क्रांतिवीर सूफी अम्बा प्रसाद

                                          क्रांतिवीर  सूफी अम्बा प्रसाद
                                                               - अनिल वर्मा


                          देश के लिए जिंदगी कुर्बान करने वाले क्रांतिवीरों की इस देश में उपेक्षा की जाती  रही है | ऐसे महान बलिदानी शहीदों का तो आज लोग नाम तक नही जानते | धन , सत्ता और  पद के लोलुप लोग अब इस राष्ट्र  के नायक बनते जा रहे है | सूफी अम्बा प्रसाद के जीवन व कृतित्व पर क्रांतिकारी भगत सिंह द्वारा'' विद्रोही '' छद्म नाम से सन १९२८ में 'कीर्ति 'में प्रकाशित  लेख आज भी उतना ही सार्थक है .जिसमे भगत सिंह ने कहा था कि आज भारत वर्ष में कितने लोग सूफी अम्बा प्रसाद का नाम जानते है ? कितने उनकी स्मृति में शोकातुर होकर आँसू बहाते है , कृतघ्न भारत ने कितने ही ऐसे रत्न खो दिए है . वे सच्चे देशभक्त थे , उनके हृदय में देश के लिए दर्द था . वे भारत की प्रतिष्ठा देखना चाहते थे, वह भारत को उन्नति के शिखर पर पहुंचाना चाहते थे , पर उनकेअनुपम त्याग एवं  बलिदान को देश ने भुला दिया है।  

                                                               सूफी अम्बा प्रसाद(वास्तविक नाम अमृतलाल ) भटनागर का जन्म 21 जनवरी १८५८ को संयुक्त प्रान्त के शहर मुरादाबाद में एक कायस्थ परिवार में हुआ था ।उन्होंने अपनी शिक्षा मुरादाबाद,जालंधर और बरेली में ग्रहण की थी । उन्होंने एम. करने के बाद कानून  की डिग्री प्राप्त की, पर वकालत कभी नहीं की । उनका दाहिना हाथ जन्म से ही कटा था | वह स्वयं ही हँसी में कहा करते थे -- अरे भाई ! हमने १८५७  में स्वतंत्रता की  जंग में अंग्रेजो के विरुद्ध युद्ध किया ,जिसमे शहीद होने से पहले ही यह हाथ कट गया और  पुनर्जन्म होने पर हाथ कटे का कटा आ गया है  | पारसी भाषा के विद्वान अम्बा प्रसाद ने सन 1890 में मुरादाबाद से उर्दू साप्ताहिक 'जाम्युल इलुक' का प्रकाशन किया। इसका हर  शब्द अंग्रेज़ शासन पर भीषण प्रहार करता था। हास्य रस के महारथी अम्बा प्रसाद ने देशभक्ति से सम्बंधित अनेक विषयों पर गंभीर चिंतन भी किया।  अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ इस जंग में वो हिन्दू मुस्लिम एकता के जबरदस्त हिमायती रहे । उन्होंने अंग्रेजो की हिन्दू मुसलमानों को लड़वाने के लिए रची गई कई साजिशें अपने अखबार के जरिये बेनकाब की न १८९७ से १९०६ के दरम्यान उन्हें कई बार जेल में असहनीय कष्ट भरे दिन गुज़ारने पड़े। उनकी सारी संपत्ति भी सरकार ने ज़ब्त कर ली ।लेकिन उन्होंने सर नहीं झुकाया। जेल में उन्हें अकथनीय कष्ट सहन  करने पड़े , परन्तु वे कभी विचलित नही हुए |
सूफी जी जेल में बीमार पड़े | एक तंग गन्दी कोठरी में बंद थे | उन्हें औषधि नही दी जाती थी यहाँ तक कि पानी आदि का भी ठीक प्रबंध न था | जेलर आता और हंसता हुआ प्रश्न करता -- सूफी , अभी तुम ज़िंदा हो ? खैर ! जे
से छूटने पर निजाम हैदराबाद ने उन्हें सारी सुविधाओ के साथ बसने का निमंत्रण दिया । परन्तु उनको क्या पता था कि   सूफी जी का जन्म एक बड़े मकसद के लिए हुआ था  

