा गया था।  एक पागल -- सा व्यक्ति 
रेजिडेंट  के यहाँ  नौकरी की तलाश में आया , उसे केवल भोजन पर ही रख लिया गया | वह पागल बर्तन साफ़ करता तो मुँह पर मिटटी पोत लेता | पर वह सौदा खरीदने में बड़ा चतुर था , अस्तु चीजे खरीदने वही भेजा जाता था | उधर अमृत बाजार पत्रिका में रेजिडेंट के विरुद्ध धडाधड लेख निकलने लगे | अंत में इतना बदनाम हुआ कि पदच्युत  कर दिया गया | तब  वह भोपाल स्टेट से बाहर जाकर दिल्ल्ली में रहने लगा ,तब एक दिन एक काला  सा आदमी हैट लगाये पतलून  बूट पहने उसकी ओर आया | उसे देखकर रेजिडेंट चकित   रह गया कि  ये तो वही था ,  जो मेरे बर्तन साफ़ किया करता था | उसने आते ही अंग्रेजी में बातचीत शुरू की, तो  रेजिडेंट कांपने  लगा |
सूफी जी ने कहा था -- आपने कहा था कि   गुप्तचर को पकड़वाने वाले व्यक्ति को आप कुछ इनाम देंगे |
हां कहा था | क्या तुमने उसे पकड़ा ? हां , हां ... इनाम दीजिये | .......वह मैं स्वंय  हूँ |
वह अंग्रेज थर थर कापते हुए बोला -- यदि राज्य के अन्दर ही मुझे तेरा पता चल जाता तो  बोटी -- बोटी उडवा देता | खैर उसने उन्हें एक सोने की घड़ी दी और यह कहा कि यदि तुम स्वीकार करो तो जासूस विभाग से १००० रूपये मासिक वेतन दिला सकता हूँ | परन्तु सूफी जी ने कहा  अगर वेतन ही लेना होता तो आपके बर्तन क्यों साफ़ करता ?

                                     सूफी अम्बा प्रसाद ने सन १९०९ में ' पेशवा '' अखबार निकाला |  वास्तव में उनके सम्पादकत्व में छपे पेशवा अखबार के पुराने अंकों को पढ़कर सरदार भगतसिंह को क्रांति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा मिली थी । उन्ही दिनों बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन में उग्रता बढ़ने पर अंग्रेज सरकार को चिंता हुई कि कही यह आग पंजाब को भी जला न डाले | अस्तु दमनचक्र आरम्भ हुआ | तब सूफी जी , सरदार अजीत सिंह और जिया उल हक ईरान चले गये | पर वहां पहुंचकर जिया की नियत बदल गयी ,उसने सोचा कि इन्हें पकडवा दूँ  तो इनाम भी मिलेगा और सजा भी न होगी | परन्तु सूफी जी उसकी     नियत ताड़ गये | उन्होंने उसे आगे भेज दिया , फलस्वरूप वह  स्वंय ही पकड़ा गया और सूफी  अजीत सिंह सहित बच निकले | फिर उन्हें ईरान में शरण लेने के लिए विवश होना ही पड़ा वहां भी उनका अंग्रेजो के विरुद्ध मुहिम जारी ही ईरान के शीराज़ में उन्होंने ग़दर पार्टी के साथ काम किया।ईरान में लिखी गई उनकी पुस्तक 'आबे हयात 'काफी चर्चा में रही ।वहां उन्होंने शिक्षा दान का अदभुत कार्य भी किया उन्होंने मशहूर राजनयिक और शिक्षाविद डॉक्टर असग़र अली हिकमत को पढाया ,जो आगे चल कर ईरान की राजनीति में ही नहीं विश्व में भी एक सम्मानीय नाम बना।
                                    सन १९१५ में जब   ईरान में अंग्रेजो  ने पूर्ण प्रभुत्व जमाना चाहा , शिराज पर घेरा डालने से उथल -- पुथल मची हुथी | सूफी जी ने बाए हाथ से रिवाल्वर चलाकर भरपूर मुकाबला किया था , परन्तु अंत में वह गोलिया खत्म होने पर अंग्रेजो के हाथ आ गये | उनका कोर्ट मार्शल किया गया और उन्हें अगले दिन गोली से उड़ा दिए जाने का फैसला दिया गया | सूफी कोठरी में बंद थे , अगले दिन २१ फरवरी१९१५ को  प्रात: यह पाया गया कि उन्होंने प्राणायाम की अवस्था में  स्वयं अपने प्राण त्याग दिए थे | लोगों ने इसे इच्छामृत्यु का तपोबल माना था । आज भी ईरान में सूफी साहब की समाधि (मजार) पर लोग चादर चढ़ाकर मन्नतें मांगते हैं।  ईरान में उनका नाम अब भी  बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है , पर अफ़सोस .. हम अपनी क्रांति के इस महत्वपूर्ण स्तम्भ के बारे में जानते भी नही है  !
 
                                                   आगामी २१ फरवरी २०१५ को सूफी अम्बा  प्रसाद की शहादत की शताब्दी पूर्ण हो रही है , क्या  स्वाधीन भारत के कृतघ्न वाशिंदे अब तो इस महान देशभक्त्त  को उचित सम्मान से श्रद्धाँजलि अर्पित कर सकेंगे
                                                                                       
                                                                                                                       - अनिल वर्मा