                                                               अम्बा प्रसाद पंजाब जाकर  हिन्दुस्तान अखबार में काम करने लगे थे । उन्ही दिनों सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय ने भारत माता सोसायटी की नींव डाली और पंजाब के न्यू कालोनी  बिल के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया | सूफी जी  उनके साथ काम करने लगे | सन 1906 में पंजाब में फिर धर पकड शुरू हुई , तो सरदार अजीत सिंह के भाई सरदार किशन सिंह और भारत माता सोसायटी के मंत्री मेहता आनन्द किशोर के साथ वे नेपाल चल दिए | वह नेपाल राज्य के गवर्नर श्री  जंगबहादुर जी से उनकी आत्मीयता हो गयी थी  | परिणामस्वरूप बाद में श्री जंगबहादुर  जी सूफी को आश्रय देने के कारण ही पदच्युत कर दिए गये और उनकी संम्पत्ति जब्त कर ली गयी | खैर सूफी जी वहाँ  पकडे जाने पर लाहौर लाये गये | लाला पिण्डीदास जी के पत्र '' इंडिया '' में प्रकाशित आपके लेखो के सम्बन्ध में ही उन पर अभियोग चलाया गया , परन्तु निर्दोष सिद्ध होने के बाद में उन्हें छोड़ दिया गया | सन 1909 में भारत माता बुक सोसायटी की नीव डाली जाने पर इसका अधिकतर कार्य सूफी जी  करते थे | उन्होंने बागी मसीह या विद्रोही मसीह नामक पुस्तक प्रकाशित करवाई, जो बाद में जब्त कर ली गयी वे पैर से भी लेखनी पकड़कर अच्छी तरह लिख सकते थे

                                     तत्पश्चात सरदार अजीत सिंह भी मांडले जेल से छूटकर आ गये | तब देशभक्त  मंडल के सभी सदस्य साधू वेश में पर्वतों की ओर यात्रा करने निकल पड़े | पर्वतों के उपर जा रहे थे | एक भक्त भी साथ आया था  | साधू बैठे तो, सूट बूट पहने वह  भक्त  सूफी जी के चरणों पर शीश नमन करने के बाद यह पूछने लगा -- बाबा जी आप कहाँ रहते है ?
सूफी जी ने कठोर शब्दों में उत्तर दिया -- रहते है तुम्हारे सर में ! 
साधू जी , आप नाराज हो गये ?
- अरे बेवकूफ ! तूने मुझे क्यों नमस्कार किया ! इतने और साधू भी थे , इनको प्रणाम क्यों न किया ?
मैं आपको बड़ा साधू समझा था |
अच्छा खैर जाओ , खाने -- पीने  की वस्तुए  लाओ | वह कुछ देर बाद अच्छे -- अच्छे खाद्य प्रदार्थ लेकर आया | खा पीकर सूफी जी ने उसे फिर बुलाया और कहने लगे -- क्यों बे हमारा शीघ्र पीछा छोड़ेगा या नही ?
भला मैं आपसे क्या कहता हूँ जी ?
चालाकी को छोड़ | आया है जासूसी करने ! जा अपने बाप से कह देना कि सूफी पहाड़ में गदर करने जा रहे है | वह चरणों पर गिर पड़ा -- हुजूर पेट की खातिर सब कुछ करना पड़ता है |
  
                                                   यह  कहा जाता है कि सन १८९० में जब भोपाल में एक अंग्रेज रेजिडेंट  नबाबसाहब  से रियासत हड़प करने की साजिश कर रहा था , तो वहां का भेद जानने   के लिए अमृत बाजार पत्रिका की ओर से सूफी जी को भेजा गया था।  एक पागल -- सा व्यक्ति 
रेजिडेंट  के यहाँ  नौकरी की तलाश में आया , उसे केवल भोजन पर ही रख लिया गया | वह पागल बर्तन साफ़ करता तो मुँह पर मिटटी पोत लेता | पर वह सौदा खरीदने में बड़ा चतुर था , अस्तु चीजे खरीदने वही भेजा जाता था | उधर अमृत बाजार पत्रिका में रेजिडेंट के विरुद्ध धडाधड लेख निकलने लगे | अंत में इतना बदनाम हुआ कि पदच्युत  कर दिया गया | तब  वह भोपाल स्टेट से बाहर जाकर दिल्ल्ली में रहने लगा ,तब एक दिन एक काला  सा आदमी हैट लगाये पतलून  बूट पहने उसकी ओर आया | उसे देखकर रेजिडेंट चकित   रह गया कि  ये तो वही था ,  जो मेरे बर्तन साफ़ किया करता था | उसने आते ही अंग्रेजी में बातचीत शुरू की, तो  रेजिडेंट कांपने  लगा |
सूफी जी ने कहा था -- आपने कहा था कि   गुप्तचर को पकड़वाने वाले व्यक्ति को आप कुछ इनाम देंगे |
हां कहा था | क्या तुमने उसे पकड़ा ? हां , हां ... इनाम दीजिये | .......वह मैं स्वंय  हूँ |
वह अंग्रेज थर थर कापते हुए बोला -- यदि राज्य के अन्दर ही मुझे तेरा पता चल जाता तो  बोटी -- बोटी उडवा देता | खैर उसने उन्हें एक सोने की घड़ी दी और यह कहा कि यदि तुम स्वीकार करो तो जासूस विभाग से १००० रूपये मासिक वेतन दिला सकता हूँ | परन्तु सूफी जी ने कहा  अगर वेतन ही लेना होता तो आपके बर्तन क्यों साफ़ करता ?

                                     सूफी अम्बा प्रसाद ने सन १९०९ में ' पेशवा '' अखबार निकाला |  वास्तव में उनके सम्पादकत्व में छपे पेशवा अखबार के पुराने अंकों को पढ़कर सरदार भगतसिंह को क्रांति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा मिली थी । उन्ही दिनों बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन में उग्रता बढ़ने पर अंग्रेज सरकार को चिंता हुई कि कही यह आग पंजाब को भी जला न डाले | अस्तु दमनचक्र आरम्भ हुआ | तब सूफी जी , सरदार अजीत सिंह और जिया उल हक ईरान चले गये | पर वहां पहुंचकर जिया की नियत बदल गयी ,उसने सोचा कि इन्हें पकडवा दूँ  तो इनाम भी मिलेगा और सजा भी न होगी | परन्तु सूफी जी उसकी     नियत ताड़ गये | उन्होंने उसे आगे भेज दिया , फलस्वरूप वह  स्वंय ही पकड़ा गया और सूफी  अजीत सिंह सहित बच निकले | फिर उन्हें ईरान में शरण लेने के लिए विवश होना ही पड़ा वहां भी उनका अंग्रेजो के विरुद्ध मुहिम जारी ही ईरान के शीराज़ में उन्होंने ग़दर पार्टी के साथ काम किया।ईरान में लिखी गई उनकी पुस्तक 'आबे हयात 'काफी चर्चा में रही ।वहां उन्होंने शिक्षा दान का अदभुत कार्य भी किया उन्होंने मशहूर राजनयिक और शिक्षाविद डॉक्टर असग़र अली हिकमत को पढाया ,जो आगे चल कर ईरान की राजनीति में ही नहीं विश्व में भी एक सम्मानीय नाम बना।
                                    सन १९१५ में जब   ईरान में अंग्रेजो  ने पूर्ण प्रभुत्व जमाना चाहा , शिराज पर घेरा डालने से उथल -- पुथल मची हुथी | सूफी जी ने बाए हाथ से रिवाल्वर चलाकर भरपूर मुकाबला किया था , परन्तु अंत में वह गोलिया खत्म होने पर अंग्रेजो के हाथ आ गये | उनका कोर्ट मार्शल किया गया और उन्हें अगले दिन गोली से उड़ा दिए जाने का फैसला दिया गया | सूफी कोठरी में बंद थे , अगले दिन २१ फरवरी१९१५ को  प्रात: यह पाया गया कि उन्होंने प्राणायाम की अवस्था में  स्वयं अपने प्राण त्याग दिए थे | लोगों ने इसे इच्छामृत्यु का तपोबल माना था । आज भी ईरान में सूफी साहब की समाधि (मजार) पर लोग चादर चढ़ाकर मन्नतें मांगते हैं।  ईरान में उनका नाम अब भी  बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है , पर अफ़सोस .. हम अपनी क्रांति के इस महत्वपूर्ण स्तम्भ के बारे में जानते भी नही है  !
 
                                                   आगामी २१ फरवरी २०१५ को सूफी अम्बा  प्रसाद की शहादत की शताब्दी पूर्ण हो रही है , क्या  स्वाधीन भारत के कृतघ्न वाशिंदे अब तो इस महान देशभक्त्त  को उचित सम्मान से श्रद्धाँजलि अर्पित कर सकेंगे
                                                                                       
                                                                                                                       - अनिल वर्मा







              

  
    नेता जी सुभाष चन्द्र बोस और सिवनी जेल 
                                                     -अनिल वर्मा 


 

                                                                                                                


                  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम आज भारत रत्न को लेकर अकारण विवादों के घेरे में है , नेता जी की मौत भले ही रहस्यमय हो , पर आज भी वो हर देशभक्त भारतीय के दिल में जिन्दा है , मध्य प्रदेश की सिवनी जेल से भी उनकी यादों का ताना बाना जुड़ा हुआ है , ऐसे महापुरुष के पावन चरण जिस धरा पर पडे , वो धन्य हो गयी , सिवनी की जेल  भी नेताजी की स्मृतियों की गवाह है।  नेताजी जी को  कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक में भाग लेने हेतु कलकत्ता से बम्बई जाने के दौरान ट्रेन  रोककर कल्याण में  २ जनवरी १९३२ में गिरफ्तार किया गया था , फिर उन्हें आजादी के अन्य दीवानों के साथ मध्य भारत की सब-जेल सिवनी में निरुद्ध कर दिया गया , उन्होंने ३ जनवरी १९३२ से लेकर ३० मई १९३२ तक सिवनी जेल में अपने जीवन के १४७ दिन गुजारे थे , उन दिनों में नेताजी अपना भोजन खुद बनाते थे।

                नेताजी को स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण सिवनी से सेंट्रल जेल जबलपुर भेजा गया था , वह  टी. बी. रोग से पीड़ित थे , जबलपुर में भी कुछ दिन रखने के बाद  उन्हें मद्रास जेल भेज दिया गया था , नेताजी ने सन १९३३ में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना जाने पर सिवनी में उनके साथ निरुद्ध साथी स्वाधीनता सेनानी देशपांडे जी को लिखे पत्र में सिवनी से जुडी यादों को याद किया था , उन्होंने लिखा था कि ' मै  सिवनी जेल से निकलने के बाद उत्तर और  दक्षिण की यात्रा करता रहा , अब वियना पहुँच गया हूँ , कृपया आप पत्र में सिवनी के बारे में विस्तार से लिखे और वहां के मेरे मित्रों को मेरी याद दिलाये। ' नेता जी यह तिहासिक पत्र आज भी सेंट्रल जेल जबलपुर में उनकी स्मृति के रूप में रखा हुआ है

                   स्वाधीनता उपरांत सिवनी की इस तिहासिक जेल की रिक्त हुई इमारत में केंद्रीय विद्यालय संचालित होने लगा था, अब यहां बाल संप्रेक्षण गृह संचालित हो रहा है , जहाँ  समाज से भटके हुए बालकों को आत्मनिर्भर बनाने के लिये अनेक रोजगारोन्मुख कार्य सिखाये जाते हैं। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की रसोई और उनके द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली वस्तुएं यहाँ आज भी सुरक्षित रखीं हैं।


                                                                                      -अनिल वर्मा